Sunday, March 21, 2021

फ़टी जींस …

 

फ़टी जींस … 

रात बारह बजते ही मोबाइल पर निखिल (मेरे पति) का हँसता मुखड़ा, मोबाइल की घंटी के साथ प्रकाशित हो गया था। वास्तव में, अपने सैन्य कार्य के कारण पिछले 4 दिनों से निखिल टूर पर बाहर गए थे। उन्हें आज लौट आना था, लेकिन उनका कार्य अधूरा रह जाने से वे लौट कर ना आ सके थे। 

मैंने वीडियो कॉल जैसे ही रिसीव किया - स्वीट, स्वीट, सबसे स्वीट मेरी आयुषी, हैप्पी बर्थडे, निखिल यह कहते हुए दिखाई दिए। 

कहने के उनके उत्साह को तोड़ते हुए मैंने, उदास सा उत्तर दिया - मैं 38 साल की हो गई, कहाँ स्वीट और अब क्या बर्थडे, (फिर कहा) आप भी तो आज मेरे साथ नहीं हैं। 

निखिल ने कहा - 38 की अवश्य हुईं तुम मगर आज भी, 22 की ही स्वीट तो लगती हो। रहा सवाल साथ का तो मैं जल्द ही आने की कोशिश करता हूँ। 

मेरी उदासी बढ़ गई - यानि क्या आज भी नहीं आ रहे हो?

निखिल ने कहा - बात यूँ ना पकड़ लो, कोशिश मतलब 95% तय कि आ जाऊँगा। 

मुझे लग गया कि मेरी उदासी दूर करने के लिए, निखिल झूठ कह रहे हैं। 

फिर भी मैंने नाराजी नहीं दिखाई सोचा, जितनी बड़ी जिम्मेदारी, उतना ही तो अधिकारी पति व्यस्त होता है। मैंने कहा - चलिए अब आप सो जाइये, लौटने के पहले, सुबह भी आपको काम अधिक होंगे। 

उन्होंने, फ्लाइंग किस सहित बाय कहा तो मैंने भी बाय कहा फिर हँसकर कहा - 40 के हो गए हरकत वही 24 की करते हैं, आप।

फिर हम दोनों ने हँसते हुए कॉल डिस्कनेक्ट किया था। तब मैं अपनी 12 वर्ष की सो रहीं ट्विन्स बेटियों के बेडरूम में जाकर, उन्हें एडजस्ट करके, उनके साथ बेड पर जा लेटी थी।

सोने की चेष्टा करते हुए उदास मेरे मन में निद्रा पूर्व विभिन्न विचार आ रहे थे -

पहले ही परिचित हमारे परिवारों ने हम में प्रेम देखकर, हमारे विवाह थोड़ा जल्दी कर दिया था। निखिल 24 वर्ष के एवं मैं तब 22 की थी। निखिल तब आर्मी सर्विस ज्वाइन कर चुके थे। मैंने पीएचडी पूर्ण होने पर विवाह के बाद ही प्रोफेसर के पद पर विश्वविद्यालय में शैक्षणिक दायित्व स्वीकार किया था। मेरी बेटियाँ उसी वर्ष जन्मी थीं। 

निखिल, उनके सैन्य अभ्यासों के निरंतर चलते रहने से वास्तव में आज भी 24 के जितने युवा लगते थे। मगर मुझे बच्चों के जन्मने एवं मेरे खाने की अधिक अभिरुचि के कारण 22 जैसी बनी रहने के लिए जिम/बैडमिंटन हेतु, बहुत अधिक समय देना पड़ता था। 

अब मुझे लगने लगा था कि 22 की दिखते रहने की मेरी कोशिशों के अब मेरे पास  अंतिम कुछ वर्ष ही रह जाने वाले हैं। 2-3 साल में ही वॉक / स्पोर्ट्स, मेरी फिटनेस के लिए जरूरत होगी। उसके आगे फिर ये, रोगों से दूर रखने के बाध्यकारी उपाय हो जाएंगे। तब 22 की बनी / दिखते रहने की मेरी चाहत, पूरी हो सकने वाली नहीं रह जाएगी। 

यह सब सोचते हुए, मेरे व्यथित मन पर निद्रा सवार हो गई थी। सुबह परिवार मित्रों के शुभकामनाओं विश करने वाले कॉल आते रहे थे। उन्हीं के बीच बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर, खुद यूनिवर्सिटी के लिए तैयार होने की व्यस्तता रही थी। तब मैं कार में आ बैठी थी। कार स्टार्ट करने के पहले मुझे विचार आया कि मैं निखिल से पूछूँ, वे कब आ रहे हैं?

वॉइस कॉल पर उदास सी आवाज में निखिल ने कहा - सॉरी आयुषी, फ्लाइट फुल होने से ट्रैन से लौटना पड़ रहा है अतः मैं आज नहीं, कल सुबह पहुँच सकूँगा। 

मैंने मद्धम स्वर में रुखाई से - ठीक है, कहा था। फिर यूनिवर्सिटी के लिए चल पड़ी थी। दिन भर फिर क्लासेज ज्यादा थीं। उसमें मुझे घर के विचार नहीं आये थे। 

लौटी तो 4 बज गए थे। बच्चे मुझे देख कुछ शरारत से मुस्कुरा रहे थे। मुझे कुछ शंका तो हुई मगर पसीने के वस्त्रों से निजात पाने की जल्दबाजी में ज्यादा गौर नहीं करते हुए मैंने वॉशरूम में जा शॉवर लिया एवं सुविधा जनक कैज़ुअल्स पहन कर बाहर आई थी। दोनों बेटियाँ तब, जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहीं थीं। दोनों ने मेरा एक एक हाथ पकड़ा था एवं मैं कुछ समझ सकती उसके पूर्व ही लगभग खींचते हुए मुझे अपने बेडरूम में ले आईं थीं। 

मेरे समझने के लिए दिमाग पर जोर लगाने की अब जरूरत नहीं रही थी। 

सरप्राइजली, निखिल, वहाँ सेंटर टेबल पर केक सजाए बैठे थे। मुझे देखते हुए ही उन्होंने स्टीरिओ पर “बार बार दिन ये आए …” वाला गीत प्ले कर दिया। तब केक कटिंग करने के साथ ही हम चारों ने साथ साथ अपना अपना नृत्य कौशल दिखाया। फिर घर के मेड/सर्वेंट्स को उन्हें, निखिल के द्वारा लाये उपहार, अपने जन्मदिन के उपलक्ष में मैंने भेंट किए थे। बच्चों के अगले दिन परीक्षा-पर्चे थे। अतः उन्होंने घर पर रहना ही पसंद किया। निखिल के कहने पर बाहर सैर/डिनर के लिए मुझे तैयार होना पड़ा था। 

तैयार होते हुए मुझ पर 22 की दिखने की लालसा सवार हुई थी। तब मैंने निखिल के द्वारा दिलाई गई (Ripped Jeans) फ़टी जींस पहनी। निखिल ने इसे पहने देखा तो वे रहस्यमय ढंग से मुस्कुराए थे। तब उनकी दृष्टि से बचने के लिए मैंने, फ़टे वाले हिस्से को ढकने का अभिनय करते हुए पूछा - ऐसी शरारत के लिए ही आपने मुझे ये फ़टी जींस दिलाई है?

निखिल हँसते रहे थे। फिर कहा - 16 वर्ष हो गए हमारे विवाह को इसमें भी तुम समझ नहीं सकीं मेरी स्वीटी कि इसे, शरारत नहीं प्यार कहते हैं। 

तब हम दोनों साथ खिलखिलाकर हँस पड़े थे। जिसे सुन बच्चे आ गए थे। उन्होंने भी मेरे द्वारा पहली बार पहनी इस जींस को प्रशंसा से देखा था। फिर मुझे चने के झाड़ पर चढाने के उद्देश्य से कहा - वाओ! एक्सीलेंट आयुषी दीदी, लुकिंग ˈगॉजस्‌!

मैंने दोनों नटखट के गाल प्यार से चूमे थे। फिर उनके लिए क्या क्या पैक करवा कर लाना है, पूछते हुए निखिल एवं मैं निकल गए थे। 

थोड़ी सैर के बाद निखिल मुझे, मेरी पसंदीदा होटेल ले आए थे। डाइनिंग हॉल के प्रवेश द्वार पर तब हमें, एक कैमरा पर्सन एवं रिपोर्टर मिल गए थे। मुझे देखते ही वे दोनों मेरी और लपके थे। फिर रिपोर्टर ने मुझसे पूछा - मेम, आपको आपत्ति ना हो तो आपके विचार हम अपने चैनल दर्शकों को लाइव सुनवाना चाहते हैं। 

मैंने निखिल की और देखा तो वे अब पुनः रहस्यमय रूप से मुस्कुरा रहे थे। साथ ही आँखों से रिपोर्टर से बात करने की सहमति भी दे रहे थे। 

तब मैंने रिपोर्टर की और देखते हुए पूछा - किस बारे में?

रिपोर्टर ने कहा - आपकी पहनी हुई रिप्पड जींस के बारे में?

मैंने पूछा - क्या ये अजूबा है, जिसे अकेली मैं ही पहनती हूँ?

रिपोर्टर ने कहा - नहीं मेम, मगर हमारे मिनिस्टर, दीपक रतन ने आज फ़टी जीन्स को हमारी संस्कृति नहीं है ऐसा बताया है?

मुझे स्मरण हो आया कि आज मैंने कॉलेज में सहकर्मियों के साथ बात करने का अवसर नहीं पाया था। निखिल शायद मोबाइल पर दीपक रतन के स्टेटमेंट को लेकर पढ़ चुके थे। शायद इसलिए मेरे इसे पहनने की टाइमिंग पर मुस्कुराते रहे थे। फिर सोचते हुए मैंने, रिपोर्टर को उत्तर देने की जगह उलटे पूछा - हमारी संस्कृति क्या है, क्या मुझसे यह जानना चाहते हैं?

रिपोर्टर ने कहा - जी मेम, यही!

मैंने कहा - मैं सोचती हूँ कि हर बात में सिर्फ लड़कियों एवं औरतों पर दोषारोपण करना संस्कृति नहीं होती है। संस्कृति होती है कि औरतें क्या करतीं या पहनतीं हैं उसके पीछे, उनके मनोविज्ञान को समझते हुए उनके आदर करने की। 

रिपोर्टर ने पूछा - आपने आज फ़टी जींस पहन कर मिनिस्टर के स्टेटमेंट पर अपना विरोध दर्शाया है?

मैंने कहा - मैं नहीं जानती कि मिनिस्टर ने क्या कहा। मैंने तो अपनी 38 की उम्र में, 22 वर्ष की दिखने की, अपनी खुशफहमी के लिए इसे पहना है। 

रिपोर्टर ने इस पर पूछा - मिनिस्टर कहते हैं इससे लड़कों एवं आदमी की नज़र में कामुकता आ जाती है?

मैंने कहा - क्या यह पुरुषों की गलत संस्कृति नहीं? क्यों उन्होंने हमारी संस्कृति भुलाई है कि पराई लड़की या स्त्री को अपनी माँ, बहन और बेटी की तरह देखें। क्यों वे, अपनी आँखों में पर्दा रखने की जगह नारी के शरीर पर पर्दे की कई परतें लाद देना उचित बताते हैं? नारी, उन पुरुषों की ऐसी समस्या के लिए क्यों अपने मन और तन पर समस्याओं को बोझ लादते रहे और ऐसा वह कब तक करे?

रिपोर्टर ने कहा - औरत को क्या समाज मर्यादा में सहयोगी नहीं होना चाहिए?

मैंने कहा - बिल्कुल होना चाहिए मगर यह ही प्रश्न आप, ऐसे किसी पुरुष से क्यों नहीं पूछते? मिनिस्टर से क्यों नहीं पूछते आप? मैंने, दीपक रतन को वोट दिया था। दीपक रतन ने क्या वोट माँगते हुए यह अपील की थी कि जो महिलाएं साड़ी और बुरका पहने वे ही उन्हें वोट दें?

रिपोर्टर ने कहा - दीपक रतन तक यह बात हमारी चैनल से पहुँच जायेगी। 

मैंने कहा - उन तक यह भी पहुँचनी चाहिए कि मिनिस्टर बनने पर उनका दायित्व पुरुष को मर्यादा में रखने की व्यवस्था देने का भी होता है। ना कि सिर्फ महिलाओं को नसीहत देने और संस्कृति याद दिलाने का!

मैं यह कह ही रही थी कि एक सुंदर लड़की और रिप्पड जीन्स में सामने से आती दिखाई दी थी। उसे देख कैमरामैन एवं रिपोर्टर का उससे बात करने के लिए, उसके तरफ बढ़ना, स्वाभाविक ही होता मगर ऐसा नहीं हुआ था। लगता था टीआरपी बढ़ाने के लिए उन्हें मेरी बातें चटपटी लग रहीं थीं। 

रिपोर्टर ने फिर पूछा - आपका कहने का क्या मतलब है, हमारे समाज में लड़कियों का शॉर्ट्स और देह झलकाउ कपड़े पहनना आपको उचित लगता है?

मैंने उत्तर दिया - 

मेरी राय का उतना महत्व नहीं है। समस्या तो यह है कि जिस पुरुष की निगाहें, अति कामुकता से प्रभावित होती हैं वह ढँके, मूँदे एवं बुरका तरह के कपड़ों में भी, नारी देहयष्टि को, फंटे जींस से झलकते पाँव की तरह ही उनके मादक अंगों को निहार लेता है। ऐसे में हमारे समाज में नारी, अपने ही कारण से नहीं अपितु पुरुष मनमानी एवं मर्यादा विहीन कामुकता की संस्कृति से असुरक्षित है।

रिपोर्टर ने पूछा - आपकी कोई बेटी है? क्या उसे फ़टी जींस पहनाएंगी?

मैंने कहा - मेरी दो ट्विन्स बेटियाँ हैं। जिन्हें अभी हम जो वस्त्र खरीदते हैं वे उन्हें पहन कर खुश हैं। जब उनकी सोच समझ पूरी तरह विकसित होगी तब वे जो उपयुक्त मानेंगी वह पहनेंगी, उस पर हमारी आपत्ति नहीं होगी। हो सकता है तब तक विवादित कोई और भी नारी परिधान आ जाएं। 

रिपोर्टर ने अगला प्रश्न किया - 

हमारे देश की लड़कियों एवं युवतियों के लिए, हमारी चैनल के माध्यम से आप कोई संदेश देना चाहेंगी?

मैंने कहा - 

हाँ कि वे, किसी की नकल में कोई परिधान नहीं पहनें, अपितु जिसे पहनने के पीछे उनकी कोई सोच या कारण हो, जिसे पहनना उनके लिए सुविधाजनक एवं प्रसन्नताकारी हो वे वह पहनें। साथ ही वोट देने के पहले उम्मीदवार से, नारी परिधान पर उनके विचार पूछें। जो उनके मनमफ़िक ढंग से सोचता एवं कहता है वे उन्हें ही वोट दें। जीतने वाले से फिर अपेक्षा करें कि वह हमारी समाज/देश की व्यवस्था को नारी जीवन के लिए भयमुक्त बनाए। 

रिपोर्टर ने कहा - मेम! बहुत बहुत शुक्रिया आपका। क्या आप अपना परिचय देना चाहेंगी? 

मैंने कहा - हाँ हाँ अवश्य! 

फिर मैंने पति, निखिल का हाथ अपने हाथ में लिया था। उनके कांधे पर अपना सिर टिकाया था और कहा -

मेरा परिचय है “पति के मिले साथ में, स्वाधीन भारत की एक स्वाधीन पत्नी” …  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

21.03.2021


    

        

                             

                        


Thursday, March 18, 2021

शिकवे शिकायत ..

 शिकवे शिकायत .. 

अपने जीवन की पुरानी कई बातें मेरे मस्तिष्क पटल पर स्पष्ट झलक रहीं थीं। कदाचित जैसा मैंने सुना था कि अंतिम समय में ऐसा होता है। मुझे लग रहा था मेरा अंतिम समय आ गया है। मुझे स्मरण आ रहा था कि - 

मेरा बेटा शिशिर, बचपन में अति जिद्दी था। उसके पापा के अति लाड़ दुलार में वह ऐसा बिगड़ा था। उसे जो चीज चाहिए होती उस के मिले बिना वह आसमान सिर पर उठा लिया करता था। 

उसके पसंद की स्पोर्ट्स सामग्रियाँ एवं कपड़े दिलवाए जाने के चक्कर में मेरी दो बेटियों की आवश्यकता एवं चाही गई सामग्रियाँ कई बार, मेरे पति लाने में असमर्थ हो जाते थे। मैं शिकायत करती कि आपने शिशिर को “एकलौता पूत सिर पर मूत” तरह का बिगाड़ दिया है। आप समझते नहीं, मेरी दोनों बेटियां बड़ी होकर विवाह के बाद ससुराल चली जाएंगी तो उन्हें, हमारे घर में उन्हें मिले अभाव ही स्मरण में रहेंगे। 

मेरे पति मेरी इस बात पर असहाय से दिखाई पड़ते। तब मैंने, उनसे ऐसी बातें कहना बंद कर दिया। वे अपने बेटे से अगाध प्रेम में आसक्त थे। उन्हें अपनी बेटियों की भी परवाह रहती थी मगर वे, अपनी सीमित आय में चाहकर भी पूरा नहीं कर पाते थे। 

उस साल बेटियाँ विवाह योग्य, क्रमशः 22 एवं 20 की हुईं थीं। शिशिर 18 का हुआ था एवं तभी कॉलेज में दाखिल हुआ था। यद्यपि उसकी आदतें वैसी ही थीं मगर पढ़ने में कुशाग्रता के कारण उसे कॉलेज में स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। जिससे मेरे पति को, बेटियों के विवाह के लिए बचत करने में सुविधा अनुभव हुई थी। 

पता नहीं, बेटे की अच्छी पढ़ाई से प्राप्त सफलता की उन्हें ख़ुशी थी या यह, बेटियों के विवाह को लेकर उनकी चिंताएं थी कि एक रात वे सोए तो अगली सुबह उन्होंने आँखें नहीं खोलीं थीं। मैं, उनके बाजू में ही सोती थी मगर कब, दुनिया में उनकी श्वास अंतिम हुई थी, इसका मुझे आभास नहीं हो सका था। 

गृहस्थी कच्ची थी। उनकी मौत, परिवार पर मुसीबत का पहाड़ जैसे टूटा था। बेटियाँ बिलख बिलख कर रोती रहीं थी। तब शिशिर की आँखे पथरा गईं दिखती थीं। पति का यूँ बीच मँझधार में हमें डूबने के लिए छोड़ जाना मेरे अथाह दुःख एवं चिंताओं का कारण हुआ था। 

मेरी दुविधा ये थी कि मैं उनके यूँ चले जाने पर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। बेटियाँ मेरे रोने से और अधिक दुखी होंगी यह एक चिंता थी। दूजी चिंता शिशिर की थी। शिशिर के वह, पापा चले गए थे जो उसे सिर पर चढ़ाए रखते थे। वे थे तो एक मध्यमवर्गीय पापा मगर, उसे आभास यह दिलाते थे जैसे कि खुद टाटा जैसे अति संपन्न हों। 

शिशिर उनकी मौत पर रोता हुआ नहीं दिखा था। रिश्तेदार यही समझते रहे कि इस स्वार्थी बेटे को अपने पिता की मौत का दुख नहीं हुआ था। बाद के दिनों में मैंने तथा बेटियों ने शिशिर को देखकर, यह जाना था कि रोते दिखने से ही विकट दुख प्रकट नहीं किया जाता है। पापा की मौत से दुखी, शिशिर में एक़दाम बदलाव आ गए थे। आगे के पाँच वर्षों की पढ़ाई के साथ साथ, शिशिर ने स्टूडियो में पापा के सहयोगी रहे लक्ष्मण चाचा के साथ से, अपने पापा के फोटो स्टूडियो को चलाये रखा था। उसकी सभी स्पोर्ट्स एक्टिविटीज एकदम बंद हो गईं थी। 

मुझे याद नहीं पड़ता कि शिशिर ने तब अपने कॉलेज की पढ़ाई पूर्ण होने तक कोई नए कपड़े भी लिए हों। कॉलेज की पढ़ाई के पाँच वर्षों में ही उसने, अपनी बड़ी बहनों का पापा जैसा बनकर, उनका विवाह करवाया था। 

मैंने तब एहसास किया था कि इस होनहार अपने बेटे को मैं, उसके बचपन एवं लड़कपन में पहचान नहीं सकी थी। मुझे अब लग रहा था कि मेरे पति ने मगर शिशिर में विलक्षण प्रतिभा को पहचान रखा था।

शिशिर ने शायद उनसे ही संस्कार ग्रहण किये थे कि जिसे चाहते हो, उसके लिए अपनी ख़ुशी की तिलाँजलि देने को थोड़ा भी ना हिचकिचाओ। मुझे, मेरे पति की कमी तो उनके बाद हमेशा ही अनुभव होती रही थी मगर मैं सच कहूँ तो, जितनी सुविधाएं शिशिर ने, उनके बाद मेरे लिए उपलब्ध करवायीं, उतनी मुझे पति के रहते हुए नहीं मिलीं थी। 

अब जब पिछले एक वर्ष से मैं, पैरालिसिस के कारण बिस्तर पकड़ चुकी थी। मेरा निचला धड़ निष्क्रिय हो गया तब शुरू में शिशिर खुद ही मेरे निस्तार एवं साफ़ सफाई में लगा रहता था। मेरी बहू, पोते-पोती एवं अपने विभागीय कर्तव्यों में व्यस्त रहने वाला मेरा बेटा शिशिर, मुझे मालूम था कि उच्च पदस्थ अधिकारी है। अपने कार्यालय से घर लौट आने पर भी उसके पास उसके कामकाज से संबंधित फोन आया करते थे। 

मैं कहती - शिशिर तुम उच्च श्रेणी अधिकारी हो। मेरे लिए कोई नर्स रख दो। ऑफिस जाने के पहले एवं आने के बाद, व्यस्त एवं थके होने पर भी मेरी सेवा सुश्रुषा में तुम्हारा लगा रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है। 

शिशिर पूछता - मम्मी, क्या मैं अच्छे से आपकी देखरेख नहीं कर पाता हूँ?

मैं कहती - नहीं, मेरे बेटे यह नहीं कह रही हूँ। बल्कि मैं यह कह रही हूँ कि इतना बड़ा आदमी हो गया है ये छोटे काम तुझे करते देखना मुझे अच्छा नहीं लगता। 

शिशिर कहता - काय का बड़ा आदमी, मम्मी! अगर माँ की जरूरत पर काम ना आ सकूँ! 

तब मैंने कहा था - बेटा, जो समय तुम, मेरी अकेली के देखरेख में लगा देते हो अपनी विशेषज्ञता का, वह ‘और समय’ तुम, अपने विभागीय कर्तव्यों में लगा सकोगे तो बहुत से हितग्राहियों के अपेक्षित काम, उनकी आशा अनुरूप सुगमता से होंगे। 

शिशिर ने, मेरा कहा मान लिया था। मेरे लिए नर्स का प्रबंध किया था। फिर भी, जब जब उसके पास समय होता नर्स के रहते हुए भी वह खुद मेरी साफ़ सफाई करता था। शिशिर को ऐसा करते देखने से, बहू (नीरजा) जिसे शुरू में इन कार्यों से घिन होती थी, धीरे धीरे उसने भी, मेरे निस्तार में नर्स एवं शिशिर का साथ देना आरंभ कर दिया था। 

मुझे पराश्रित होने के विकट वेदनाकारी समय में तब यह अनुभूति संतोष देती थी कि मुझे सिर्फ (पराई) नर्स के भरोसे ही नहीं छोड़ दिया गया है। 

फिर एक साल बीत गया था। मुझे, मेरा अंतिम समय दिखना शुरू हुआ था। मेरे बेटे को भी समझ आ गया था कि अब, माँ के कुछ दिन ही शेष रहे हैं। इससे शिशिर के चेहरे पर उदासी छा गई थी। मैंने पूछा - शिशिर कोई परेशानी है, तुम अब चुप से हो गए हो?

शिशिर ने कहा - पापा, तो कुछ कहे बिना चले गए थे। आपको भी मैं, उपचार और सेवा करते हुए, बिस्तर से उठा, फिर चलने फिरने योग्य नहीं बना पाया हूँ। अपनी इस असहाय अवस्था तथा ऐसी क्षमता हीनता से मुझे दुख होता है। 

शायद मैं यही उससे सुनना चाहती थी। जिस पर अपनी हृदय की अंतिम कुछ भावनाएं उससे कह सकूँ। मैंने उसे अपने और पास बुलाया, उसके सिर पर अपने कपकपाते हाथ रख कर कहा -

 मेरे बेटे, मेरी यह हालत, मेरी वृद्धावस्था के कारण हुई है। इसके लिए तुम या कोई और बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं। सबकी ऐसी अवस्था आने पर, किसी दिन इससे मिलती जुलती हालत होती है।      

अपनी अशक्तता से कहने की शक्ति पुनः जुटाने के लिए मैं चुप हुई थी। तब शिशिर के आँखों से गिरे अश्रुओं से मेरी हथेली नम हुई थी। मुझे समझ आया कि शिशिर रो रहा था। मेरा यह, वही बेटा था। जो अपने पापा की मौत पर नहीं रोया था। 

मैंने कहा - ना रो बेटा, तुझे रोते मैं नहीं देख सकती। 

शिशिर ने रुंधे गले से कहा - पापा, गए थे मैं ना रोया था। मुझे हमारे ऊपर आपकी छत्र छाया अनुभव होती थी। 

मैंने कहा - तब, तुम्हारे ही होने से हम अनाथ नहीं हुए थे, बेटे।  

शिशिर ने कहा - लेकिन अब तो हम अनाथ हो जाएंगे, माँ!

मैंने कहा - शिशिर तू तो ऐसा योग्य है कि औरों का नाथ है। बेटे, दुःख बिलकुल भी ना करना। अपने काम से, हमें जानने वालों में हमारी प्रशंसा होते रहे यह कोशिश करना। मैं, जा रही हूँ कामना रखते हुए कि अगले जन्मों जन्मों तक तू ही मेरा बेटा बन मेरी गोद में फिर जन्मता रहे!

शिशिर ने, अपना सिर मेरी छाती पर ऐसे रख दिया था कि उसका वजन मुझ पर नहीं पड़े। मुझे लगा शिशिर मेरा बेटा, मेरे हृदय के अंतिम हो रहे स्पंदन की अनुभूति शायद हमेशा के लिए अपने स्मरण में ले लेना चाहता है। 

मुझे संतोष हुआ था कि अपने अंतिम शब्द मैं, सही रूप में कह पाई थी। मुझे लगा, मेरे बच्चे ने मेरा यह जीवन सार्थक कर दिया था। 

फिर मैं चली गई थी, अपने जीवन एवं मौत से बिना कोई शिकवे शिकायत रखते हुए  … 

राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

18.03.2021