Sunday, April 29, 2012

सुरक्षित,शांत समाज -नारी की सम्मान रक्षा एक जरुरत

सुरक्षित,शांत समाज -नारी की  सम्मान रक्षा एक जरुरत


                                           विभागीय दौरे के बीच मुझे 4 -5  घंटे का सफ़र एक ऐसी बस में करना पड़ा जो रास्ते में ग्रामों में रुक सवारी लेते छोड़ते जाती थी.जहां में बस में सवार हुआ वहां सीट खाली मिलने पर मैं बैठ गया .आगे एक ग्राम में ज्यादा यात्री चढ़े तो कुछ खड़े खड़े यात्रा कर रहे थे .उनमें एक बूढी महिला मैंने अपनी सीट पर बैठा मैं खुद खडा हो गया.रास्ते में यात्रियों के बस में चढ़ने -उतरने के क्रम में परिचालक ने एक  खाली सीट पर मुझे बैठा दिया .आगे किसी जगह फिर यात्री बढ़ जाने से कुछ लोग खड़े रह यात्रा कर रहे थे उनमें एक युवती माता अपने दूध-मुँहे बच्चे को गोद में लिए खड़ी देख मैंने अपनी सीट उसे दे दी.टिकट के लिए घूमते जब परिचालक ने मुझे खड़े पाया तो उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे .कारण ये था कि वहां सफ़र करने वाले महिलाओं के लिए सीट खाली कर देने की आदत  छोड़ चुके थे और ये ग्रामीण नारियां भी छोटी छोटी दूरियों का बस सफ़र खड़े रहकर करने की अभ्यस्त थीं. मेरे सर पर से बालों ने विदाई ले ली थी जो थोड़े बचे थे उनमें सफ़ेद रंगत आने लगी है ऐसे में परिचालक मेरी  ज्यादा उम्र मान आदर भाव अथवा कमजोर मान बैठा के सफ़र कराने का यत्न कर रहा था . 2 -3 बार बैठने खड़े होने के साथ लगभग आधी दूरी खड़े रह कर मेरी यात्रा ख़त्म हुयी .मुझे कुछ शारीरिक परेशानी जरुर हुई पर मानसिक संतोष ज्यादा रहा.जरुरतमंद कमजोर के लिए छोटी छोटी परेशानी उठाने के लिए मेरा अंतर्मन संकेत करता है .नारी के बारे में मैं मानता हूँ कि प्रकृति ने पक्षपात किया है उसे शारीरिक ताकत तो कम दी है लेकिन परिक्ष्रम और वेदना उसके हिस्से में ज्यादा आई हैं.अतः उनके प्रति मेरी संवेदना रहती है.नारी आधुनिकता के इस दौर में गृहणी के अतिरिक्त धनोपार्जन भी करने  लगी है और उसे  कदम घर के बाहर भी रखने पड़े हैं.
                           मुझे याद है 16 -18  वर्ष पूर्व मेरे छोटे बच्चों को घर में छोड़ कार्यालय को निकलते मुझे कष्टकर अनुभूति होती थी .नारी आज के परिवेश में अपने दूध-मुँहे बच्चे को घर में छोड़ बड़ी मानसिक वेदना की हालत में बाहर निकलती होगी इसका अनुमान हम लगा सकते हैं.ऐसे में मुझे लगता है जो किशोरवय में स्कूल /कोलेज जाती बेटियाँ आगामी समय में बाहर की जिम्मेदारी के लिए खुद को तैयार करने में जुटी हैं,नवजात बच्चों की माता युवतियां कार्यालयीन या अन्य व्यावसायिक कार्य से घर से बाहर आती हैं और प्रोढ़ता को बढती और कमजोर होती नारियां किसी बाध्यता में बाजारों /कार्यालयों में भटकती हैं.ऐसी सभी नारियों को हम बलशाली पुरुषों द्वारा अधिक से अधिक सुविधा ,सम्मान दिया जाना चाहिए .मुझे अत्यंत करुणा होती है जब उनसे बदसलूकी ,छेड़छाड़ की जाती है,उनपर फब्तियां और फ़िल्मी गानों से लक्ष्य कर उन्हें अपमानजनक हालत में डाला जाता है.हम अबला के इस अनादर में कोई वीरता प्रदर्शित नहीं कर रहे होते हैं.हम बहाने करते हैं की उनके कपडे ऐसे हैं ,या वह तो है ही इस लायक या वह तो इसे पसंद करती है.ऐसा नहीं है अपवाद में ही ऐसा अपमानजनक हमारा व्यवहार किसी को रुचता हो सकता है ,और इसकी प्रष्ठभूमि में भी हमारा अनैतिक बहलाना -फुसलाना या किसी रूप में उन्हें लालच दिया जाना मूलतः जिम्मेदार मिलेगा जिससे नारी अपने लाज-मर्यादा के प्रकृति प्रदत्त स्वभाव को त्यागने को बाध्य होती है प्रकृति ने पुरुष को बलशाली बनाया है हमें शक्तिहीन अबला का सहायक होना चाहिए अपनी शक्ति उसके सम्मान रक्षा में लगानी चाहिए यह वीरोचित व्यवहार होता है.जिस दिन समाज में नारी को यथोचित सम्मान मिलना आरम्भ हो जायेगा समाज की अधिकाँश समस्याएँ स्वमेव निराकृत हो जाएँगी वीर प्रबुद्धजन कहलाते ही वही हैं जो समस्याओं का उचित निदान कर उसका निर्मूलन/रोकथाम करने में समर्थ होते है.हमें सही मायनों में अपने को वीर और प्रबुद्ध सिध्द करना है.



Saturday, April 21, 2012


मनुष्य की मनुष्यता -धन से बड़ी

                              एक अधिकारी ने ग्रामीण अंचल के विभागीय दौरे से लौटते हुए एक घर की बाड़ी में भुट्टे लगे देखे तो खरीदने की मंशा से घर का दरवाजा खटखटाया .दरवाजे पर आयी महिला से उसने पूछा कि कुछ भुट्टे चाहिए हैं मिल जायेंगे क्या?महिला ने झिझकते हुए बताया कि अभी बाड़ी कि पूजा नहीं हुयी है अतः अभी भुट्टे नहीं तोड़े जा सकते हैं.फिर स्वयं ही कुछ सोचते हुए कहा ठहरिये और अन्दर चली गयी .कुछ मिनट के बाद हाथ में 8 -10 भुट्टे लेकर आयी.अधिकारी ने भुट्टे लिए और सोचते हुए कि शहर में ये 12 -15 रुपये में मिलेंगे , इनकी बाड़ी कि पूजा नहीं होने पर भी मेरी बात का सम्मान रख इन्होने भुट्टे तोड़ ला दिए हैं महिला के तरफ 20 का  नोट बढ़ाया .महिला ने लेने का कोई भाव ना दिखाते हुए कहा पैसे ना दीजिये .भुट्टे आपके या मेरे बच्चे खायेंगे कोई अंतर नहीं है एक  ही बात है .अधिकारी ने एक बार और आग्रह किया फिर भी ना कहे जाने पर महिला को हाथ जोड़ धन्यवाद कहा और वापस गाडी में बैठ रवाना हो गया .

                           शहर तक के शेष रास्ते में वह सोच रहा था मेरा गणितीय मूल्यांकन के  तुलना में महिला का मानवीय मूल्यांकन ज्यादा अच्छे ज्ञान का परिचायक है(जिसने अपरिचित के बच्चों की  जिव्हा तृप्ति को पारंपरिक पूजा जैसी ही पूजा मान भुट्टे तोड़ लिए हों.).सीधी सरल सी महिला की मानसिक सम्रद्धता के आलोक में वह यह सोचने को विवश था कि में एक अधिकारी और वह साधारण गृहणी बड़ा कौन है ? निश्चित ही वह महिला जो शायद स्कूल की शिक्षा भी पूरी ना कर पाई हो.

                             अभी भी आसपास में ऐसे उदहारण शेष द्रष्टव्य होते हैं जो दर्शाते हैं की मनुष्य की मनुष्यता ,धन से बड़ी होती है. हम भी यह अनुकरण करें या कम से कम ऐसी जीती जागती  तस्वीरें  मिट ना जाएँ इसके प्रयत्न अवश्य करें.

आहत समाज के उपचार

Friday, April 20, 2012

आधुनिक समाज एक परिकल्पना एवं मानसिक सम्रद्धता


 आधुनिक समाज एक परिकल्पना एवं मानसिक सम्रद्धता


   जीवन में मेरा अनुभव है कि कई बार मनुष्य किसी दूसरे उद्देश्य या कारण से किसी ऐसे साधन पर जाता है जहाँ उसकी मनोकामना पूरी हो या नहीं पर अनायास ही ऐसा मार्ग उसे मिल जाता है जो जीवन में उसके और संपर्क में आये अन्य जनों के लिए बहुत हितकारी हो जाता है. उदाहरण से इसे समझते हैं कि कभी कोई प्रतिष्ठा बढाने या पुण्य जुटाने जिससे उसकी आर्थिक हैसियत में वृध्दि हो अपने आस्था के धर्मालयों में जाने लगता है.ऐच्छिक ये उद्देश्य उसके वहां जाने पर पूरा हो पाता है ये अलग बात है पर कभी कभी वहां के ग्रन्थ ,शास्त्र और पवित्र किताबों से ज्ञान जिसकी गूँज ऐसे स्थानों पर अक्सर होती है उसकी वैचारिक प्रेरणा बन जाते हैं.उसके आचरण ऐसे हो जाते हैं जिससे वह स्वयं और संपर्क में आये अन्य लोग मानसिक नियंत्रण कि कला सीख लाभान्वित होते हैं. यहाँ धर्मालयों का जिक्र सिर्फ उदाहरण स्वरुप है आपका जाना या ना जाना आवश्यक है या नहीं यह आपका विवेक द्वारा तय किया जाए.क्योंकि जीवन की सही दिशा, सही मार्ग और सही मंजिल आप अन्य साधनों जैसे अच्छी विचारधाराओं , विद्यालयों ,उपलब्ध अच्छे साहित्यों से,सच्चे नायकों के संपर्क और उनके अनुकरण से और इन सबके साथ अपने अंतर्-विवेक कहीं से भी ग्रहण या हासिल कर सकते हैं.
                              हम यदि यह कर सकें कि दूसरों से तुलना करते हुए अपने को ना देखें तो बहुत अच्छा होगा.जैसे मैं उससे कम या अधिक ज्ञानवान ,धनवान या रूपवान हूँ. अथवा मैं उससे कम या अधिक प्रसिध्द ,लोकप्रिय या शक्तिशाली हूँ. अथवा उससे कम या ज्यादा उम्र का हूँ. और वह स्त्री (पुरूष) और मैं पुरूष (स्त्री) हूँ. ये तुलनाएं आपको अनावश्यक अहम् या हीन बोधता का शिकार बना सकतीं हैं.हमें यह सोचना चाहिए कि उक्त कई बातें (सिर्फ लिंग भेद को छोड़ दें) तो जीवन में कभी स्थायी नहीं होती.आज जो आपके इस बारे में दूसरे कि अपेक्षा से अनुमान हैं वह जीवन के अन्य समय में काफी कुछ बदल सकते हैं.कभी कभी तो बिलकुल ही उलट भी सकते हैं. अतः इन अस्थायी बातों में हम हीनता या बड़प्पन बोध करें यह उचित नहीं है.अगर तुलना ही हम करना चाहते हैं तो अपनी स्वयं से करें . ये इस प्रकार हो सकती है के आज के कुछ वर्ष पहले मैं जो था उसकी तुलना में आज मैंने क्या अच्छा हासिल कर लिया है.आज कि तुलना में मैं भविष्य में क्या और कितना अच्छा कर सकता हूँ/ बन सकता हूँ.तुलनात्मकता की यह शैली आपको कभी विवादित नहीं होने देगी.
                            
                                  उम्र बढ़ने के साथ जीवन में अवस्था परिवर्तित होती जाती है .बचपन से युवा होते परिवर्तन फिलहाल चर्चा का विषय नहीं है , लेकिन युवावस्था से प्रोढ़ता की ओर जब हम बढ़ने लगते हैं तो शक्ति धीरे धीरे कम होने लगती है.रूप जो कभी निर्दोष रहा हो उसमे धीरे धीरे दोष दिखने शुरू हो जाते हैं. औषधियों और श्रृंगार विधियों से हम ज़माने को फिर भी वैसा ही (पूर्व के निर्दोष रूप में) अपने को दिखाने का प्रयत्न करते हैं,काफी हद तक सफल भी होते हैं.लेकिन उपायों के अभाव की सच्चाई हमें अनुभव में रहती है.वैसे सदगुण तो जीवन में प्राम्भ से ही किसी की मानसिक सम्रद्ध्ता की परिचायक होती है.लेकिन प्रोढ़ता की ओर अग्रसर होने पर हम ज़माने को अपने रूप,सौंदर्य और शारीरिक गठन या शक्ति से प्रभावित करने की कोशिशों के अपेक्षा अपने ऐसे आचरण या कार्य जिससे अपने परिवार और समाज का हित होता है पेश करें तो हमारी उस मानसिक सम्रद्ध्ता का असर ज्यादा प्रभावी और सच्चा होगा .यह समय की मांग भी है क्योंकि समाज जिसमे हम और हमारे बच्चे जीवनयापन कर रहे हैं अत्यंत अशांत और असुरक्षित होता जा रहा है. हमारी प्रुबुद्धता और प्रेरणा यदि उसकी दिशा बदल सके तो आगे के मनुष्य सन्ततियां हमें धन्यवाद ज्ञापित करेंगी और आज के समाज में हम बेरूप ,अशक्त होते जाने पर भी ज्यादा स्वीकार्य और सम्मानित हो सकते हैं. जिस समाज में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उसका हमारे पर अहसान का सही बदला चुकाने का सही तरीका भी यही होगा.

                                                              मेरा आज का लेखन मेरे भाषा ज्ञान की सीमाओं के कारण मात्रभाषा हिंदी में ही प्रकाशित है.कोई बहुभाषाविद यदि सामाजिक आवश्यकताओं में इस चिंतन -दर्शन से सहमति पाता है तो इसका अनुवाद कर अन्य भाषाओं में प्रकाशित करे तो मुझे ख़ुशी होगी.चूकिं लेखन का उद्देश्य ही सामाजिक ,जनहित और आगामी समाज रचना को नई दिशा देना है और इस हेतु इसका प्रचार और प्रबुद्ध मानवों के इस तरह की सोच,इस दिशा में कार्यों को उत्प्रेरित करना है.ऐसे किसी भी प्रयास पर में विवाद नहीं करूंगा (क्योंकि मेरा स्वाभाव बिना विवादित रह अच्छे कार्यों कों अंजाम देने का है ).अनुवादक से अनुरोध यह अवश्य होगा के मूल रूप बदलने पर भी प्रस्तुति का मूल उद्देश्य अप्रभावित रहे .अर्थात किसी व्यक्ति ,धर्म,या राष्ट्र विशेष पर कोई टिप्पणी ना हो.लेखन-दर्शन के मूल में यह भावना भी है कि मानव समाज में से प्रत्येक अपने स्थापित आदर्शों,धर्म और प्रेरणा पर पूर्व अनुसार ही कायम रहे .बस एक शैली और विकसित करे कि किसी भी परिस्थिति में अपने कार्यों के करने के पहले अपने विवेक के न्यायालय में जाने की आदत डाल कर स्व-विवेक जो उचित कहे वह करे और करने के पहले यह भी परख ले कि इससे किसी को हानि तो नहीं होती है यदि हानि होती प्रतीत हो तो पुनः विवेक विचार करे.

                                  
                                    आपके सहयोग से अगले दो तीन सदियों में ऐसे समाज की परि-कल्पना तथा उसको मूर्त रूप होते देखना मेरी आशावादी सोच है .जिसमे आज के तरह का अशांत ,असुरक्षित,अविश्वास का वातावरण समाज में ना हो और अपने संतति को सुरक्षित समाज और वातावरण हम और आगामी मानवजन दे सकें.हमें इस विश्वास के साथ कि आने वाले समय में कुछ ,फिर कुछ और और बाद में बहुसंख्यक प्रबुद्धजन इस दर्शन से जुड़ेंगे,इस का बीज आज ही बो देना है वृक्ष बाद में लहलहाएंगे ही .

Sunday, April 15, 2012

मेरे पथ प्रदर्शक - मेरे जीवन में
------------------------------------------------------------------

                                  मार्ग चलने के प्रारंभ में यदि मार्ग की दिशा का सूक्ष्म सुधार हो जाये तो जीवनकाल में मिलने वाली मंजिल में विशाल परिवर्तन का कारण हो सकता है .
                                 अपने जीवन में अपने बडों ,नाते-रिश्तेदारों से सभी को मार्ग दर्शन मिलता है .मुझे भी मिला लेकिन उन्ही की प्रशंसा करना उचित नहीं है अतः यैसे  रिश्तेदार जो मेरे पथ प्रदर्शक भी बने उनकी चर्चा न करते हुए यैसे सच्चे नायकों और उनके मार्गदर्शन का जिक्र करूँगा जिनसे मेरी कोई नातेदारी नहीं थी लेकिन जिन्होंने मेरे सच्चे हितैषी के रूप में मशवरा दिया .

                                      मै जब हाई स्कूल में था तब मेरे maths के टीचर थे .मै पढ़ने के प्रति बहुत रूचि कभी भी नहीं रख पाया अतः उस समय भी ऐसा ही था  टीचर अपने विद्यार्थियों को पहचान लेते हैं. उन्होंने कई बार यह समझाया कि तुम कक्षा में अग्रणी सहपाठियों से कुशार्गता के मामले में ज्यादा अलग नहीं हो लेकिन पढने में लापरवाही करते हो. उन्होंने कभी मारा पीटा भी  डांटा भी लेकिन मै बहुत परिवर्तन अपने मै न ला पाया . ग्यारह्न्वी कि परीक्षा बोर्ड होती थी उसी के नतीजे पर मैरिट बेसिस पर इंजीनियरिंग मे प्रवेश मिलना तय होता था . लापरवाह होते हुए भी मन मै उस समय इंजीनियरिंग पढने कि साध थी लेकिन अपने पर ही विश्वास न था .ऐसे समय मै उन्होंने एक बार मुझसे कहा " तुम मेहनत करोगे तो maths मै बहुत score कर लोगे और यदि पेपर बिगड़ भी आये तो भी गणित मै विशेष योग्यता तुम्हारी आएगी ही ".उनके कहे शब्दों ने मुझे मानसिक संबल दिया . उनकी बात सच सिद्ध हुई गणित मे किसी प्रकार मुझे विशेष योग्यता मिली और बाद मे किसी तरह इंजीनियरिंग की प्रवेश सूची मे स्थान भी मिल गया .
                                              "मेरा नमन मेरे आदरणीय गुरु को"
                                 जब मे नौकरी में आया तो विभागीय चुनौतियां और लक्ष्य कठिन थे. मेरी बुद्धि जबाब देती लगती थी . जन अपेक्षा विभाग से होती कर्मचारिओं  की वाजिब समस्याएँ थी ,संशाधनों कि सीमित उपलब्धता थी मै निराश हो जाता. हमारे एक वरिष्ठ इंजिनियर साथी मुझ पर नज़र रख रहे थे .उन्होंने मुझे समझाया कि तुम प्रतिदिन के लिए १० काम सोचते हो शाम तक ५-६ ही पूरे हो पाते हैं इसमें  निराश होने या तनाव करने कि जरुरत नहीं है .तुम उसे इस रूप मे सोचो कि यदि तुमने १० काम की प्लानिंग ना की होती तो ५-६ कि जगह १ या २ कार्य ही हो पाते .तुम्हारी प्लानिंग के कारण तुम ५० -६०%  सफलता निकाल रहे हो अन्यथा ये २० % ही रह जाती . वस्तु को देखने  का यह द्रष्टिकोण मेरी बाद की  जिंदगी मे बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ ,
उन्हें हम कनिष्ठ  साथी गुरु कहते/मानते थे .मेरे विभागीय भविष्य की शुरुआत मे मेरे चिंतन की  दिशा में उनके द्वारा दिए सुक्ष्म परिवर्तन के लिए उनका अहसानमंद हूँ .
                                           "मेरा नमन मेरे इन आदरणीय गुरु को भी"

                                  वस्तु के सही स्वरूपों को समझने में मुझे सही मार्ग जहां से मिला उसकी भी चर्चा करूंगा .मेरी माँ ,रिश्तेदारों और परिचितों की धार्मिक रूचि के कारण उनके साथ बचपन से कई बार मैं विद्वानों की धर्मं-चर्चाओं में शामिल होता आया हूँ. मौके विशेष पर आज भी पहुँच पाना सौभाग्य मानता हूँ. बहुत ही अनुकरणीय शिक्षा वहां से प्राप्त होती हैं. विशेषकर संसार में विद्यमान प्रत्येक वस्तु  का सच्चा स्वरुप समझाने के लिए "भेद-विज्ञानं " की शैली विकसित करने में वहां के विद्वानों से ही दिशा मिली. ये विद्वान प्रसिद्ध हैं .उनके अनुकरण करने वालों के अच्छी संख्यां भी है नाम का उल्लेख वगैर "उन सबका वंदन और नमन करता हूँ".

                                 विभागीय नौकरी के दौरान एक छोटे कस्बे में मेरी पद स्थापना हुई .वहां मुझे एक शक्कर मिल मालिक जो ९० के दशक के शुरुआत में करोडपति रहे होंगे का संपर्क मिला. वास्तव में मेरा उनका ना ही अवस्था अनुसार ( वे मुझसे २० वर्ष बड़े थे) और ना ही आर्थिक हैसियत से मेल था लेकिन उस छोटी जगह वे मेरे कार्यालय या घर आ बैठना पसंद करते थे .वे सिर्फ शुगर मिल के मौसम में ही वहां आते थे अन्यथा एक महानगर के निवासी थे.अक्सर संपर्कों से उनसे मेरी आत्मीय निकटता हो गयी थी . एक दिन मैंने उनसे कहा सेठजी इतने बड़े आदमी होकर क्यों इतने दूर की धूल खाते हो. आपक़े धन उपार्जन के कई जरिये हैं . उन्होंने इसके जबाब में कहा ' ये सच है पर एक बात और है की  कुछ अतिरिक्त कमाई तो यहाँ हो ही जाती है पर साथ ही मेरे मिल से जुड़े मजदूरों को और यहाँ के गन्ना उपजाने वाले किसानों जिनका गन्ना में खरीदता हूँ उनका और उनके परिवारों के भरण पोषण में मैं निमित्त बनता  हूँ मुझे संतोष होता है.'
उनके इस द्रष्टिकोण से मुझे लगा की वास्तव में दिखने वाली चीज कई तरह की दिखती प्रतीत हो सकती है पर अगर में सही द्रष्टिकोण से उसे देखने की अपनी द्रष्टि विकसित कर सकूं तो अच्छा होगा.

                               विभागीय लक्ष्य हासिल करने के प्रति मैं उन दिनों इतना महत्वकांक्षी हो  गया था (या जुनूनी ) की कई बार ओवर एक्ट कर जाता था . ड्राईवर के अनुपस्थित होने की दशा में यदि कार्य का महत्त्व होता या कार्य की मात्रा में गिरावट अनुभव करता तो स्वयं ही driving seat पर जा बैठता (मेरे पास heavy vehicle लाएसेंस भी नहीं था) .एक दिन क्रासिंग में उन्होंने मुझे ट्रक चलाते देख लिया ,हाथ दिया मैंने अभिवादन समझ वैसा ही उत्तर देते हुए अपना रास्ता नापना जारी रखा .शाम को वे मेरे घर पहुँच गए पूछा आपके पास ट्रक चलने का लाएसेंस है , मैंने कहा नहीं है .उन्होंने फिर कहा यदि कभी एक्सिडेंट हो गया तो क्या होगा ? मैंने जबाब में कहा नहीं में सावधानी से ट्रक चलाता हूँ .उन्होंने फिर पूछा  सड़क पर एक्सिडेंट क्या तुम्हारी ही गलती से हो सकता है क्या ? दुसरे की गलती के कारण भी यदि एक्सिडेंट हो गया तो तुम्हारे पास लाएसेंस ना होने से तुम जेल पंहुच जाओगे तब छोटे-छोटे तुम्हारे बच्चों का क्या होगा? उनकी सीख को बाद में मैंने निभाने का प्रयत्न किया. वास्तव में अनुभवी और प्रबुद्ध-जनों की बातें गंभीरता से सुने उनका अनुकरण करें तो लाभ ही होगा .

                              "उन आदरणीय पथ प्रदर्शक को मेरा हार्दिक नमन "  करते हुए यह भी लिखूंगा की उनकी उक्त सीख के आलावा यह भी सच था की एक अकुशल ड्राईवर का ट्रक जैसा वाहन चलाना मार्ग से गुजर रहे निर्दोष राहगीरों के जीवन  को भी खतरा पैदा करता है.
                            सेठजी की एक बात और जिक्र कर यह कहूँगा की किसी भी व्यक्ति की सारी बातें आप मान्य करे यह कहीं भी आवश्यक नहीं है अपना स्वविवेक क्या कहता है यह भी सुने. वे स्वयं एक बेटी के पिता ही थे उनका कोई पुत्र नहीं था .मेरी दूसरी बेटी के जन्म के बाद एक दिन उन्होंने कहा की एक पुत्र का होना भी जरुरी है . देश जनसँख्या की समस्या से गुजर रहा था यह तो एक कारण था ही लेकिन मैंने पुत्र के लिए और बंच्चों के जन्म की किसी भी सम्भावना खत्म कर रखी उसका दूसरा कारण ये था की दूसरी बेटी के जन्म होते होते तक मुझे अपने आसपास के अशांत ,असुरक्षित समाज की खराबी द्रष्टिगोचर  होने लगीं. मैंने सोचा ऐसे  असुरक्षित वातावरण में मेरी संतानें हमेशा आशंकित और अपने बचाव के लिए संघर्षशील रहेंगी . अतः अब और संतान का निमित्त में नहीं बनूँगा  जो जीवन के आनंद के स्थान पर जीवन हेतु संघर्षशील रहने को मजबूर हों .
                              हाँ ,एक सुरक्षित समाज के मेरे दर्शन का बीज १७-१८ साल पहले उन दिनों में ही मेरे मन में पड़ गया था जिसका अंकुरण और पौधे के रूप में नियमित विकास अब तक होता रहा जिसे अब मैं परिपक्वता के साथ प्रबुध्दजनों की कसौटी पर परखने हेतु प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा  हूँ .
                             "हमें क्यों नहीं अपने कुछ सुविधाओं ,कुछ आराम ,कुछ भौतिक महावाकांक्षा त्याग कर आगामी संतति के लिए सुरक्षित ,शांत समाज की रचना के लिए योगदान देने के लिए इसका एक पवित्र बीज आज ही ना बो  देना चाहिए?"


 


 

Thursday, April 5, 2012



If you wish to see a world where you can live peacefully and safely please read it .

 If you are parents  of growing child please read it too.













Monday, April 2, 2012

  It is time to think about a human society in which a person
never see any threat from other.The development from stone age till
now humanbeing contributed a lot,however the society constructed so
far has fear ,threats every where from one another.
         This state of affairs steal mental peace from every
indivduals.No nation,no religion could help the humanbeing to live in
perfect peace.It is now a mindset that this is a only kind of life
that a born person has to live.
          In my opinion it can be changed although it may take a few
centuries,but a seed to be plant today for it by thinking beyond the
boundaries (created by humanbeing) of nations,religions etc. One has
not to follow any god,great persons directly (as it was their way to
think and do) but only to follow his/her "VIVEK"  and should do which
he/she feel appropriate and his act do not harm other.