Saturday, September 30, 2017

दृष्टिदोष


अंतर देख देख - विवाद खड़े करना दृष्टिदोष है तुम्हारा
तुम -
कभी धर्म में
कभी जाति में
कहीं देश-प्रदेश में 
कहीं नस्ल में
कहीं भाषा में
कहीं गरीब -अमीर में
कहीं वृध्द जवान में
सब एकसे हो गये तब भी
नारी - पुरुष में भेद कर बैठते
ऐसे नालायक हो तुम
--राजेश जैन
30-09-2017

Wednesday, September 27, 2017

आँखों देखा सच हो सकता है - पूर्ण सच नहीं

आँखों देखा सच हो सकता है - पूर्ण सच नहीं
इस शीर्षक की पुष्टि में उदाहरण वह विषय लूँगा जिस पर बात करने में ज्यादा रस लिया जाता है। जी हाँ हम - एक नवयौवना रूपसी की बात करते हैं। रूपसी कॉलेज में दिखती है , बाज़ार में दिखती है , ऑफिस में सहकर्मी है ,कभी स्पोर्ट्स - स्विमिंग कास्ट्यूम में होती है। वह मंदिर में भी हो सकती है। रूपसी का रूप-लावण्य लुभावना है - यह सच है। एक अपरिचित युवक का दिल उसके आकर्षण प्रभाव में आ जाता है। वह उसे प्रभावित करने की हर तरकीब करता है। रूपसी - समझने पर उसे नेग्लेक्ट करके पीछा छुड़ाना चाहती है। किंतु युवक पर उसके प्रति मुग्धता इतनी अधिक है कि वह उससे हर हालत में निकटता चाहता है। ऐसे में एक दिन रूपसी को एकांत स्थान में पाकर वह , उससे ज्यादती कर बैठता है। रूपसी प्रतिरोध करती है - उसकी चीख पुकार से लोग आ जाते हैं। युवक की धुनाई होती है , पुलिस केस बन जाता है। रूपसी - निर्दोष होने पर भी विवाद में उलझती है। थाने और न्यायालय के चक्कर में पड़ती है।
अब आँखों देखे सच का उल्लेख करते हैं। युवक ने रूपसी में सौंदर्य देखा यह सच था। युवक यह नहीं देख सका कि 1. रूपसी पहले ही किसी के प्यार में बँधी थी , 2. रूपसी के घर परिवार के प्रति कर्तव्य थे , 3. रूपसी समाज मर्यादाओं से बँधी हुई थी , 4. रूपसी की स्वयं की कुछ पसंद-नापसंद और स्वयं की आदर अपेक्षायें थी और 5. रूपसी जीवन जी सकने की परिस्थितियाँ चाहती थी।
युवक - उसे आँखों से देख मुग्धता प्रभाव में आया - वह विवेक जागृत कर 1 से 5 तक में उल्लेखित विचार करने तथा सच समझ पाने में असमर्थ रहा। वह स्वयं कठिनाई में तो फँसा ही , एक निर्दोष पर विवाद , परेशानी और अपमान थोप देने का अपराधी हुआ। आँख होते हुए युवक में ऐसा अंधत्व होना कि देखे से पूरा सच नहीं समझ सके - मेरे आलेख शीर्षक को प्रूव करता है।
(Hence proved) :)
--राजेश जैन
28-09-2017
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Tuesday, September 26, 2017

जी हाँ - मैं एक पुरुष हूँ ...

जी हाँ - मैं एक पुरुष हूँ ...
लेखन में समाहित विचार और भावना - उस पुरुष के हैं जो अपना पूरा जीवन नारी के साथ , के सहायता के साथ और उनका आभार मानता हुआ जीता है। परिवार में नारी सदस्या - हमारी दादी /माँ /बहन /पत्नी /बेटी /बहू और भी अन्य रिश्तों में हैं - उनके साथ जीवन यापन करते हुए - उनकी अपेक्षा ,उनकी भावना और उनकी मनःस्थिति को नहीं समझ सकूं , तो मैं कुछ भी हो सकता हूँ - एक मनुष्य कतई नहीं। इतना पढ़ने के बाद आप यह भूल भी नहीं कर बैठना कि मुझे उत्तम मानना - हाँ यह सच अवश्य है कि ये आदर्श जब तब मेरे हृदय /मन पर हावी होकर मुझे कुछ भला बनाये रखते हैं.
एक पुरुष जब इतना सोच सके तब वह पारिवारिक / सामाजिक /राष्ट्र और एक मनुष्य जीवन की अपेक्षाओं को पूरा करता है। ऐसा पुरुष नारी ही नहीं किसी पुरुष या प्राणी मात्र पर कोई अत्याचार नहीं करता।
नारी के साथ न्यायपूर्वक रहने का परिणाम उसे संपूर्ण प्राणीमात्र और संसार के प्रति न्याय से रहने की प्रेरणा और उत्साह देता है।
-- राजेश जैन
27-09-2017
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Monday, September 25, 2017

नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित ..

नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित ..
अभी एक खुलासा आया है , जिससे यह तथ्य ज्ञात हुआ कि बाबा की सबसे करीब कही जा रही - युवती पर भी जब पहली बार उसने ज्यादती की तो वह रोते हुए ही बाहर आई थी। आशय यह कि प्रायः बुरी दिखती कोई भी नारी - पहले बुरी नहीं होती। पुरुष धूर्तता भुगतने के बाद वह बुरी दिखने को लाचार होती है। इस भेदभाव के लिए और नारी को बुराई को दुष्प्रेरित करने के लिए ज्यादा जिम्मेदार पुरुष होता है इसलिए नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित किया जाना न्याय होगा
--राजेश जैन
26-09-2017

Saturday, September 23, 2017

डिवोर्स - तीन तलाक

डिवोर्स - तीन तलाक
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विवाह से स्थापित प्रणय - दाम्पत्य बंधन जब कुछ समय में ही टूटने की कगार पर पहुँचता है तो अनायास ही दोनों पक्ष के लोग उसे बचाने को उत्सुक होते हैं। यही बात जब पाश्चात्य देशों में होती है - तो उसे सहज टूटने दिया जाता है। यहाँ टूटने नहीं दिया जाता ,तब और जब , वहाँ टूटने दिया जाता है - दोनों में ही स्थिति में बाद के समय में जीवन से प्राप्त सुख में कोई खास बदलाव नहीं आता। कारण यह होता है कि समाज में जिस तरह की सोच और संस्कार आज हैं , उससे हमारा दृष्टिकोण बदल नहीं पाता। क्या हैं आज की वह सोच और वे संस्कार ? आज हमारी सोच और संस्कार - कमी या बुराई अपने में नहीं खोज पाती है। किसी भी समस्या के लिए हम दूसरे को गलत या बुरा बताते हैं। जबकि यथार्थ में जब कोई समस्या उत्पन्न होती है - तब आत्मावलोकन दोनों ही पक्षों को करने की जरूरत होती है। किसी में कमी - कम या ज्यादा अवश्य हो सकती है फिर भी दूर किया जाना दोनों की ओर से अपेक्षित होता है।
वास्तव में हमारा समाज और संस्कृति में - तोड़ने में नहीं जोड़ने को महत्व दिया जाता है। तोडना प्रायः विनाश-सूचक और जोड़ना सृजन सूचक होता है। दाम्पत्य बंधन - पूरी सोच समझ के साथ बनाये जाने चाहिए - और बन जाने पर उन्हें सूझ-बूझ ,आपसी समझ और परस्पर विश्वास से निभाए जाने चाहिए। विपरीत लिंगीय आकर्षण ही सब कुछ नहीं है। अति कामुक दृष्टि , बाहर की ओर झाँकती है। बाहर मृग-मरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो दायित्व , किन्हीं परिस्थिति में हमने ग्रहण किये हैं , उन्हें निभाना ही उत्कृष्ट होता है। जुड़ाव बनाये रख हम सृजन का प्रतिनिधित्व करें।
देखिये , तीन तलाक की लड़ाई - भारतीय मुस्लिम नारी ने लड़के जीती है। जिस शौहर ने क्रोध या अन्य कारणवश , तलाक दिया है उसी से परिवार बनाये रखने की यह नारी उत्कंठा - उसका सृजनशील होना दर्शाता है। पुरुष भी यही गुण विकसित करे। खुशहाली के पक्ष में - पुरुष से भी जिम्मेदार बनने की अपेक्षा होती है।
--राजेश जैन
24-09-2017
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Monday, September 18, 2017

पितृ-मोक्ष अमावस्या


पितृ-मोक्ष
इस अमावस्या पर हमारी परंपरा - अपने पूर्वजों को स्मरण-आदर और उनके सुखद परलोक की कामना करने की रही है। कर्मकांड से परे यह परंपरा बहुत ही परम-पावन भावना की है। अपने बड़ों के अपने ऊपर ऋण अनुभव करते हुए - वे प्रसन्न होंगें इस लक्ष्य से स्थापित की गई है। जो दिवंगत हो गए के अतिरिक्त पितृ-मोक्ष अमावस्या पर आज जो जीवित हैं - हमें ,उनके बारे में विचार करने की आवश्यकता है। हर परिवार में वह समय आता है जब - किसी समय के बेहद सक्षम-सामर्थ्यशाली माँ-पिता जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन से संघर्ष करते हैं। वह अवस्था - बहुत दयनीय और दर्दनाक , नितांत अकेलेपन में अत्यंत डरावनी सी भी लगती है। देहांत बाद पितृ-मोक्ष की उनके प्रति हमारी कामनायें तो उत्कृष्ट हैं , किंतु यहाँ उनके जीते जी अच्छी भावनाओं से उनके सेवा का , यह समय होता है। उनकी चिकित्सा की सीमायें हो सकती हैं , किंतु मानसिक सहारा , धन नहीं चाहता। समय जुटा कर हमारा- वह सहारा बनना अपेक्षित है। हम इस कल्पना से भयभीत हो सकते हैं कि हमारी भी दशा कभी ऐसी होगी लेकिन यह कटु सच है कि मिलती जुलती ऐसी कटु दशा हमारी भी किसी दिन होगी।
आज जो बदलाव आये हैं , हम अति व्यस्त हुए हैं , उसमें अगर हम अपने ऐसे मरणासन्न बुजुर्गों का ध्यान कर सकें तो बेहतर होगा। जीते जी उनका आदर - सेवा , वास्तव में वह आवश्यकता है , जो हम सभी की किसी दिन होगी।
--राजेश जैन
19-09-2017 

Thursday, September 14, 2017

दवा की शीशी में जहर

दवा की शीशी में जहर
राजनीति देश-समाज और व्यवस्था निर्माण को उत्तरदायी होती है। जनसेवा की समस्त एजेंसी / विभाग - नागरिक को सेवा देने के निमित्त हैं। धर्म - अपने अनुयायी के उचित आचरण ,व्यवहार और कर्मों के सँस्कार को पुष्ट करने वाले हैं। शिक्षा - अकेले धनार्जन ही नहीं अपितु विधार्थी को कर्तव्यनिष्ठ बनाने की दृष्टि से आवश्यक होती है। न्यायपालिका - विवादों को हल और अपराधों के रोकथाम के उपाय के लिए है। स्वास्थ्य सुविधा से जीवन रक्षा के प्रयास अपेक्षित हैं। ऐसे ही व्यवसाय -कृषि आदि क्षेत्र वस्तु और भोज्य सामग्रियों के गुणवत्ता सहित ग्राहक संतुष्टि के ध्येय सहित जीविकापार्जन हेतु है।
आज राजनेता - अपने परिवार की आर्थिक उन्नति में व्यस्त , सेवा कर्मी - बिना रिश्वत के कार्य न करने की शपथ लिए , धर्म - निज मान पुष्टि और स्वयं को चर्चित करने के साधन जैसे , कार्य करते हैं। शिक्षा का प्रथम ध्येय स्वयं का - धन वैभव हो गया है , विद्यार्थी कितना योग्य बन सकेगा यह गौड़ कर दिया गया है। व्यापार और कृषि आदि में प्रमुख अपना लाभ कर लिया गया है। सामग्री स्वास्थ्य को हानिकर होगी या अपेक्षित समय तक ठीक भी रहेगी या नहीं इससे कोई सरोकार नहीं बचा है।
निष्कर्ष यह निकलता है कि हम जिसे दवा की शीशी जानते हैं - उसमें दवा नहीं जहर भरा है। हम भूल गये कि यह देश - यह समाज हमारा है- जिसमें हमारे अपने बच्चों को जीवन जीना है और जिनके सुखद जीवन के लिए सिर्फ धन ही नहीं वातावरण भी सुखद चाहिए होगा।
--राजेश जैन
15-09-2017
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Wednesday, September 13, 2017

हिंदी दिवस


हिंदी दिवस
भाषा - इसे मातृभाषा कहें या हिंदी , मराठी , गुजराती , तेलुगु , मलयाली ,कन्नड़ ,बँगला या उर्दू कहें - सभी स्त्रीलिंग हैं। जिस तरह भाषा के अवलंबन बिना जीवन अधूरा है उसी तरह नारी भी जो स्त्रीलिंग है के अवलंबन बिना जीवन नहीं है - जीवन अधूरा है। हिंदी दिवस पर आज नारी हित के मेरे कुछ शब्द -
नारी के परंपरागत जीवन और दशा में कुछ अच्छाई भी हैं और बहुत सारे दुःख-दर्द भी हैं। अब उन्नत हुई नारी के जीवन और दशा में कुछ अच्छाई भी हैं और बहुत दुःख-दर्द भी हैं। जब हम पालक होकर सोचते हैं तो परंपरा जिसमें नारी पर बहुत सी वर्जनायें थी वह ठीक लगतीं हैं क्योंकि उसमें ही हमें बेटी - बहन , पत्नी की सुरक्षा प्रतीत होती है। और जब हम किशोरी और युवती की दृष्टि से देखते हैं तो उसमें खुलापन और आज़ादी अच्छी प्रतीत होती है। किंतु इससे , उनमें आ रही स्वछंदता यथा - शराब - सिगरेट पीना , एकाधिक पुरुष मित्रों से संबंध , और देर रात्रि तक तफरीह -पार्टी उनकी सुरक्षा को खतरा बढ़ाता है। अपरिपक्व युवा दृष्टि उस स्थिति को नहीं देख पाती कि युवा नहीं रह जाने के बाद भी उन्हें लंबा जीवन जीना होता है , जिसमें सामाजिक गरिमा-सम्मान भी महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है।
लिखने का अभिप्राय यह है कि हम अपनी दृष्टि इतनी साफ़ करें कि हमें परंपरागत नारी जीवन में जो अच्छाई थी उसकी पहचान रहे - साथ ही हमें उन्नत हो रहे नारी जीवन में स्वतंत्रता और मिल रहे समान अवसरों का उपयोग किन तरह की बातों में हितकर है यह दिखाई दे सके।
कोई भी वस्तु पूरी की पूरी लाभकारी नहीं होती है। हमें वस्तु का लाभकारी प्रयोग करना आना चाहिए। नारीवाद को सही परिप्रेक्ष्य में प्रयोग ही जीवन हितकर होता है। मिल रहे अवसरों को सही प्रयोग न कर पाने की स्थिति में नारी नये तरह के शोषण की शिकार हो सकतीं है। नारी - माँ है ,बहन है ,बेटी है ,पत्नी है - इसलिए पारिवारिक हितों की दृष्टि से सुखी नारी अकेले नारी हित नहीं बल्कि यही पुरुष हित भी है।
परामर्श यह कि हम जिन भी बदलाव के समर्थक हैं - उन्हें आँख बंदकर समर्थन नहीं दें अपितु बदलाव सही दिशा में प्रशस्त हो इसे दूरदर्शिता से सोंचें -समझें।
"जय मातृभाषा - जय हिंदी दिवस "
--राजेश जैन
14-09-2017 

तर्क


तर्क-
भारत में बौध्दिक स्तर में काफी असमानता है। इसलिए कोई तर्क कितना भी सही क्यों न हो , इस तथ्य को ध्यान में रख कर ही प्रचारित किया जाना चाहिए कि वह विभिन्न लोगों में किस तरह प्रतिक्रिया का विषय होगा। देश एवं समाज में इससे अराजकता या वैमनस्य तो नहीं उपजेगा। सच्चा तर्क देने वाला बुध्दिजीवी भी तब तक समाज - सौहाद्र निर्माता नहीं हो सकता , जब तक वह अपने तर्क के साथ के खतरे को नहीं परखता। ऐसा बुध्दजीवी सिर्फ अपने को चर्चा में तो रख सकता है। किंतु राष्ट्र निर्माण में उसका योगदान सार्थक नहीं हो सकता। जहाँ तक चर्चित होने की बात है , चर्चित तो आज पॉर्न सेलिब्रिटी भी हैं। जो जीवन में सिर्फ भोग के पोषक होते हैं। भोगियों को इतिहास भुला देता है और सर्वहित में त्याग करने वाले को अमर करता है।
--राजेश जैन
13-09-2017

Friday, September 8, 2017

ब्लू व्हेल (#Blue_whale)


ब्लू व्हेल (#Blue_whale)
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100 से अधिक बच्चों की मौतों का जिम्मेदार यह शातिराना गेम - और इस तरह की विनाशक किसी (बनाने वाले) की दिमाग की उपज किस मूल बात (खराबी) की ओर संकेत करती है , इसे हमें खोजना चाहिए - इस हेतु निम्न कुछ प्रश्नों के माध्यम से हम आज विचार करें -
क्या हम अपने बच्चों का मनोविज्ञान समझने की कोशिश करते हैं ?
क्या हम उनका उचित तरह का लालन-पालन और शिक्षा सुनिश्चित करते हैं ?
क्या उन्हें , हमारे संस्कार उचित और अनुचित भेद करा सकने की दृष्टि से पर्याप्त हैं ?
घर और बाहर हमारे बच्चे क्या करते और किन की संगत करते इसे जानने के लिए हम समय देते हैं ?
सभी का उत्तर है - शायद नहीं या बेशक नहीं।
अन्यथा कोई जो पहले बच्चा था और आज बड़ा हुआ - इस तरह प्राण लेने के लिए उकसावे का गेम नहीं बनाता।
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कोई भी किशोर - गोपनीय रूप से इस गेम के झाँसे में फँस अपनी जान नहीं गँवाता।
अगर हम अपने लिए , अति निज स्वार्थ के लिए ही जीना चाहते हैं तो वास्तव में हमें बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं। दुनिया - देश , हमारे समाज और परिवार में इतनी खराबी हैं तो इसका सीधा इशारा इस बात की ओर है कि हम बच्चों के माँ - पिता हो सकने की पात्रता बिना बच्चे पैदा कर रहे हैं।
--राजेश जैन
09-09-2017
https://www.facebook.com/PreranaManavataHit/