Tuesday, April 29, 2014

उपेक्षा का दर्द

उपेक्षा का दर्द
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उम्र बढ़ने के साथ परिवार और बच्चों के सुख में अपना सुख अनुभूत करना भारतीय जीवन शैली रही है.
परतंत्रता में अपने ऊपर शासन करने वाले बाहरी लोगों को हमने , बढ़ती उम्र तक अपने भोग-उपभोगों में लिप्त देखा.
चूंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं , हममें से कुछ ने उस शैली में जीवन सुहावना माना. और इस तरह भारतीय जीवन शैली से विपरीत शैली ने हमारे समाज में घुसपैठ की.  धीरे धीरे इस शैली पर जीने वाले बढ़ते गये। आज इसकी ही बहुतायत है.

फलस्वरूप परिवार बीच सम्बन्ध प्रगाढ़ता घट गई.  माँ-पिता अपने भोग-उपभोग में तल्लीन , बच्चे अलग अपने सुखों में परिवार दायित्वों से बेखबर.

समस्या तब होती है जब वृध्दावस्था में माँ -पिता पराश्रित हो जाते हैं.किन्तु इस बीच माँ-पिता की देख देख बच्चे स्वयं के भोग-उपभोग प्रधानता की आदत के गुलाम हो चुकते हैं.  उपेक्षा का दर्द दुनिया से विदा होते माँ -पिता के सीने में बसता है जो किसी अभाव या रोग की तकलीफ से ज्यादा कष्टदायी होता है. ....

इस परिदृश्य में अपनी संस्कृति में विश्वास और उसका आश्रय ही एकमात्र विकल्प (समाधान ) है.  जो हमारे परिवार ,समाज में सुख सुनिश्चित करता है.

अपने से ज्यादा परिवार और बच्चों के सुखों का महत्त्व देता हमारा जीवन , परिवार के अन्य सदस्यों में यही संस्कार की बुनियाद रखता है. और अनायास प्रतिफल में हमारे सुखों के प्रबंध हमारे परिजन करते हैं.

यह भारतीय संस्कृति है , यही मानवता भी है और यही सच्चा मानव जीवन चक्र है. जो समाज हित करता है

--राजेश जैन
30-4-2014

Thursday, April 24, 2014

जीवन में कुछ कर गुजरना है तो स्वस्थ होना अनिवार्य है


जीवन में कुछ कर गुजरना है तो स्वस्थ होना अनिवार्य है
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हम सभी देखते हैं , हमारे कुछ परिचितों को अप्रिय "हार्ट अटैक" रोग का सामना करना पड जाता है.  जीवन शैली और हमारे भोज्य पदार्थों  में कुछ इस तरह का परिवर्तन आया है. जिसमें यह खतरा हम सभी पर मंडरा रहा है.

रोकथाम के लिए हमारा भोज्य पदार्थ पौष्टिक , गुणकारी और "ऑर्गनिक " हो यह आवश्यक है ही.  साथ ही वर्क आउट के लिए प्रतिदिन आधा -एक घंटा दिया जाए यह भी उतना ही आवश्यक है.

यह देखा गया है , हार्ट सम्बन्धी समस्या उत्पन्न होने के बाद , पीड़ित व्यक्ति सुबह ,शाम भ्रमण ( walk) करता दिखाई देने लगता है.  यही जीवन शैली जब कोई 35 -40 का होता है तब ही आरम्भ कर दे तो हार्ट अटैक और कुछ अन्य तरह के घातक रोगों के खतरे 80 % तक कम हो जाते हैं.  या खतरा काफी हद तक विलम्बित  हो जाता है.

इसे इस तरह समझें , कोई व्यक्ति 44 वर्ष की उम्र में हार्ट अटैक का सामना करता है , जो किसी तरह का वर्क आउट ( व्यायाम ) या वॉक ( भ्रमण ) नहीं करता रहा था.  अब समय को 9 वर्ष घटा कर यदि उसकी वय 35 वर्ष पर ले आयें (वैसे ,संभव नहीं होता है ) .  इस उम्र से प्रतिदिन वह 50 मिनट की मॉर्निंग वॉक  करने लगता है तो 44 वर्ष की उम्र वह बिना रोग झेले पार करता है और उसे जीवन में हार्ट अटैक कभी होता ही नहीं या फिर होता है तो भी 65 के बाद होता है.

स्पष्ट है की स्व-प्रेरणा से यह अच्छा कार्य हमें करना चाहिए , किन्तु यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो कम से कम अपने उस हितैषी की सलाह हमें अवश्य मान लेनी चाहिए , जो ऐसा करने की निःस्वार्थ प्रेरणा हमें देता है.

"पुरुषों पर विशेषकर ,ह्रदय रोगों की ज्यादा आशंका होती है, अतः 35-40 के होने पर स्वस्थ जीवन शैली हमें अवश्य अपना लेनी चाहिए. स्मोकिंग करते हों तो छोड़ें , जंक फ़ूड के स्थान पर घर रसोई से तैयार सामग्री भोजन में लें और प्रतिदिन कम से कम 50 मिनट का भ्रमण करें . जो इस आयु के बीतने पर भी ऐसा नहीं कर सके हैं उन्हें तुरंत ही ऐसा करना आरम्भ करना चाहिए ( देर आये दुरुस्त आये की तर्ज पर )

इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढाई में और प्रोफेशन में एक इंग्लिश उक्ति हमेशा कही -सुनी जाती है "प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर " ("Prevention is better than Cure ").

जबलपुर में रिज रोड भ्रमण के लिए आदर्श स्थल है . लेखक की भाँति यहाँ भ्रमण अपनी दिनचर्या में सम्मिलित अवश्य करें .और संभव नहीं है तो जहाँ करना  पसंद ,सुविधाजनक हो वहाँ करें. किन्तु प्रातः भ्रमण अवश्य करें

मनुष्य जीवन समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ है , इस में हम यदि कुछ कर गुजरने की महत्वाकांक्षा रखते हैं तो यह हमारे सामर्थ्य और मानवीय उत्तरदायित्वों के अनुरूप ही है . इसलिए अपने जीवन को निरोगी और दीर्घ रखने के उपाय हमें अवश्य ही करने चाहिए . तभी हम कुछ कर गुजरकर ही दुनिया से गुजरेंगे . अन्यथा कर गुजरने के लिए मिले कम समय के कारण मानवता प्रति अर्जित हमारी उपलब्धियों में भी कसर बाकि होगी , जबकि जीवन बाकि ना होगा .

राजेश जैन
24-04-2014
 

Saturday, April 12, 2014

शुभ संकेतों का त्रुटियुक्त अनुवाद

शुभ संकेतों का त्रुटियुक्त अनुवाद
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बचपन में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करते हुए ही परीक्षाओं में मिलती आशातीत सफलता , किशोरावस्था में खेलकूद ,फिर अच्छे शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश प्राप्ति की सफलता, युवा होकर और जीवन में बढ़ते हुए कला ,विज्ञान ,व्यवसाय और खेल इत्यादि में कल्पनातीत सफलतायें हममें से कुछ के हिस्से में आती हम सभी यह देखते हैं. उपलब्धियों की आस में रहते हरेक व्यक्ति को जीवन के ये शुभ संकेतों का सही अनुवाद कर जीवन प्राथमिकतायें तय करनी चाहिए .


निश्चित ही आशातीत सफलतायें जिन्हें मिलती हैं वे औसत या साधारण से अधिक प्रतिभा संपन्न होते हैं और इनमें से ज्यादातर मध्यम वर्ग , प्रतिष्ठा और आर्थिक दृष्टि से साधारण परिवार से होते हैं. ज्यों ही इन्हें जीवन में सफलताओं के रूप में "शुभ संकेत " मिलते हैं इनके सपने आसमान छूने लगते हैं. ये मान प्रतिष्ठा और धन वैभव के लिए अति व्यग्र हो जाते हैं. जल्द ही ये भूल जाते हैं कि इनका पिछला जीवन थोड़ा कम वस्त्र ,कम भोज्य ,कम प्रसिध्दि, कम सुविधा  और कम मान सम्मान में भी ठीकठाक चलता रहा था .मिलती सफलता उनकी जीवन शैली को एकदम बदल के रख देती है.  निसंदेह उनमें अनन्य प्रतिभा होती है. किन्तु वे अपनी प्रतिभा का लोहा ,दुनिया को मनवाने की महत्वाकांक्षा पाल लेते हैं.  ऐसी महत्वाकांक्षा कतई ख़राब नहीं होती , किन्तु प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिए आर्थिक उपलब्धियों और बाह्य आडम्बर को बढ़ाना ही जब उनका लक्ष्य हो जाता है तो लेखक को नापसन्द होता है लेखक इसे प्रतिभा को व्यर्थ गँवाना मानता है. और उस प्रतिभा संपन्न ( आज के हिसाब से तथाकथित सफल ) व्यक्ति पर उसे दया आती है.  घर परिवार की स्थिति लगभग गुमनामी की रही थी , अार्थिक रूप से कुछ लाख रुपये संपन्न थे.  सफलता मिलना आरम्भ हुआ तो धन वैभव ,प्रसिद्धि और सम्मान दिन दूना रात चौगुना होते हुए कुछ ही वर्षों में वे अरबों के आसामी बन जाते हैं . दो तीन कमरों के घर में जीवन यापन , कुछ वस्त्रों और दो पहियों के वाहन के आदी अब भव्य बंगलों , कीमती वाहनों , कीमती वस्त्रों तथा आभूषणों और सौंदर्य प्रसाधनों से सजने लगे. शराब शायद पीते ही नहीं थे या साधारण शराब पीते रहे थे अब सामूहिक रूप से शैम्पेन खोलते दृष्टव्य होने लगे.

स्पष्ट है की प्राप्त प्रतिभाजन्य सफलताओं से इन्होने अपना जीवन स्तर उठा लेना एक मात्र लक्ष्य बना लिया है.  धन वैभव की तीव्रता से प्राप्ति के लिए सटोरियों और हीन व्यवसायों का आश्रय जिसमें लाभ अधिक होता है अपनाने लगते हैं .प्रसिध्दि को भुनाने लगते हैं . जिन वस्तुओं का स्वयं प्रयोग नहीं करते और जिनकी गुणवत्ता भी लाभकारी है अथवा नहीं जाने बिना धन प्राप्ति के लिए उनके विज्ञापन करने लगते हैं .ऐसी अपार सफलतायें पिछली सदी से सिने क्षेत्र , खेल और राजनीति में ज्यादा मिली हैं विशेषकर युवा वर्ग इनसे जल्दी प्रभावित होता है।  जल्दी ही प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग ऐसे सफल व्यक्ति को सरलता से मिलता है।  प्रशंसक इन्हें अपना आदर्श मान उनका अंधानुकरण तो करते ही हैं ऐसे ही सपने भी सजाने लगते हैं .सफलता से मिलती एक तरह की मूर्छा में , अपने कृत्यों का समाज और पीढ़ी पर क्या विपरीत और बुरा प्रभाव पड़ता है इसका ध्यान सफल हो रहे व्यक्ति को नहीं हुआ .लेखक नामों का उल्लेख कर लेख को विवादों में लाकर ज्यादा प्रचारित कर सकता है , किन्तु ऐसी सस्ती लोकप्रियता के मोह किये बिना अपने सामाजिक दायित्वबोध को मान मात्र प्रभावी रूप से अपने वह विचार रख रहा है जिसका प्रभाव किसी पर अच्छा पड़े या ना पड़े किन्तु बुरा कतई ना पड़े. बुराई की विद्यमानता वैसे ही बहुत है , इसे और बढ़ाना सिध्दांत विपरीत है.


पहले रहते होंगे लेकिन अब एक भी उदाहरण देखने नहीं मिलते जिसमें अनन्य प्रतिभा के धनी किसी व्यक्ति ने अपनी सफलताओं और जीवन शुभ संकेतों को सही तरह से पढ़ा हो और उसके हाथ से ऐसे कार्य संपन्न हुए हों जो प्रमुखता से समाज का स्तर उन्नत करने में सहायता करते हों. हमने , निजी बंगलों और निजी व्यवसाय पर अरबों अरबों रुपये व्यय करने वाले आज के सफल अनेकों देख लिए किन्तु एक भी उदाहरण ऐसा नहीं देखा जिसने इसके स्थान पर अपनी अर्जित अपार संपत्ति में से  व्यय से कोई बिजलीघर , कोई सड़क निर्माण या इस तरह का कुछ निर्माण कर समाज को अर्पित किया हो .  इन सफल लोगों ने सफलता मिलने के पूर्व ये अभाव घर और अड़ोस पड़ोस में अनुभव किये हुए थे. लेकिन जैसे ही धन वर्षा हुई अपना स्तर तो अनेकों गुणा बढ़ाया लेकिन समाज के लिए कुछ नहीं किया , बल्कि पीढ़ी और समाज को दिशाभ्रमित ही कर दिया . वास्तव में यह समाज तब तक उन्नति उन्मुख था जब तक समाज कल्याण करते महान लोग समाज को उपलब्ध थे. हम साधारण लोग ऐसे लोगों के पद चिन्हों पर चल अनायास ही समाज भावना को पुष्ट करते और अपना समाज सुखी रख लेते थे.

लेकिन आज के सफल लोगों के पद उन राह पर ही बढ़ते दिखते हैं , जिसकी मंजिल स्व-सम्पन्नता ही होती है.  साधारण व्यक्ति जो सफल लोगों के पदचिन्हों पर चलने का आदी रहा है , इन तथाकथित महान और सफल व्यक्तियों के पथ और पदचिन्हों पर चलने लगा है. सभी स्व-सम्पन्नता का लक्ष्य और सपना लिए शिक्षा प्राप्त करने लगे हैं .और अपना जीवन प्रशस्त करने लगे हैं .  व्यक्तिगत उपलब्धियों के सपने के रथ पर सवार इस तरह बढ़ने लगे जिसके नीचे आ अनेकों के सपने कुचल गये हैं .  कुचले जाने की पीड़ा में कुचले गए लोगों के मन में वैमनस्य पनपा है . परिणाम हम देखते हैं हमारी संस्कृति और समाज में व्याप्त संतोष धन ओझल होने लगा है. किसी के मुश्किल पलों में सच्चा हितैषी अब कम उपलब्ध है.  जहाँ तहाँ छल और ठगाई का बोलबाला है.
 सफल व्यक्ति जीवन में प्राप्त शुभ संकेतों का सही अनुवाद कर ग्रहण करते तथा ऐसी मिसाल प्रस्तुत करते जिसमें उनके हाथों सफल होते ही समाज कल्याण के कार्य उनके स्वहित से ज्यादा दिखते तो पीछे आ रही पीढ़ी को ऐसा आदर्श मिलता जिसका अनुगामी होकर वे समाज को पुष्ट करते. चिंताजनक स्तर पर पहुँच गई सामाजिक बुराईयाँ स्वमेव नियंत्रित होती .

ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा और शुभ संकेतों को व्यर्थ जाया कर अपने जीवन को सार्थक ना कर इन सफल व्यक्तियों का यह समाज को धोखा तो है ही जिसके प्रति उसके दायित्व थे. लेखक इसे ईश्वर के साथ भी अन्याय ही मानता है जिसने उसे यह प्रतिभा जगकल्याण में लगाने के लिए दी थी.


विडम्बना ही कहें एक सफल व्यक्ति भी अपने ईश्वर की भक्ति ,पूजा और श्रध्दा इसलिए करता है क्योंकि ईश्वर उनका और सभी का भला करने वाला माना जाता है .  लेकिन यह सफल व्यक्ति अपने ईश्वर से यह गुण ग्रहण नहीं कर पाता कि अपने मानने वाले समाज और प्रशंसक का वह स्वयं भला करे. वह अपनी लालसाओं और हवस के वशीभूत स्वयं को ईश्वरनिष्ट भी नहीं सिध्द कर पाता यद्यपि धर्मालयों में जा झूठी अर्चना भक्ति करते अवश्य देखा जाता है.

 यह समाज और पीछे आती प्रशंसकों की भीड़ ही उसे महान ,संपन्न और सफल बनाती है. लेकिन बदले में उनके अभाव और दुखदर्द कम करने के स्थान पर आज का सफल व्यक्ति उनकों गलत सपना और गलत राह दिखाने का अपराध करता है जिस पर चलकर भोगलिप्सा ,स्वार्थ प्रवृत्ति , अनैतिकता और भ्रष्टाचार ही चंहुओर पनप रहा है. फिर विडम्बना ही लिखूंगा की सरेआम दिशाभ्रमित और पथभ्रमित करने के अपराध का दंड नियत करने का कोई प्रावधान वर्तमान दंडविधान में नहीं है (पहले धर्म-विधानों में था ,लेकिन धर्म की भी अब अपने सुविधा अनुसार विवेचना की रीति चल गई है ).


अंत दूर नहीं कर इतना लिख देना उचित होगा कि पिछलों की भूलों को अब हम भूलें . अब जो सफल हों प्राप्त होने वाले जीवन शुभ संकेतों को सही पहचाने और अनुकूलताओं  के चलते सुविधा, भोग-उपभोग और धन वैभव के चक्करों में फिरते ही अपने जीवन को ना बिता कर उन चक्करों से निकल जीवन को स्व-हित के स्थान पर समाजहित में लगाएं. समाजहित होगा तो स्व-हित तो स्वमेव ही होगा. साथ ही सामाजिक दायित्वों की पूर्णता से प्राप्त मनुष्य जीवन भी  सार्थक होगा.

--राजेश जैन
12-04-2014















Thursday, April 10, 2014

जीवन महत्त्व - समय सापेक्ष गणना

जीवन महत्त्व - समय सापेक्ष गणना
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सृष्टि अनादि काल से अनंत काल तक चलती रहना है.  प्राणी जीवन को य़ा विश्व में कुछ भी अच्छा या बुरा घटित होता रहे इससे अप्रभावित समय निरन्तर अपनी गति से गतिशील रहा है रहेगा. अनादि काल की किसी घटना का आज उल्लेख किया जाए तो अधिकांश इसे कथा -कहानी जैसे सुनते और मानते हैं. इसलिये अपने स्वयं के जीवन महत्त्व को समझने के लिए पिछले पच्चीस सौ वर्षों को लेकर ही लेख करना उचित होगा. आज इतने समय को कोई भी विभिन्न साक्ष्य , कला कृतियों , लिखित ग्रंथों के अस्तित्व से सिर्फ कथा कहानी ही नहीं मानकर,  सरलता से उसे यथार्थ स्वीकार कर सकेगा.

सम्पूर्ण विश्व में मानव जनसँख्या का औसत इन वर्षों में 5 अरब अगर लिया जाए तब इन पच्चीस सौ वर्षों में

कुल मानव वर्ष = 5 अरब X 2500 = 12500 अरब मानव वर्ष  .............  (1 )

हमारा एक जीवन 80 वर्ष का माना जाए तो समय मानचित्र पर

एक जीवन  = 1X 80 = 80 मानव वर्ष  …………………….... (2)



(1) और (2) के मानव वर्ष की तुलना करें तो पाएंगे "80 मानव वर्ष" ( हमारा अपना जीवन ) , कुल 12500 अरब मानव वर्ष जैसी विशाल संख्या के समक्ष नगण्य ही है .




अब हम विचार करें हर अलग मनुष्य का समय मानचित्र पर महत्त्व नगण्य ही होता है.  तब भी वह 70 -80 वर्ष के अपने जीवन में स्वयं को भ्रम , कुछ अनुकूलताओं और अभिमान में चूर होकर कितना बड़ा -महान इत्यादि समझने की भूल करता है.

यह जीवन गणित तो बहुत स्पष्ट है , किन्तु जीवन में विभिन्न फेर में उलझे रहने से इतनी स्पष्ट बात भी दृष्टि गोचर नहीं होती है. ज्यादातर लोग आज धन वैभव , दीर्घ यौवनसुख  , शक्तिशाली व्यक्तित्व या प्रकांड ज्ञानी बनने  के फेर में उलझे हुए हैं. पूरा जीवन स्व-हित और कुछ हद तक परिजन हित में लगाते हैं. यह सहज और स्वाभाविक भी है .लेकिन मनुष्य और सामाजिक विकास यात्रा के दृष्टिकोण से इस तरह के जीवन का महत्त्व अति साधारण होता है.  सभी अगर इतने में ही उलझे हुए हों तो समय तो गतिशील रहता आगे बढ़ता जाएगा किन्तु मनुष्य समाज इसके विपरीत थमा रह जाएगा. 

हमारा समाज बुराई से ग्रसित है हम अपने और परिजनों को इसमें सुरक्षित या आशंकारहित नहीं देखते हैं. तब आवश्यकता यह होती है कि मनुष्य समाज थमा ना रहे. अपितु समय के साथ उस दिशा में गति करे जिससे मनुष्य समाज हमारे अपने लिए , परिजनों के लिए  और समस्त अन्य के लिए सुरक्षित या आशंकारहित बने.

अगर मानव यात्रा को गतिशील रखना है तो हमें स्वयं को और अपने क्रियाकलापों को अपने तक सीमित नहीं रहने देना है. अपना चिंतन स्वयं और परिवार से ऊपर लाकर मानवता और समाज के हित में वृहद (विस्तारित) करना है. और इसलिए प्रत्येक को अपने जीवन गुणवत्ता , उसकी रेटिंग ऊँचा उठाने की तत्परता दिखानी होगी.

कैसे की जाए जीवन रेटिंग? …
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धन और ऋणात्मक स्कोर जीवन प्राथमिकताओं और क्रियाकलापों के अनुसार निम्नांकित पध्दति से की जा सकती है.

(1) जो स्वयं और परिजन हित में जीते जीवन संपन्न करता है उसे  ( बीस जीवन के सहारे के एवज में )   20 अंक दिए जायें .

(2) जो स्वहित में जीते जीवन संपन्न करता है उसे  ( एक जीवन के सहारे के एवज में )   1  अंक दिया जाये.

(3) एक उदाहरण के रूप में एक हमारे राष्ट्रपति रहे वैज्ञानिक जिन्होंने अपना जीवन देश और समाज को समर्पित किया लगभग पचास वर्षों में औसत रूप से 20 लाख लोगों के प्रति वर्ष प्रेरणा स्त्रोत बने रहे. ऐसा कर देश समाज को अच्छी दिशा देने को प्रयत्नशील रहे उन्हें 50X 20 लाख = 1 हजार लाख अंक दिए जायें .

(4) एक हमारा सिने अभिनेता जिसने अपना ,अपने परिजन के लिए अकूत धन वैभव बटोरा और जो स्वयं और परिजन हित में जिया है उसे +20 अंक ( बीस जीवन के सहारे के एवज में ) और
50 वर्षों तक सिने परदे पर छाये रहकर अपने औसत प्रतिवर्ष 1 करोड़ प्रशंसकों की सोच और जीवन शैली को भोगलिप्सा की ओर दुष्प्रेरित करने के लिए -(50X1 करोड़) = -50 करोड़ इस तरह -49,99,99,9,80 अंक दिए जायें.

जीवन रेटिंग का यह काल्पनिक पैमाना बहुत लोगों को सही नहीं लग सकता है , किन्तु लेख में इस उद्देश्य पर जोर दिया गया है कि हम अपनी जीवन शैली पर गौर करें. ऐसा जीवन जिसका महत्त्व विशाल काल पटल पर नगण्य है , में घटिया क्रियाकलापों में लगकर मानवता और समाजहित में नेगेटिव ( ऋणात्मक ) उपलब्धि के साथ व्यर्थ ना करें. ना ही हम मानवता और समाज को अहितकर दिशा में ले जाते लोंगों का अनुकरण करें.

अगर यह लेख स्व-जीवन आत्म अवलोकन को प्रेरित कर सके जिससे सामाजिक परिदृश्य आज से भिन्न और बेहतर बनता है तो लेखक को प्रसन्नता होगी।  अन्यथा लेखक और बेहतर तर्कों और अभिव्यक्ति के साथ  बार बार आते रहने को तत्पर रहेगा …

--राजेश जैन 
10-04-2014










Tuesday, April 8, 2014

महत्वाकांक्षा

दिवास्वप्न - कहते हैं कठिन होते हैं साकार होना 
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दो बेटियाँ जन्मी थी , तीन वर्षों के अंतराल में उसके घर में . कुछ अजीब से नामकरण किये थे उनके . बचपन में बेटियाँ आकर बताती उसके टीचर नाम का अर्थ पूछ रहे थे . वह उनसे कहता उनको यह बताना , "इस नाम में (शब्द ) का अर्थ उन्हें (बेटियों को ) स्वयं प्रदान करना है ". बच्चे समझ नहीं पाते थे उस छोटी वय में , क्या होता है किसी शब्द में अर्थ भरना . बात आई -गई होती रहती .

विशेषकर  माँ के गम्भीर यत्नों से कुछ अलग से पालन पोषण के बीच बच्चे बड़े होने लगे . उनके छोटे मन में कई बार प्रश्न और द्वन्द उत्पन्न होते . सब जैसा करते /पहनते /खाते घूमते-घामते और पार्टियाँ इत्यादि इन चलन से हट कर, क्यों उनसे घर में अलग सा करवाया जाता है ?

अर्थ समझ में आना आरम्भ हुआ जब किशोरावस्था परिपक्वता पर पहुँच रही थी . इतना कर लेने में  जब वह सफल हुआ तब कल्पना की उड़ान (जिसकी कोई सीमा नहीं होती ) बहुत ऊंचाई को छूने लगी . अब वह सोचता कोई ऐसे विशेष तरह के किसी घर के संस्कारित बेटे उन्हें दामाद रूप में मिल जाएँ .

ताकि वह अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध हो सकें जिससे बचपन से बच्चों के मन में जो डाला जाता रहा ,वे अपने नामों को (जिनका अर्थ सब पूछते रहे थे) को सारगर्भित और उच्च अर्थ अपने नेक कर्मों और आचरण से दे सकें .

जीवन के सत्तर -अस्सी वर्ष कभी तो बहुत लम्बे से लगते हैं और कभी तो इतने छोटे में सिमट जाते हैं कि जीने वाले को अंत समय में हैरत हो जाती है इतनी सी अवधि में यह विदाई बेला कैसे आ गई ?

अपने छोटे से दायरे में स्वयं अति संतोषी सा  प्रख्यात , यह साधारण व्यक्ति इतना महत्वाकांक्षी होगा ,ऐसी किसी को भनक भी नहीं थी .लेकिन उसे अपनी अति महत्वाकांक्षा का भली-भाँति ज्ञान था . जो उसे बिन कहे रूप में अपने बच्चों से अपेक्षित था  . उसकी महत्वाकांक्षा अति विशिष्ट थी . बच्चों के जीवन के सत्तर -अस्सी वर्ष इतने सामान्य तरह से पूरे होते जाते देखने की नहीं थी  .

उसे विश्वास है सपत्निक उसने अब तक अपने विशेष तरह के पालन पोषण से जिनका जीवन आरम्भ सजाया है ,उसके दामाद आगे इसी तरह निभाएंगे . जिनके नाम का अर्थ नहीं था उसकी बेटियों के जीवन को आगे भी तराशे जाने में सहायता करते हुए उनके कार्य मानवता और समाजहित तथा समाज में शोषित -व्यथित नारी की चेतना और उनके सम्मान रक्षा में सुनिश्चित करायेंगे .
ऐसा होने पर ना सिर्फ नामों को अच्छा अर्थ मिल जाएगा ,बल्कि आज के बुरे होते जा रहे सामाजिक वातावरण को सुधारने के लिए क्षितिज पर से 1 नये तरह को सूर्य उदित होगा जिसके प्रकाश और ऊष्मा में वह सामर्थ्य होगा जो संसार में मानवता इस रूप में व्याप्त करेगा .

उसे ,बच्चों को धनवान ही नहीं अपितु इस तरह महान होता देखना है . उनके महान कर्म और आचरण ऐसे होने चाहिए ताकि  संसार में अवतरित हर मानव अपने पूरे जीवन को सार्थक तरह से जीने में सफल हो सके ऐसा सामजिक परिदृश्य साकार आकार ले सके..

--राजेश जैन
08-04-2014