Thursday, April 28, 2016

बुरे रास्ते ना चलेंगे

साथ आ जाओगे
हम साथ चलेंगे
जीवन न थमता
थम हम न सकेंगे

खड़े तुम रहोगे
अड़े हम न रहेंगे
कदम तुम बढ़ाओ
हम साथ चलेंगे

सहायता चाहोगे
रुक मदद करेंगे
सार्थक जीवन हो
मदद को रुक सकेंगे

मानवता से रहेंगे
मानवता की कहेंगे
मानव हैं इसलिये
प्रेरणा इसकी देंगे

हम बुरा ना करेंगे
बुराई को मना करेंगे
बढ़ी बहुत समाज में
कमी के उपाय करेंगे

हम अवश्य चलेंगे
परहित प्रेरित करेंगे
चलना है जरुरी लेकिन
बुरे रास्ते ना चलेंगे
--राजेश जैन 
29-04-2013

कैसा है, भारतीय समाज में नारी जीवन ..

कैसा है, भारतीय समाज में नारी जीवन ..
एक नारी के समक्ष पूरी दुनिया पराई होती है।  बहुत निकट के रिश्ते के पुरुष - पिता ,भाई , पति और पुत्र उसे सुशीला देखना चाहते हैं।  वहीं शेष पुरुषों की दृष्टि और हरकतें उसे सुशीला न रहने देने को बढ़ावा देती हैं। परेशानी 12-13 वर्ष से 50 वर्ष की उसकी अवस्था तक ज्यादा होती है , जब तक उसका रूप लावण्य बना रहता है। माँसलता समाप्त होते ही , आसपास मँडराने वाले स्वार्थी पुरुष की रूचि उसमें समाप्त हो जाती है। नारी के सामने विडंबना यह होती है कि पिता ,भाई , पति ,पुत्र रुपी यही पुरुष जो उसे तो सुशीला रहने का हिमायती होता है वही अन्य नारी के शील बिगाड़ने को तत्पर रहता है। पुरुष के इस दोहरे चरित्र के बीच सच्चे सम्मान एवं प्रेम की तलाश में नारी के प्रयत्न , अनेक बार असफल हो जाते हैं। वह अपने से लगने वाले लोगों के छल की शिकार होती है। पिता ,भाई , पति ,पुत्र  का दोहरा चरित्र भी घर-परिवार में उस पर अत्याचार का कारण होता है। पश्चिमी प्रभाव में बदल रही नारी , इस जीवन से मुक्त होने को उत्सुक तो है , किंतु पश्चिमी प्रवृत्ती से भारतीय पुरुष भी ज्यादा चालाकियों  से उसे अब ज्यादा शोषित कर रहा है।
नारी को किशोरी अवस्था से ही यह समझने की आवश्यकता है कि 'सब जो कर रहे हैं , उसमें उसकी भलाई नहीं है ' सबकी नकल करने की जगह ,उसे स्वयं अपने विवेक से अपनी भारतीय राह तय करना चाहिए । पुरुष को उसकी सीमा में ही रोकना ,और उसका ऐसा साथ लेना चाहिए ,जो नारी और समाज दोनों के लिए भलाई करने वाला हो।
--राजेश जैन 
29-04-2016
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Wednesday, April 27, 2016

सजने सँवरने की आवश्यकता और मनोविज्ञान


सजने सँवरने की आवश्यकता और मनोविज्ञान  . .
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ऐसा कोई नहीं होता , जो अपने को गंदा ,घिना या फटेहाल दिखाना चाहता है। कोई क्या पहने , यह समाज और काल के चलन और वस्त्र उपलब्धता सिखाती है। ऐसे में, पूर्व पीढ़ियों ने जैसा पहना , वैसा ही अब पहना जाये , इसकी जबरदस्ती की जानी अनुचित होती है। विशेषकर पुरुष तो , मन चाहा पहने और , नारी पर क्या पहनो क्या नहीं पहनो थोपा जाए ,यह अनुचित जबरदस्ती है। कोई क्या पहने , यह व्यक्तिगत विषय है या अधिकतम पारिवारिक समझ-बूझ का विषय है। धर्मिक स्थानों ,स्कूल ,वैवाहिक कार्यक्रमों में और कार्यस्थल आदि में तय ड्रेस कोड हैं। इतना पालन कर लेना पर्याप्त होता है।
दूसरा प्रश्न , सँवरने का है , विशेषकर नारी जब सँवरती है , उसका यह अभिप्राय निकालना कि वह हर किसी को सेक्स निमंत्रण देने के लिए ऐसा करती है , यह सरासर गलत धारणा है।
सर्वसुखी समाज , सभ्यता का द्योतक होता है , कोई अपने जीवन के लिए किन बातों में खुश होता है , उसे करने की स्वतंत्रता उसे होनी चाहिए , उस समय तो निश्चित ही होनी चाहिए , जब ऐसी ख़ुशी कोई किसी पर हिंसा नहीं करके या किसी को कोई क्षति नहीं पहुँचा कर हासिल करता है। 
नारी जब घर की चाहरदिवारियों में रहती थी , तबसे , अब जबकि वह वर्किंग है , स्कूटी चलाती और बाहर के कामकाज करती है , इसमें उसके परम्परागत पहनावों से आज का पहनावा और श्रृंगार अलग होगा ही।
इस संबंध में सभी को सुलझी मानसिकता का परिचय देना अपेक्षित होता है।
--राजेश जैन
28-04-2016
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Friday, April 22, 2016

हम अपने जीवन से क्या योगदान देना चाहते हैं , समाज ,देश और दुनिया को ?


दृश्य - भंडारे के बाद का ...

दृश्य - भंडारे के बाद का ... (मंदिर - थिएटर रोड ,केंट ,जबलपुर )
जिस देश में निर्धनता ऐसी कि बच्चे स्कूल में पढ़ने भी इसलिए भेजे जाते हैं कि वहाँ उन्हें भोजन मिल जाएगा ,उस देश में बिना स्व-श्रम के प्राप्त भोज्य का ऐसा अनादर कि जूठा-छोड़ा हुआ सड़कों पर ठोकर खाता है ..
हम विचार करें ,
"जितना खा सकें उतना ही प्लेट में लें"
--राजेश जैन
23-04-2016

Thursday, April 21, 2016

आश्रिता ..

 
समाज में नारी हितों की ज़िम्मेवारी हमने ले रखी थी ,वह घरों में हमारी आश्रिता हो घुँघटों-नकाबों में , अनपढ़ और बहुत सी सामाजिक और धार्मिक वर्जनाओं में जीवन यापन कर रही थी। इन सब में भी वह सुखी रह पाती अगर उन पर गृह-हिंसा , दैहिक शोषण और अपमानित जीवन को हम विवश नहीं करते। यदि किसी ज़िम्मेवारी के निर्वहन में कोई असफल होता है तो बेहतर यही होता है वह ज़िम्मेवारी छोड़े।
नारी अपने जीवन के लिए निर्णय स्वयं लेने को उत्सुक है तो लेने दें हम ,इसमें सहयोगी हों हम। नारी जब सुखी -सम्मानित जीवन जी सकेगी तभी , हम सभी भी ज्यादा सुखी हो सकेंगे।
--राजेश जैन 22-04-2016
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हमारी पहचान


Tuesday, April 12, 2016

पुरुष 8 घंटे + नारी 4 घंटे = औसत 6 घंटे वर्किंग आवर्स

पुरुष 8 घंटे + नारी 4 घंटे = औसत 6 घंटे वर्किंग आवर्स
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बच्चे ,माँ के सबसे ज्यादा क्लोज होते हैं , घर परिवार की धुरी हमारे समाज में नारी होती है। समाज में व्याप्त नारी समस्याओं के कटु अनुभव  हमें सीख देते हैं कि नारी की आत्मनिर्भरता और उसका उच्च शिक्षित होना आवश्यक है। इससे नारी सम्मान में वृध्दि ,और उनमें आत्मविश्वास लाया जा सकता है । जिस देश के बच्चे अच्छे बनेंगे , वहाँ का समाज सुखमय होगा। बच्चों के सँस्कार और उसके स्वास्थ्य की मजबूत बुनियाद , माँ (नारी) ही रख सकती है। आत्मनिर्भर , उच्च शिक्षित , आत्मविश्वासी नारी निसंदेह बच्चों के अच्छे लालन-पालन में और' पत्नी एवं बहू' के रूप में परिवार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्तंभ बन सकती है , बशर्ते वह वर्किंग होते हुए भी  ओवर बर्डेनड न हो। घर परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक होने पर गृह कलह की संभावना कम होती हैं , जिससे परिवार टूटने की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोकथाम लग सकती है। अतः इस पेज पर पूर्व में उठाये गए आव्हान को एक बार पुनः दोहराया जा रहा है
"नारी को 4 घंटे कार्य के लिए पुरुष के फुल टाइम जितनी सैलरी दी जानी चाहिए "
स्पेन ने परिवार न टूटने देने के उपाय में , वर्किंग आवर्स घटाये हैं , देखिये शीर्षक 'स्पेन ने काम के दो घंटे घटाए ,ताकि घर न टूटे'
ऐसी पहल भारतीय पृष्ठभूमि में  "पुरुष 8 घंटे + नारी 4 घंटे = औसत 6 घंटे वर्किंग आवर्स " ज्यादा उचित होगी । 
यह देश सोचे , इस देश की सरकार विचार करें , और समाज सुधारक इस पर मंथन करें , यह अपेक्षा हम करते हैं
--राजेश जैन
 13-04-2016
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Wednesday, April 6, 2016

इन हालातों में , क्या मुझे बड़ी नहीं होना चाहिये?


मेरी ज़िंदगी ...

मेरी ज़िंदगी
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मै तुमसे जब शिकायत करता हूँ ,ज़िंदगी
तुम रुष्ट तो नहीं होती हो न मेरी ज़िंदगी
रुष्ट हुई इनसे ,मिटेगा अस्तित्व मेरा ही
मुझे तो बनना होता है अरबों की ज़िंदगी
तुम्हें इतना अनुभव है ,बनने का ज़िंदगी
कुछ बताओगी मुझे कैसे जिऊँ मै ज़िंदगी
न पड़ो तुलना में ,न रोओ हासिल नहीं में
मिले लुफ्त उठाओ ,जिओ अपनी ज़िंदगी
लाये न, छोड़ोगे सब पूरी होने पर ज़िंदगी
मिला वह बाँटते चलो यही अंदाजे ज़िंदगी
स्नेह-विश्वास चाहते यही तुम सबसे करो
छोटी ही है हर पल जीकर गुजारो ज़िंदगी
सुना सम्मोहित सोचने लगा मै ज़िंदगी
शिकवे मुक्त समय की अतिरक्त ज़िंदगी
ख़ुश रह कर बढ़ेगी कार्य क्षमता जो मेरी
उपलब्धियाँ निश्चित धन्यवाद हे ज़िंदगी
-- राजेश जैन
07-04-2015