Friday, January 31, 2020


काश ये होता कि
हम मरते या जीते
मगर हमारी
आशायें,
उम्मीदें,
अपनापन,
अच्छाइयां,
सुख,
या प्रतिभा,
जीते बनीं रहतीं,
ना मालूम मगर
ईश्वर ने, क्यूँ?
यह डिज़ाइन न बना
ज़िंदगी की
वह डिज़ाइन बना दी
जिसमें  हमारी
आशायें,
उम्मीदें,
अपनापन,
अच्छाइयां,
सुख,
या प्रतिभा,
नित
मर जाया करते हैं
पैदा तो हम इंसान होकर
मगर मरते
इंसान नहीं बचकर हैं


मानव सभ्यता उस मंज़िल को हासिल करे
जहाँ पैदा हुआ इंसान, इंसान रह कर ही मरे
हम दिखायें तुम्हारे - तुम दिखाओ हमारे,
जुल्म की तस्वीरें,
वतन यूँ न बनेगा
दोनों करें एहसान ज़िंदगी पर, वतन हमारा, तो बनेगा
लेने का मन न रहा कि
छोड़ सब चले जाना है
लेने को न हाथ बढ़ाऊँ
बस दे सकूँ तो दे जाऊँ

मुस्कान हमारी जहरीली है हमने मुस्कुराना छोड़ दिया है जीने का अधिकार सभी का हमने मुस्कुराना छोड़ दिया मुस्कान बिना क्या बाकि बचेगी खूबसूरती तुम मुस्कुराओ कि हमें जीना खूबसूरती में पसंद है

Tuesday, January 28, 2020

मौन रह कर यध्यपि विवादों से तो हम बच गए
पीढ़ी को देते प्रेरक विचार उनसे वंचित कर गए

Sunday, January 26, 2020

न उड़ाओ 'राजेश' मजाक किसी दर्द के मारे का
कसूर उनका इतना सा है ज़िंदगी को निभाते हैं

Saturday, January 25, 2020

एनकाउंटर (2) .... (गतांक से आगे)

एनकाउंटर (2) ....


(गतांक से आगे) 

लेटर बॉक्स में डाला गया ये लिफाफा लगता है तुम्हारे लिए लिखा गया है कहते हुए, एक शाम अनिल ने शुभि को लिफाफा दिया था,  जिस के ऊपर "मैडम जी" लिखा हुआ था। इसे शुभि को देने के बाद अनिल अपने लैपटॉप पर काम करने लगे थे।
कौन लिख सकता है! दिमाग में यह प्रश्न लिए अंदर बैड पर आकर, कमर तक लिहाफ ओढ़ते हुए, शुभि ने लिफाफा खोला था। 

पहले उसकी दृष्टि दो पृष्ठों में लिखे पत्र के अंत में गई थी जहाँ लिखा था - आपका - ड्राइवर भाई। 

शुभि को इससे विस्मृत हो गई लगभग डेढ़ वर्ष की उस रात का स्मरण हो आया था। उस ड्राइवर ने क्या लिखा है? यह जानने की प्रबल उत्सुकता के साथ उसने एक एक शब्द को पूरे ध्यान से पढ़ना आरंभ किया था। जो यों लिखे गए थे -

मैडम (बहन) जी,
मैं वह कैब ड्राइवर हूँ, जिसे क्षमा कर आपने नवजीवन दिया है। आपके हृदय विशालता के लिए मैं आजीवन आपका बहुत बहुत आभारी हूँ। यह पत्र लिखने का मेरा अभिप्राय आपको यह अवगत कराना है कि आपने, जिसे क्षमा और पुनर्जीवन का अवसर दिया, वह इस का सही पात्र है। आपको स्मरण हो आई होगी वह रात। आप पर क्या बीती उसकी मुझे थोड़ी कल्पना है, लेकिन उस रात की घटना का असर मुझ पर क्या हुआ तब से आज तक का विवरण आपकी जानकारी के लिए यूँ है -
 

"मेरे बहुत ना नुकुर के बावजूद आपने जिस जबरदस्ती से मेरी कैब का भाड़ा अदा किया था उससे मुझे यह भान तो हो गया था कि आप मेरे अपराध के लिए माफ़ कर रही हैं।" 

फिर भी उस रात मैंने कैब सर्विस आगे नहीं करते हुए अपने घर की राह ली थी। रास्ते भर यह सोचते हुए घबराते रहा था कि अगर आपने सर, को सारी घटना बता दी तो उनकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बुरी सिध्द हो सकती है।

 रात्रि 2.45 मैं घर पहुँचा तो दरवाजा माँ ने खोला था, पूछा था - अमित बेटा, तुम आज जल्दी आ गए! मैंने नज़र चुराते हुए झूठ कहा था, माँ बहुत नींद आ रही है।
फिर मैंने अपने पार्टीशन की एलईडी लाइट जलाई थी। रात्रि के इस पहर में बिस्तर पर मेरे दो वर्षीय बेटे के साथ मेरी पत्नी वंदना गहन निद्रामग्न थी। उसे देख मुझे याद आया था, कैब में 'सोते हुए आपका सुंदर चेहरा' जिसे देख मुझ पर वासना का भूत सवार हुआ था। 

तब वंदना के चेहरे की तुलना, आपके चेहरे से, मेरे दिमाग में कौंधी थी। उस समय वह मुझे, आपसे कहीं कम रूपवान नहीं लग रही थी। बस फर्क थोड़े श्रृँगार और व्यवस्थित आकर्षक वस्त्रों का वंदना पर न होने का था। मैंने बहुत ही हल्के से वंदना के चेहरे पर अपने दोनों हाथ फेरे थे और हौले से (ताकि उसकी नींद न खुल जाए) उसके माथे पर प्यार का चुंबन अंकित किया था और स्विच ऑफ करके अपने वस्त्र बदल के अपने बेटे एवं वंदना के बगल में आ लेटा था। 

 आपकी बातों ने मेरे मन को अच्छाई की दिशा में आंदोलित कर रखा था।

साथ ही, रात घटी घटना और वंदना में एक नई तरह की दृष्टि से मेरे देखने ने, मेरी नींद उड़ा रखी थी।  मेरा दिमाग जितना सक्रिय तब हुआ वैसा अभूतपूर्व था।
मैं विचार कर रहा था क्या अंतर है मुझमें और एक अच्छे कहलाने वाले युवा पुरुष में! शरीर से मैं, अन्य जैसा बलिष्ठ था। मुखड़ा भी मेरा सामान्य तौर पर ठीक था। पढ़ाई में अवश्य कुछ अंतर था लेकिन इतने पढ़े भी अच्छा जीवन जीते हुए मैंने देखे थे। परिवार को समर्पित उनके कार्य और व्यवहार से वे सुखी हैं यह भी देखा था। 

तब क्या फर्क था 'किसी और' और मुझमें?
मुझे तब अनुभव हुआ कि मेरे आसपास दिखते जीवन प्रवाह में, मैं बिना स्वयं विचार किये बहता आया था। जैसा मेरे पास पड़ोस में सब करते हैं, वैसा मैं करते जा रहा हूँ। 

घर में पत्नी के साथ दासी जैसा बर्ताव करता हूँ। अर्जित तो 30-40 हजार कर लेता हूँ लेकिन औरों की देखादेखी उसमें से पाँच-सात हजार अपने अपने शराब-सिगरेट-तम्बाखू-गुटका आदि पर व्यय कर देता हूँ। 

घर-परिवार और समाज के प्रति क्या होती हैं, मेरी जिम्मेदारी कभी शाँतचित्त हो गंभीरता से मैंने विचारा ही नहीं है।  

मैंने आपकी अस्मिता पर हाथ तो डाल दिया था लेकिन जिस पत्नी को मैं दासी सा दर्जा देता रहा हूँ, उस पर कोई ऐसा गंदा हाथ रखे, इसकी कल्पना ही मेरे लिए असहनीय हुई थी।  मुझ मूरख ने आपके साथ ऐसा करते हुए, पहले क्यों नहीं सोचा था।
कितनी ही बलात्कार-हत्या की घटना पढ़ने-सुनंने में आ रही थीं, मैंने अब तक पीड़िता और अपराधी के अपराध पश्चात की दयनीय दशा को पहले क्यों नहीं सोच पाया था!
"अवश्य ही शिक्षा, सँस्कार, पास पड़ोस और घरेलू परिवेश तथा हमारी वित्तीय दशा कुछ कमजोर थी। फिर भी भगवान ने मुझे दिमाग तो कुछ हीन नहीं दिया था। अब तक अपनी विचार शक्ति का प्रयोग मैं क्यों नहीं कर सका था! "
क्यों, मैंने अपनी प्रदत्त क्षमताओं का प्रयोग नहीं किया था? क्यों मैं, अधिकाँश औरों की भाँति सभी कमियों का दोष समाज और सरकार पर मढ़ता रहा था। संपूर्ण क्षमताओं सहित ही मेरा शरीर और मस्तिष्क मुझे मिला था। क्यूँ मैं दिमागी पंगूपन जैसा बिहेव करता रहा था?
मैं नहीं सोचता आपकी अस्मिता से खिलवाड़ की मेरी कोशिश क्षमा योग्य थी। किंतु सच मानना बहन जी, आपकी क्षमा, "टर्निंग पॉइंट"  जिसे कहते हैं, मेरे जीवन के लिए वैसी सिध्द हुई थी। 

उस रात मैंने अपने पर स्व-नियंत्रण का निर्णय किया और संकल्प किया था कि अब मैं कमियों के लिए दोष और बहाने के लिए अन्य को जिम्मेदार नहीं बताऊँगा। 

बच गए मेरे जीवन और आपसे मिल गई दोष विहीनता की स्थिति का उपयोग कर मैं जीवन में परिवार और समाज के लिए आमूलचूल परिवर्तन लाऊँगा। इन विचारों के साथ मेरा मन हल्का हुआ था और तब मैं कुछ घंटों के लिए सो गया था। 

जब वंदना के जगाये जाने पर मैं उठा था, मैंने उस पर, तब तक की सबसे अधिक प्यार भरी दृष्टि से देखा था। आज के पहले की कोई सुबह ऐसी नहीं लगी थी। मेरे जीवन में वह सुबह अभूतपूर्व नई सुबह थी।
मेरी बोलचाल एवं व्यवहार में उसी सुबह से बदलाव हो गया था। माँ के प्रति ज्यादा आदर, बहन के लिए ज्यादा अनुराग और वंदना के प्रति बेहद प्यार और सम्मान सबने अनुभव किया था। यहाँ तक कि मेरे परिचित और ड्राइवर मित्र भी, मेरे में दर्शित मधुरता से चकित थे। मैंने उसी दिन से शराब और अन्य लत त्याग दीं थी।
कुछ दिन सुनिश्चित हो जाने पर वंदना ने एकांत मिलने पर जिज्ञासा से प्यार भरे स्वर में मुझसे पूछा था 'ये आप पर अचानक सज्जनता का भूत कहाँ से सवार हो गया?'
उस प्रश्न पर वह मुझे रात स्मरण हो आई थी। मुझे शर्मींदगी का एहसास हुआ था। अपने कर्मों की कुरूपता उसके समक्ष स्वीकार करने का साहस मैं कर नहीं सका था।  वंदना की दृष्टि सें बचते हुए मात्र इतना कहा था 'भूत सवार नहीं हुआ बल्कि मुझ पर खराबियों का सवार भूत उतर गया है'.
उसके प्रश्न कैसे? का उत्तर नहीं देते हुए उसे भुला देने के लिए मैंने अपने प्रेमपाश में ले लिया था। 
मैडम जी, आपके किये अहसान का बदला चुकाने के लिए, मैंने तब से अपने संकल्प को किसी भी परिस्थिति में कमजोर नहीं पड़ने दिया। 
मैंने अपने शराब आदि के खर्चे से बचे पैसे से वंदना को आपके तरह के आकर्षक परिधान और श्रृँगार सामग्री हर महीने ला कर देना आरंभ किया। माँ, बहन और बेटे के लिए भी उनकी जरूरतों पर ज्यादा व्यय आरंभ किया। आप यूँ समझिये कि मुझे लगने लगा कि जो जिम्मेदारी मुझ पर होती हैं, उन्हें ज्यादा बेहतर मैं निभाना सीख गया।
वंदना ने विवाह बाद से ही अपनी कंप्यूटर की हासिल शिक्षा को लेकर जॉब करने की अनुमति मुझसे कई बार चाही थी। मैंने संकीर्ण सोच के कारण जिसे अनसुना किया हुआ था। उस रात की घटना के बाद मैंने अपनी सोच भी वृहत/विस्तृत कर ली। वंदना के साथ, जॉब की तलाश की, पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से वह एक ऑफिस में तीस हजार की वेतन पर सर्विस कर रही है। मेरे बेटे को, माँ सम्हाल लेती है। बहिन को मैंने सीए की पढ़ाई में डाल दिया है।
अपनी जिम्मेदारियों का भार अब ज्यादा लेते हुए, मानसिक दबावों से, मैं हल्का हो गया हूँ और ज्यादा गंभीरता से और ज्यादा समय, कैब चलाते हुए, मैंने अपनी स्वयं की आमदनी भी 50 हजार से ज्यादा कर ली है।   

ऐसा पत्र मैं पहले भी लिखने की सोचता रहा था।  लेकिन तब मुझे संदेह था - 

"तब वह मुझमें अच्छाई का आरंभ था।" तय हो चुका है कि "अब अच्छाई  मेरी आदत हुई है", तब मैं यह लिखने का साहस कर सका हूँ। 

अपने कैब ड्राइवर मित्र और पास पड़ोस के नौजवानों में भी मैं, नशे की आदत छुड़ाने के यत्नों में रहता हूँ। 

मैं, अब घर-परिवार और समाज के उत्तरदायित्वों को ग्रहण करने की प्रेरणा और उदाहरण बनने लगा हूँ।
मेरे परिचितों में माँ बहनें - पत्नियाँ अपने भाई, बेटे और पतियों को, मुझसा बनने की बातें कहने लगीं हैं। आपको राहत होगी जानकार कि थोड़ा थोड़ा बदलाव मेरे कारण मेरे आस पास के घर परिवार और परिचितों में दिख भी रहा है।
मगर,-
मगर, यह अब भी राज है कि मेरे इस स्वरूप की पहचान स्वयं मुझे किस कारण से हुई है। 
अंत में मैं यही लिखूँगा कि जिस तरह की घिनौनी हरकत के बाद आपने मुझे माफ़ किया - वैसा किसी अन्य को माफ़ करना उचित है या नहीं, मैं नहीं जानता हूँ। कुछ ड्राइवर अच्छे भी हैं, कुछ की बातें और आदतें ख़राब भी हैं, जरूरी नहीं इस तरह की माफ़ी से सब मेरे जैसे बदल जायें।
लेकिन, आपने मुझे क्षमा कर, जीवन का जो अवसर मुझे दिलाया है, मैडम जी उस अवसर का लाभ लेने में मैंने कोई चूक नहीं की है। मैं कृतज्ञ हूँ, आभारी हूँ, ऋणी हूँ, और जो भी योग्य शब्द हैं, मेरी भावनाओं को आप तक पहुँचाने के लिए, आप उनसे समझना। 

मगर, -
मगर, काश, अपने मानवीय गुणों को, वह भूल करने के पहले, मैं पहचान पाता, तो कभी कभी उत्पन्न होते, स्वयं, मेरे धिक्कार बोध से मैं ,बचता।
उस रात अपनी संपूर्ण मानवता और उसके प्रति करुणा दर्शाते हुए
"आपने मेरा एनकाउंटर टाला था तथा मेरी अपराध वृत्ति का एनकाउंटर कर दिया था। " 
आपके चरण स्पर्श मेरी भाग्य विधाता बहन, मैडम जी,
आपका -
ड्राइवर भाई।
शुभि को हैरत हुई कि बिलकुल वैसे ही शब्द जैसे, उस रात्रि कैब से उतरते हुए उसके मन में आये थे, कैसे! अमित (ड्राइवर) के पत्र में, उसने अंत में लिखे थे।
निश्चित ही कोई अदृश्य शक्ति थी जो इस पूरे घटनाक्रम को नियंत्रित कर रही थी।
शुभि ने बार बार इस पत्र को पढ़ा था। फिर संतोष की श्वाँस ली थी। अपने विचार अनुरूप या कहें उससे अधिक अच्छे, परिणाम के मिलने पर प्रसन्नता का अनुभव किया था। 

फिर उठी थी, स्टडी रूम में आकर, अनिल को उस रात की घटना का पहली बार ब्यौरा देते हुए, उसे यह पत्र पढ़ने दिया था। अनिल ने लैपटॉप अलग करते हुए तभी इस पत्र को पढ़ना आरंभ किया था ..... 

(आज गणतंत्र दिवस है। मेरा गणतंत्र ऐसे नागरिक से मिल कर मजबूत बने, ऐसी आशा सहित  - गणतंत्र दिवस की बधाई एवं शुभकामनायें)

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26.01.2020


Friday, January 24, 2020

एनकाउंटर ...

एनकाउंटर ....

फ्लाइट रीशेड्यूल हुई थी। बैगेज कलेक्ट करते हुए रात्रि के 1.35 हो गए थे, तभी अनिल से शुभि की बात हुई थी। उसने चिंता जताई थी तो शुभि ने कहा था - नहीं नहीं, इतनी रात में आप नहीं आओ, मेरी लोकेशन तो शेयर है ही, मैं कैब की पिक व्हाट्सएप करती हूँ। बस अभी 40 मिनट में तो पहुँच ही जाऊँगी।
कैब का ड्राइवर पहचाना हुआ था। दो-तीन बार पहले भी इस कैब की सवारी वह कर चुकी थी। ड्राइवर भी पहचान गया था, उसने मुस्कुराया था। देख प्रत्युत्तर में शुभि ने भी होले से मुस्कुरा दिया था। कैब चल पड़ी थी। पिछला पूरा दिन हेक्टिक रहा था। रात भी बहुत हो चुकी थी। ड्राइवर से भी आश्वस्तता थी। इन सब परिस्थितियों में, कैब के चलने के कुछ ही मिनट में उसकी आँख लग गई थी।
शुभि की नींद तब खुली थी, जब उसे अपने शरीर पर किसी के हाथों का स्पर्श अनुभव हुआ था। इससे शुभि, एकबारगी तो सहमी, फिर सम्हली और फिर समझी। उसने तुरंत खतरे को भाँप लिया था। आँख खोलने में शीघ्रता नहीं की थी। पहले समझ लिया था कि
कैब रुकी हुई है, यहाँ ट्रैफिक का शोर नहीं है। कैब हाईवे से अलग किसी वीराने में ले आई गई है, ऐसा प्रतीत हो रहा था।  हरकत जो कर रहा है, वह ड्राइवर ही है। कैब में दूसरा और कोई नहीं है। इतना समझने के बाद बिना डरे, दिमागी सक्रियता से कुछ तय किया था, फिर आँख खोली थी।
तब ड्राइवर ने उसे जाग जाते हुए देखा था। यह देख, होले से शुभि मुस्कुराई थी। ड्राइवर को शुभि की प्रतिक्रिया अनुकूल लगी थी। शुभि ने धीरे से उसके हाथ, अपने शरीर से हटाये थे। उससे थोड़ी दूर खिसक गई थी। फिर हँसते हुए कहा था मेरी बात तो सुनो!
शुभि, ड्राइवर को भ्रम देने में सफल हुई थी। ड्राइवर को लगा था, मंतव्य पूरे करने के लिए जबरदस्ती करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वासनायुक्त मुद्रा में उसने हँसते हुए कहा था - हाँ सुनाइये। तब, शुभि ने कहा था - भैया आप यह जानलो कि मैं 1 आर्मी ऑफिसर की पत्नी हूँ।
ड्राइवर थोड़ा डरा था और उससे थोड़ा दूर खिसका था। शुभि ने कहना जारी रखा था- मेरी लोकेशन, मेरे हस्बैंड से शेयर है और इस कैब का पिक्चर, मैंने पहले ही उन्हें व्हाट्सएप कर रखा है। उन्हें अब तक मालूम हो चुका होगा कि कैब मार्ग से हट कर खड़ी है, चल नहीं रही है।
(इधर यह सब चल रहा था, उधर शुभि की प्रतीक्षा में अनिल को झपकी लगी हुई थी। )
अब यहाँ, ड्राइवर भौंचक्का डरा हुआ, शुभि को सुन रहा था। शुभि कह रही थी-  भैया, आप जल्दी कैब चलाइये और हाईवे पर मेरे घर के रास्ते पर लौटिए। नहीं तो, भगवान न करे, मेरे हस्बैंड पुलिस लिए यहाँ पहुँच जायें और आप एनकाउंटर में मार दिए जाओ।
यह सुन ड्राइवर आतंकित हुआ, यह सुनते ही ड्राइवर पर चढ़ा वासना का ख़ुमार उतर गया था। वह तुरंत गेट खोल सामने ड्राइविंग सीट की तरफ बढ़ा था। इधर शुभि भी, उतर सामने की, उसके साथ वाली सीट पर आ गई थी।
शुभि अब ड्राइवर की कॉउंसलिंग करना चाहती थी ताकि वो इस गंदी फितरत से हमेशा के लिए तौबा कर ले।
अब, ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर ली थी और हाईवे की तरफ बढ़ा दी थी। इस सबसे शुभि को चैन आया था।
जिस नीयत से, शुभि सामने आ गई थी, उसी अनुसार, उसने पुनः आगे बात करनी आरंभ की - भैया, समझ लो, आज आप एक लगभग निश्चित एनकाउंटर में मारे जाने से ही बचे हो। सोचो, अगर मारे जाते तो क्या होता?
ड्राइवर के चेहरे पर इस कल्पना मात्र से, अति भयाक्रांत हो जाना  परिलक्षित था। वह, एकाएक कुछ कह नहीं सका था। फिर कुछ मिनट सोचता रहा था, शुभि अब निर्भया थी। ड्राइवर ने कोशिश कर अपने डर को नियंत्रित किया था।
कैब चलाते हुए ही एक हाथ से, शुभि के चरण स्पर्श करते हुए बोला था -
माफ़ करना बहन, मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। मैं आदमी उतना बुरा नहीं हूँ। आपको सोता हुआ देख, मेरे मन पर एक वहशी मर्द हावी हो गया था।
(फिर दयनीय स्वर में याचक भाव लिए ड्राइवर बोला था)
बहन, मेरी रिपोर्ट न करना। सर (शुभि के पति के लिए संबोधित), को यह सब नहीं कहना। (रुआँसा हो आगे वह बोला था)
"मैं अगर आज मारा जाता तो मेरी पत्नी विधवा हो जाती। मेरा दो वर्षीय बेटा अनाथ हो जाता। मेरी छोटी बहन की शादी के  लाले पड़ जाते। भगवान न करे मैं मर जाऊँ, नहीं तो हो सकता, पत्नी-बहन की इज्जत पर मुझ सा कोई वहशी, इस तरह गंदा हाथ डाल दे। माफ़ करना बहन, किस कारण में मारा गया, इसे जान कर कलंक एवं अति ग्लानि बोध से, सदमे में मेरी माँ ही कदाचित चल बसती "ड्राइवर, अपराध बोध से तथा घबराहट में और भी बहुत कुछ कहता रहा था । बार बार माफ़ी माँगता रहा था।
आज निडर रह अपनी सूझ बूझ से शुभि ने, न सिर्फ स्वयं को बचा लिया था अपितु, एक घिनौना अपराध होने से रोक लिया था, जिसकी दुःखद परिणिति उसकी नृशंसता से हत्या तक हो सकती थी।
शुभि को अब इस बात का भी संतोष हो रहा था कि, कामाँधता में भटक रहे देश के ही एक भाई को रेपिस्ट होने से उसने रोक लिया था।
"शुभि ने अपराधी का नहीं, अपराध का एनकाउंटर कर दिया था।"घर के सामने कैब रुक गई थी, उतरते हुए वह सोच रही थी कि ड्राइवर का अपराध छोटा रह गया है, क्या इसकी सजा वह दिलवाये या इसे माफ़ करे? ...   


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
15.12.2019
    


Tuesday, January 21, 2020

बेतरतीब हुए ख्यालों को
फिर तरतीब से सजा रहा हूँ
ज़िंदगी हिम्मत जुटा सारी
तेरे मिलने की सजा पा रहा हूँ

निर्दयी हुए जगत से जूझने
निर्दयी नहीं होना होगा
सब दयनीय रह जाते
'राजेश' दया धारण करना होगा
नाउम्मीद हुए ज़िंदगी से जब
यूँ हौसला रखते रहे
तब-बहुत वक़्त पड़ा है,दिन ये भी गुजर जायेंगे
अब-बहुत जी लिए हैं,दिन हम ही गुजर जायेंगे

जिंदगी, हर कदम इक नई जंग है जीते कईयों, क्यूँ इससे कोई तंग है

Thursday, January 16, 2020

लिखे बहुत अफ़साने कि
दुनिया की हरेक जान की परवाह थी
ख़ुद ही हुए बेजान से जब
इस परवाह की परवाह न हो सकी

कल की नारी के सुघड़ होने की परिभाषा कुछ और थी
अब
नित कल्पनातीत उपलब्धियों से वह परिभाषा बदलती है

दस वर्ष बाद ज़माने कुछ और होंगे
बिछड़ेगें कुछ, कुछ साथ नये होंगे 

जीने के लिए नया नज़रिया तलाशना होगा
ज़िंदा हैं हम बताने, नये को अपनाना होगा 

Sunday, January 12, 2020

कुछ पल कभी कभी ..

कुछ पल कभी कभी ..

मैं, चाँदनी, मौजपुर मेट्रो स्टेशन पर उतरी थी, तब रात्रि के 9 बजे थे। ज्यादा रात नहीं थी, घबराने जैसी भी कोई बात नहीं थी। लेकिन मैं 15 दिन पूर्व ही जॉब करने आगरा से आई थी, दिल्ली शहर की ज्यादा जानकारी मुझे नहीं थी। और ऐसे में, एनआरसी एवं सीएए का कारण हुए डिस्टर्बेंस से इस इलाके का आज नेट भी बंद किया गया था।
मुझे कोई एक किमी ही, पैदल चल के अपनी फ्रेंड के फ्लैट तक पहुँचना था, जहाँ मैं अस्थाई रूप से अपने स्वयं का प्रबंध होने तक रह रही थी।
मैं, मेट्रो स्टेशन के बाहर आई थी। मुझे हर शख्स का अपने तरफ देखना संदेहास्पद लग रहा था। मैंने पर्स से अपना हिजाब निकाल सिर पर डाल लिया था, जिससे ज्यादातर मुहँ ढक लिया था। 
फिर मैंने अपने गंतव्य की तरफ कदम बढ़ाये थे। मेरे चलने से ही मेरा घबराया हुआ होना ज़ाहिर हो रहा था। तभी मुझे दो व्यक्ति अपनी तरफ गौर करते दिखे थे। भय आधिक्य में, मैंने कदम तेज किये थे, और जहाँ नहीं जाना था, उनसे पीछा छुड़ाने के चक्कर में मैं उस तरफ मुड़ गई थी।
कुछ देर में, पीछे जब वे दोनों मुझे नहीं दिखे तो मेरी जान में जान आई थी।  लेकिन इस सारे सिलसिले में अब मुझे रास्ता समझ नहीं आ रहा था।नेट बंद होने से गूगल मैप की मदद भी नहीं मिल सकती थी।
एकबारगी ख्याल आया कि फ्रेंड को कॉल करूँ, लेकिन उसे परेशान न करने का विचार आया और मैं खुद ही रास्ता समझने का प्रयास करते हुए चलने लगी थी।
तब मुझे लगा, किसी ने मुझसे कुछ कहा है। मैंने पीछे पलट के देखा था। दो लोग मुझसे कुछ फासले पर चल रहे थे। मुझे लगा वे शायद वही दो हैं। जरूरत नहीं थी, तब भी भयवश मैंने ज़ेबरा क्रॉस किया था। और ट्रैफिक के बीच छिपते हुए एक थोड़े कम प्रकाशित स्थल पर खड़े होकर पलट कर देखा था। मुझे फिर लगा था कि वे दो शख्स जैसे मुझे ही तलाश रहे हैं। घबराहट में मैं पास खड़ी कार के साइड में आई थी। डोर चेक किया तो किस्मत से वह लॉक नहीं था। जल्दबाजी में उसे खोलकर मैं कार में आ गई थी। मैंने सभी डोर चेक किये बाकी लॉक थे, इस डोर को भी मैंने लॉक कर लिया था।
यहाँ से मैं बाहर देख सकती थी। लेकिन बाहर वाला कोई मुझे आसानी से नहीं देख सकता था। पीछा करते लग रहे वे दो व्यक्ति आपस में बात करते इधर उधर देखते कार के पास आये थे, मैं पिछली सीट पर दुबक गई थी।  मगर वे दोनों कार में झाँके बिना आगे बढ़ गए थे।
मेरी जान में जान आई ही थी कि तभी कार के सामने का डोर खुलने की आवाज सुनाई पड़ी थी। मैंने सिर थोड़ा घुमा के देखा तो, कोई सामने की सीट पर बैठ रहा था। मेरे मन में आया कि पुलिस हेल्प लाइन न. पर कॉल करूँ, लेकिन इस व्यक्ति ने कुछ किया ही नहीं तो शिकायत क्या करूँगी, यह सोच ही रही थी कि कार स्टार्ट हुई थी।  कार अब चलने लगी थी। यह व्यक्ति शायद कार मालिक था, जिसे ज्ञात ही नहीं था कि मैं कार में पिछली सीट पर छिपी हुई हूँ।
मैंने साहस बटोरा था फिर कहा था - सर, सुनिए!
व्यक्ति एक दम चौंक गया था। कार भी कुछ असंतुलित हुई थी। तब तक उसे कुछ समझ आया था। उसने कार साइड कर रोकी थी। मुझ पर प्रश्नात्मक निगाह की थी। मैंने कहा - क्षमा कीजिये, फिर सारी बात कह डाली थी।
वह 35 के लगभग उम्र का व्यक्ति था। उस पर विश्वास करना मेरी लाचारी थी। उसने विचारपूर्वक मुद्रा में ज्यादा प्रश्न किये बिना मुझसे, मेरी फ्रेंड का एड्रेस पूछा था। रास्ते में वह शाँत ही रहा था, और मेरी फ्रेंड की सोसाइटी के गेट पर कार रोक मुझे उतारा था। मैं उसकी इस तरह की रुखाई से, बमुश्किल शुक्रिया कह सकी थी। उसने इस पर अपना सिर हिलाया था, 'कोई बात नहीं', कह कर कार आगे बढ़ा ली थी।
मैंने, फ्रैंड, राजी को फिर सब आप बीती सुनाई थी। उसने हँस कर कहा था, तुझे उन दो व्यक्तियों से ज्यादा खतरा नहीं था। तुझे इस कार वाले आदमी से ज्यादा खतरा था। जिसके समक्ष तू तश्तरी में खुद ब खुद पेश हुई थी। कार में उसके बिना प्रयास, उसके साथ अकेली थी। उसे तुझ पर किसी भी प्रकार की जबरदस्ती करने के हालात  हासिल थे। मगर लगता है वह बिरले शरीफ व्यक्तियों में था, जिसका दिल, 24 वर्ष की सुंदर नवयौवना को अकेले में देख भी बदमाश नहीं हुआ था।
रहस्य की बात है, कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता था, जो परोपकार करते हुए, तुझ जैसी खूबसूरत लड़की का नाम, मोबाइल न. तक नहीं पूछ गया था।
इस रहस्य पर से पर्दा कैसे उठे? इसका कुछ उपाय नहीं। तब मैंने याद किया, उसकी कार का न. राजी को बताया था।
राजी ने तथा मैंने, अपने फ्रेंड्स एवं ऑफिस कॉलीग्स में पूरा किस्सा बताया था। सबने उसका आभार जताने के लिए कार के न. के जरिये पुलिस की मदद से जानकारी हासिल की थी। उससे संपर्क कर वीक एन्ड पर ऑफिस रिक्रिएशन हॉल में छोटा आयोजन रखा था। वहाँ वो आया था उसका नाम साकेत था। वह सबसे पूरी मिलनसारिता से मिला था।
मैंने उद्बोधन में,  उस रात की सारी बात उपस्थित,  अपने एवं राजी के कॉलीग्स एवं फ्रेंड्स के बीच बताई थी। फिर साकेत जी के प्रति आदर प्रदर्शित करते हुए उनका शुक्रिया अदा किया था। बाद में साकेत ने हम सबको ऐसे संबोधित किया था -
"उस रात्रि के वे पल चाँदनी के लिए खतरे के अंदेशे के थे। वही पल मेरे लिए ऐसे थे जिसे अपॉर्च्यूनयूटी कहना ठीक होगा। जीवन में कभी ही ऐसे मौके मिलते हैं, जिसमें हम खुद के सामने खुद को साबित कर सकते हैं। मुझे ख़ुशी है, मैंने इसमें कोई चूक नहीं की थी।
दरअसल अचानक अपनी कार में चाँदनी को देख और उसके भय का ब्यौरा सुन कर मेरी कल्पना में मुझे ऐसा दृश्य मेरी पत्नी सविता के साथ दिखाई पड़ा था।
फिर मेरी पत्नी को किसी मददगार के किस तरह विश्वास और सहयोग की जरूरत होती, यह मेरे विचार में आया था। मैंने चाँदनी के साथ उसी बात को निभाया था।
हम जीवन बहुत बड़ा जीते है, मगर कुछ कुछ पल ही कभी कभी ऐसे मिलते हैं, जिसमें हम अपना मनुष्य होना सार्थक करते हैं। उस दिन वे कुछ पल ऐसे ही थे। और मैं कमजोर नहीं पड़ा था, मुझे प्रसन्नता है। आप सभी ने जो आदर दिया मैं इसके लिए आभार प्रगट करता हूँ। "

सामने बैठी सविता इसे मंत्र मुग्ध हो सुन रही थी, उसे अपने पति के इस दर्जे के इंसान होने को लेकर गर्व अनुभव हो रहा था। हॉल में तभी तालियों की आवाज गूँज रही थी ...


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12.01.2020


Saturday, January 11, 2020

मेरे जीवन के बाद ...

मेरे जीवन के बाद ...  

एक क्षण में अनंत ऊँचाई के पर्वत शिखर पर पहुँच कर, मैं, हवा के परमाणु जितना हल्का अनुभव कर रहा था। मेरा शरीर मुझे सिर्फ आभासित ही लग रहा था, जिसका कोई जेंडर न था। मृत्यु लोक में जिसे आत्मा कहते हैं 'मैं', शायद वह ही बच रह गया था। जिस ओर से मैं शिखर पर पहुँचा था पिछला संपूर्ण वह परिदृश्य, वहाँ से ओझल था।
सामने जो दृष्टिगोचर था वह, अनंत तक स्वच्छ नीर का महासागर सा दिखाई पड़ रहा था। स्वच्छ जल के मंथर प्रवाह का वह ऐसा समतल प्रदेश, यूँ दृष्टिगोचर था कि एक स्वर्णिम रंग का आधार में नीलम तथा  गुलाबी नगीने जड़ें हों। यूँ प्रतीत हो रहे थे, ज्यूँ विशालकाय स्वच्छ स्वर्णिम चादर हो जिसमें नीलम और नगीने की कारीगिरी हो। वातावरण में वहाँ गुलाबों की सुगंध सुवासित थी। संक्षिप्त में इसे एक बेहद मन मोहक लोक कहना उचित होगा। इतना सब समझने में मुझे क्षणांश ही लगा था। 

मैं अगले क्षणांश में इस स्वर्णिम जल सतह के रंगों से मेल करते समतल धरातल पर खड़ा था। मेरे सम्मुख अति भव्य सिंहासन पर, अत्यंत रूप-लावण्य की अवतार गरिमामय 1 नारी विराजित थी। जिनका दिव्य आभामंडल, मुझे सम्मोहित कर रहा था। जिन्हें देख मुझे अपनी माँ की अनुभूति हो जाना, मेरे अचरज का विषय था।
मुझमें ये विचार चल ही रहे थे, तभी गुलाब की पखुंड़ी मानिंद दिखते उनके होंठ हिले थे और उनके श्रीमुख से एक मिश्री घुला अत्यंत दिव्य एवं मधुर स्वर गुँजायमान हुआ था। 

हे आत्मन, तुम्हारी अनंत यात्रा के पिछले पड़ाव को छोड़, अगले जीवन गंतव्य की ओर प्रशस्त होने के पूर्व, कुछ समय के लिए तुम्हारा यहाँ, मुझ से यह साक्षात्कार है। 

इस पर मुझमें उभरी, मेरी जिज्ञासा के वशीभूत मैं पूछ बैठा था - हे देवी, आप मुझे मेरी माँ सदृश लगती हैं, आप मेरी माँ हैं?
उन्होंने उत्तर दिया:-  हे आत्मन, अवश्य, हर जीव अनंत समय से यात्रा में है, इस यात्रा में  कभी न कभी हर जीव, हर दूसरे जीव से माँ/पिता और संतान रूप हुआ है। लेकिन हर जन्म में वह पिछले रिश्ते भूल जाता है, तथा जो कभी अपने थे, उन्हें भी पराया मान व्यवहार करता है। अनंत काल पीछे, किसी भव में मैं तुम्हारी माँ थी। मगर अब, जिसे आप पिछले जीवन में भगवान कहते रहे हैं, मैं वह हूँ।
आगे, उनके और मेरे बीच का वार्तालाप निम्नानुसार है -
मैं:- मगर, भगवान तो पुरुष होता है?
भगवान:-  भगवान ना पुरुष, ना ही नारी है। हे आत्मन, भगवान भी, आप सदृश ही, एक आत्मा ही है, जो आपसे निश्छलता, निर्मलता और निष्कलंकता के दृष्टिकोण से भिन्न है। यह नितांत शुध्द है जबकि आप की 'शुध्द आत्मा' पर आपके मलिन कर्मों के संमिश्रण का मलिन आवरण है। 

मैं:- किंतु आप तो नारी रूप में मेरे सम्मुख विराजित हैं?
भगवान:- इसके लिए हे आत्मन, आपको मेरे स्वरूप को स्पष्ट समझना होगा।
मैं:- जी, कृपया समझाइये।
भगवान:- मनुष्य जीवन में, अपने किये कर्मों से जो आत्मायें, यहाँ निश्छल, निर्मल और निष्कलंक उपलब्धि के साथ आती हैं, वे मुझमें समाविष्ट हो जाती हैं। सारी ऐसी शुद्ध आत्माओं का एक निराकार पिंड, इस तरह भगवान एक है। भगवान होते ही आत्मा को जन्म मरण के क्रम से छुटकारा मिलता है।  
और
यहाँ आने वाले प्रत्येक आत्मन के लिए ऐसी ही राजसभा अनेकों होती हैं। जिसमें मैं भगवान अनंताकार रूप में सब आत्माओं से अलग अलग साक्षात्कार करता हूँ। पिछले जन्म में नर रहे जीव, के सम्मुख मैं माँ रूप में और नारी रहे जीव, के समक्ष मैं पिता रूप में होता हूँ। 
मैं:- हे भगवान, इस साक्षात्कार का प्रयोजन क्या है, यह कितने समय का है?
भगवान:- हे आत्मन, यदि आप निश्छल, निर्मल और निष्कलंक उपलब्धि के साथ आये होते तो आप यहाँ आकर मेरे स्वरूप में मिल जाते। यह अनंतकालीन हो जाता
मगर,
आपके प्रकरण में ऐसा नहीं होने से आपको वापिस उसी लोक में जाना होगा। ऐसा आपके साथ अनंत बार हो चुका है। इस बार भी यही होगा। लेकिन इस बीच आपको, सद्कर्मों की प्रेरणा के उद्देश्य से थोड़ा समय मुझसे साक्षात्कार का मिला है?
मैं:- हे भगवान, मगर मैं अनेक बातों का जिज्ञासु हूँ, क्या आप मेरी जिज्ञासाओं का निवारण करेंगी?
भगवान:- हे आत्मन, आपको मैं यह अवगत कराती हूँ कि यूँ तो मैं, संपूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि की ज्ञाता, दृष्टा हूँ इसलिए हर क्षण, हर जीव के कर्म और मानस की और सृष्टि के समस्त पदार्थ के भूत, वर्तमान एवं भविष्य  की मैं जानकार हूँ। तुम्हारे बताये बिना भी तुम्हारी सारी जिज्ञासायें भी मुझे ज्ञात हैं। उसका उत्तर भी, मैं दे सकती हूँ।
किंतु
इस साक्षात्कार का समय सीमित करने के लिए आपकी जिज्ञासाओं को मैं नियंत्रित कर रही हूँ। कुछ ही बाकि छोड़ रही हूँ, जिसका उत्तर भी दूँगी। शेष के लिए तुम्हें विवेक दूँगी जिसके प्रयोग से आगे की यात्रा में तुम्हें स्वयं उत्तर खोजना होगा।  अब मैंने सिर्फ पाँच प्रश्न तुममें छोड़े हैं, पूछ लो एक एक करके मुझसे।
मैं:- आपने सृष्टि की संरचना की है, इसमें अच्छाई बनाई यह तो ठीक है, बुराई क्यूँ बनाई यह मेरी समझ से परे है?
भगवान:- मैंने सृष्टि बनाई है, उसमें पदार्थ मेरी रचना है। और जीव वह ऊर्जा है जिसकी उपत्ति या क्षरण नहीं है। उसकी पर्याय एवं उसमें परिवर्तन सकालिक एवं निरंतर है। उसकी भिन्न भिन्न, जन्म योनि भी, एक पर्याय परिवर्तन ही है। मैंने जीव में विवेक दिया है, अच्छाई विवेक के उपयोग से निर्मित है और बुराई, विवेक के प्रयोग न करने से उत्पन्न होती है। 

मनुष्य ने यूँ तो कृत्रिम रूप से अनेक अच्छी वस्तुओं/साधनों का आविष्कार किया है, लेकिन उसमें बुराई प्रवृत्ति के कारण, अच्छी बातों का हितकारक प्रयोग नहीं करते हुए, बुरा प्रयोग किया है। जिसके कारण वहाँ जीवन महा कष्टकारक होता जा रहा है। अर्थात विवेक का उपयोग से बुरी लालसाओं को नियंत्रित नहीं किया है। स्वयं बुराई में लिप्त होकर अन्य को इसमें उलझाया है। 

मैं:- विवेक, आपने सिर्फ मनुष्य को दिया है, अन्य जीवों को क्यों नहीं ?
भगवान:- 'विवेक' सभी में है, जिसका विन्यास पिछले जन्मों में किये कर्मों से यहाँ निर्धारित होता है। मनुष्य में विवेक 100% सेटिंग में होता है, अन्य जीवों में सेटिंग कम होती है। मनुष्य जीवन, उन्हें तय किया जाता है, जिनका पिछली यात्रा तक अच्छाई का खाता बुराई से अधिक होता है। 

मैं:- आपने, धर्म एक क्यूँ नहीं बनाया है? गिरिजाघर,मस्जिद, गुरद्वारे एवं मंदिर आदि से लोग प्रेरणा लेते हैं और अपने धर्मों को लेकर बाहर सब मार काट मचाते हैं। 

भगवान:- धर्म, एक वही है, जो सभी जीवों को परस्पर कल्याण की प्रेरणा देता है। गिरिजाघर, मस्जिद, गुरद्वारे, मंदिर एवं धर्मग्रंथ आदि भी उसे ही कहना ठीक है, जिनसे सभी के परस्पर हितों की प्रेरणा मिलती है। 

शेष सब अपने अपने हितभ्रम का व्यापार है। हिंसा प्रवृत्ति जिसकी पराकाष्ठा है। प्राप्त विवेक का प्रयोग न करने से उस (जीव) का अनंत बार जन्म-मरण होना दुखों का कारण है। 

मैं:- हे भगवान, एक आपसे शिकायत और प्रश्न, अगर अपने परिजन/मित्र जब हमें आप प्रदान करते हो, तो उन्हें हमसे छीन क्यों लेते हो?
भगवान:- परिजन का मिलना, बिछड़ना सृष्टि स्वरूप है। इन परिजन के विछोह को , प्रेरणा रूप में स्वयं में, इन्हें निहित करना और उनकी प्रेरणा से परोपकार करना, विछोह वेदना का उपचार है। वहीं नए परिजन का जुड़ना, जीवन को, नई आशा प्रदान करना है। 

मैं:- मेरा अंतिम प्रश्न, मुझे अगला जन्म क्या मिलने वाला है? एवं उसमें इस साक्षात्कार का स्मरण रहेगा या नहीं। 
भगवान:- इस साक्षात्कार का स्मरण तुम्हें नहीं रहेगा। लेकिन यह साक्षात्कार अक्षरशः एक कल्पना के रूप में एक लेखक के मन में जाएगा जो जग प्रेरणा के लिए इसे लिपिबध्द करेगा। 

तुम्हारे अगले भव के संदर्भ में सूचित है कि पूर्व कर्मों के लेखा जोखा से तुम्हें अगला जन्म भी मनुष्य का मिलने वाला है।  तुम्हारे रहे कर्मों की शक्ति से यह विकल्प तुम्हें उपलब्ध है कि तुम पुरुष होना या नारी होना चाहोगे, बताओ? 
मैं:- जी भगवान, जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य है, यह मुझे ज्ञात है तथा मनुष्य में श्रेष्ठ नारी है, अतः मुझे नारी रूप अगला जीवन मिले तो मुझे प्रसन्नता होगी। 
भगवान:- तुमने सही कहा नारी सृष्टि की श्रेष्ठतम कृति है, किंतु उसकी दशा दयनीय है। इसे सुधारने के लिए नारी चेतना और सम्मान रक्षा के कार्य के लिए और जगत को उदाहरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से, मैं पुनः तुम्हें पुरुष रूप मानव जीवन ही नीयत करती हूँ। 

इस तरह साक्षत्कार समाप्त होता है और तब नया जीवन यात्रा पर क्षणांश में ही मेरा जीव पुनः एक नारी गर्भ में स्थापित हो जाता है ..  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
11.01.2020

Wednesday, January 1, 2020

तन्हाई, ज़िंदगी का एहसान होती है
ख़ुद की खुद से पहचान होती है
दुनिया से दिल लगाने की हसरत में
दुनिया से दुनिया से परेशान होती है

जैसा आप चाहें वैसे पल पल चलें
जिनसे दिल खुश रहे वह साथ चलें
बदलें मौसम और दुनिया चाहे जैसे
राहे ज़िंदगी में अरमां पूरे होते चलें