Tuesday, June 30, 2020

यशस्वी (8) ...

यशस्वी (8) ...
इधर, मुझसे राय ले लेने के बाद, यशस्वी ने माँ से चर्चा करने का निर्णय किया। यशस्वी, माँ से यह जानने को इच्छुक थी कि किन कारण और आशाओं को लेकर माँ, अपने दूसरे विवाह पर विचार कर रही थी। एक रात जब बहनें पढ़ रहीं थी तब,
 यशस्वी ने अलग कमरे में माँ से पूछा - माँ, तुम 43 की उम्र में, क्यों दूसरा विवाह करना चाहती हो?
माँ ने कहा - अगर, यह प्रस्ताव घर बैठे न आया होता तो मैं शादी की नहीं सोच रही थी। जब, वह पूछने आये तो मैं, उनके दो बेटों के जो अभी छोटे हैं, के लालन पालन में उनका हाथ बँटाना चाहती हूँ। तुम नहीं जानती कि  तुम्हारे पापा ने, बेटे के लिए, मेरी इक्छा के विरुध्द दो कन्या भ्रूण गिरवाये थे। मैं, इसे अपना किया पाप मानती हूँ। दो बेटों की, ऐसी दूसरी माँ बनने की जिम्मेदारी निभा कर, मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ। 
अपनी चुप रहने वाली माँ को, साधारण महिला मानने वाली यशस्वी, उनसे यह तार्किक (Logical) उत्तर सुनकर चकित हुई। यशस्वी के लिए यह सुखद अनुभूति थी कि साधारण दिखती, कोई महिला भी ऐसी समझ रखती हो सकती है।
माँ से उसने फिर पूछा - माँ, अपनी सँस्कृति में विवाह से जुड़ा रिश्ता तो, सात जन्मों का होता है?
माँ ने उल्टा प्रश्न किया - यशस्वी तुम यह सोच रही हो, मैं दूसरा विवाह कर, यह मान्यता झुठला रही हूँ?
यशस्वी - हूँ(बस कह सकी)
तब माँ ने कहा - अगर ईश्वर ने ऐसा बनाया होता तो, दूसरे विवाह का विचार किसी के दिमाग में नहीं आता। मैंने तो साठ वर्ष के विधुर को भी दूसरी शादी करते देखा है। ये रीतियाँ मनुष्य ने बनाई हैं। जिसमें वर्जनायें, नारी के लिए ही तय कर रखीं हैं। अगर रिश्ता सात जन्म वाला होता तो, कोई विधुर शादी नहीं करता। 
इस उत्तर से यशस्वी को चर्चा में रस आने लगा, उसने फिर पूछा - माँ अपने विवाह से आप, रिश्ता सात जन्म का नहीं होता, ऐसा सिध्द करना चाहती हो?
माँ ने उत्तर दिया - स्त्री तो वैसे त्याग, सहनशीलता और अन्य कठिनतम कार्य करती है, जैसे पुरुष नहीं कर पाते हैं। मगर नारी के किये से कुछ सिध्द हुआ, कोई मानता कहाँ हैं। मैं शादी करके उन परित्यक्ता, तलाकशुदा या विधवा स्त्री को पुर्नविवाह का साहस एवं उदाहरण देने का पुनीत कार्य करना चाहती हूँ, जो पुनर्विवाह करना चाहती हैं और जिन्हें योग्य पुरुष का प्रस्ताव आया हो।
यशस्वी ने तब कहा - माँ, मैं (तथा बहनें) आपके साथ तो उस घर में जा न सकेंगी!
माँ ने कहा - अगर तुम छोटी होतीं तो मैं शादी नहीं करती। लेकिन तुमने जिस खूबी से एक बेटे, जैसा कारनामा करके दिखाया है, इस परिवार के लिए यथोचित धन अर्जन करके दिखलाया है, इसे समझते हुए ही मैं, शादी की सोच पा रही हूँ। तुम बेटियों को मैं, साथ ले जाने की सोच भी नहीं रही हूँ। 18 एवं 16 वर्षीया अपनी बहनों की उनके बड़े होते तक (अगले) कुछ वर्षों, तुम जिम्मेदारी उठा सकोगी, मुझे यह विश्वास है। 
यशस्वी ने फिर एक तर्क रखा - लेकिन चाचा के बच्चे छोटे हैं, वह तो शादी कर रहे हैं?
माँ ने कहा तुम समझ सकती हो इसलिए यह उत्तर देती हूँ कि - मैंने सौतेले बेटों के साथ, किसी माँ को ऐसा करते नहीं सुना, मगर सौतेली बेटियों के साथ, बाप को व्यभिचार करते सुना है। आशय यह कि तुम्हें, उस घर में चाचा से खतरा हो सकता है लेकिन मुझसे उनके पुत्रों को ऐसा कोई खतरा नहीं होगा। 
यशस्वी ने तब कहा - माँ, शायद मुझे आप से नहीं पूछना चाहिए तो भी पूछना चाहती हूँ कि क्या, इस शादी से आपकी, अपनी शारीरिक जरूरतों की पूर्ति भी एक कारण है?
माँ ने उत्तर दिया - पास पड़ोस, रिश्तेदार एवं जानने वाले, मेरे शादी किये जाने पर रस ले लेकर बातें करेंगे। इस उम्र में शादी करने की, मुझे क्या जरूरत है, कहते हुए मुझे धिक्कारेंगे। मगर यदि, मैं शादी न करूं तो, कई पुरुष मुझसे अवैध संबंधों के लिए हिकमत करेंगे। वे, इसे मेरी जरूरत सिध्द करते हुए, अपने मंतव्य पूरे करने चाहेंगे। इस कटु सच को ठीक प्रकार से कोई,  भुक्तभोगी महिला ही जानती हैं। औरों को क्या है, उन्हें तो मुहँ मिला है जिसे (मुहँ को), कुछ भी कह सकने का अधिकार होता है।   
फिर, यशस्वी को पूछने के लिए कुछ नहीं सूझा था। अगले कुछ दिनों में यशस्वी ने तैयारियाँ की थीं। 
फिर माँ से अपनी हुई चर्चा अक्षरशः लिखते हुए यशस्वी ने, मुझे, कुछ फोटो भेजे थे। जिनसे यह पता चला था कि उसने माँ की शादी, एक सादे समारोह में संपन्न करवा दी थी।
जिसे पढ़-देख कर, मैं सोच रहा था कि नारी और पुरुषों को लेकर 'समाज विसंगतियों' को, जिस खूबी से यशस्वी की माँ ने कहा है, अगर किसी चयन प्रक्रिया में ऐसा  इंटरव्यू, कोई अभ्यर्थी (कैन्डिडेट) देता तो उसे मैं, 100% अंक देता ..
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
30-06-2020
    

Sunday, June 28, 2020

यशस्वी (7) ...

यशस्वी (7) ...

असफलता जनित अवसाद में लगभग 3 वर्ष पहले, यशस्वी ने आत्महत्या की कोशिश की थी। ऐसे समय यह विश्वास दिलाया जाना कि जीवन होता है तो उसमें, अपार संभावनायें, विद्यमान होती हैं, जैसे विचार देने वाले की जरूरत थी।
सुखद बात थी कि मेरे द्वारा, उसे यह विश्वास दिलाया जा सका था। साथ ही यशस्वी के जीवन में अब बिखर रहे, इंद्रधनुषी रंगों ने उसके समक्ष, इसे सिद्ध भी कर दिया था।
हुआ यूँ था कि रात्रि भोजन के बाद प्रिया ने, मुझसे बताया कि आज, उन्हें यशस्वी ने कॉल किया था।
मेरे लिए यह कोई नई सूचना नहीं थी, ड्रेस डिजाइनिंग को लेकर, यशस्वी एवं प्रिया में प्रायः बात हुआ करती थी। आज के कॉल में यशस्वी की कही बात को जानने में इसलिये मुझे, कोई विशेष उत्सुकता नहीं थी। 
तब भी मैंने प्रिया से पूछ लिया - क्या कहा, यशस्वी ने ?  
तब प्रिया ने बताया - यशस्वी के मन-मस्तिष्क में प्रेम का, अंकुरण हो रहा है।  
यह बात प्रिया एवं यशस्वी के मध्य होती बातों से, बिलकुल जुदा थी। सामान्यतः डिजाइनिंग से विलग तरह की बातें यशस्वी, प्रिया से नहीं, मुझसे किया करती थी। अतः यह सुनते ही, मेरी जिज्ञासा बढ़ी।
मैंने रूचि लेते हुए पूछा- कहिये, क्या बताया है, यशस्वी ने?   
तब प्रिया ने बताया कि - यशस्वी की बुटीक में, सामान्यतः महिलायें एवं लड़कियाँ आया करती हैं। पिछले दो तीन महीनों से, एक नौजवान लड़का प्रायः (फ्रीक्वेन्ट्ली) आ रहा है। वह कभी अपनी मम्मी या कभी अपनी बहन के साथ, वस्त्र खरीदने के बहाने आता है। उस लड़के ने बोलकर तो नहीं, मगर आँखों की भाषा में यशस्वी से, अपना प्रेम होना दर्शाया है। 
इसे यशस्वी समझ भी रही है लेकिन प्रत्यक्ष में वह, उस लड़के के सामने अनजान होना दिखा रही है। यशस्वी ने यह भी बताया है कि उस लड़के की, इन कोशिशों से लड़के के लिए, यशस्वी के मन में गुदगुदाता सा स्थान बन गया है। 
मैंने तत्परता से पूछा - यशस्वी के बताने का प्रयोजन क्या था? उसे इसको लेकर कोई सलाह चाहिए थी ?   
प्रिया ने उत्तर दिया - यशस्वी ने कहा है, वह इसे बहुत गंभीरता से नहीं अपितु सहज में ले रही है। यह बताने का उसका प्रयोजन, मन की बात शेयर करना है। उसने किसी एक से, यह कहने के लिए, मुझे उपयुक्त माना है। 
मैंने कहा - इस उम्र में, ऐसा हम दोनों में भी हुआ था। यशस्वी, कॉलेज पढ़ने नहीं गई है अन्यथा ऐसा उसके साथ पहले ही हो जाता। 
फिर हमने एक दूसरे को प्यार से देखा था और दोनों, खुल कर हँस पड़े थे।
फिर मैं सोचने लगा था, यशस्वी को अपनी किसी समस्या में, पहले मैं याद आता हूँ। अपनी इन कोमल भावनाओं का राज यशस्वी ने मगर, प्रिया से शेयर किया है।
शायद वह, समझ रही होगी कि मैं कठोर एक पुलिसिया, प्यार की मधुर-कोमल अनुभूतियों को, नहीं जानता होऊँगा। मैंने धैर्य रखा सोचा कभी, मुझसे भी यशस्वी इस बारे में बताएगी। तब इस पर से ध्यान हटा कर, मैंने अपने विभागीय काम के लिए लैपटॉप खोल लिया था। 
तत्पश्चात् कुछ दिन बीते थे। एक रात दस बजे, मोबाइल पर इनकमिंग कॉल आया, देखा तो, यशस्वी की तस्वीर थी। सोचते हुए कि आज, उस नौजवान से प्रेम की बात, यशस्वी मुझसे कहेगी। मैंने कॉल आंसर किया। यशस्वी ने कहा - नमस्ते सर, कृपया और एक मार्गदर्शन कीजिये।
मैं बोला - नमस्ते यशस्वी, बताइये किस बात के लिए।
यशस्वी ने बताया - आज जब मैं, बुटीक बंद कर घर पहुँची तो मुझे, हमारे दूर के रिश्ते के चाचा, हमारे घर से विदा लेते दिखे। माँ उन्हें बाहर तक आकर, विदा कर रहीं थी। मैंने अंदर, जाकर माँ से पूछा, ये किस लिए आये थे? तब, माँ ने बताया कि चार महीने पहले, उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गई है। उनके दो बेटे, क्रमशः 13 एवं 11 साल के हैं। कह रहे थे, आप तैयार हो तो शादी करना चाहते हैं। तब मैंने पूछा, माँ आपने, उनसे क्या कहा है? माँ ने बताया, मैंने कहा कि बेटियों से बात करने के बाद बताऊँगी। यह सुनने के बाद मैंने उनसे कुछ और नहीं पूछा है। इसी के बाद आपसे, पूछने के लिए कॉल किया है।
मैंने पूछा - माँ और चाचा की उम्र, कितनी-कितनी है?
यशस्वी ने बताया - माँ 43 की हैं, चाचा 2-3 साल, माँ से छोटे हैं। 
मैंने कहा - माँ ने सीधे मना नहीं किया होने से, लगता है कि वे दूसरे विवाह को तैयार हो सकती हैं। उन्हें, इस उम्र में जीवन, पति के बिना, कठिनाई का लग सकता है। अतः मेरी समझ से यह शादी उपयुक्त हो सकती है। आप, निर्णय लेने के पहले दो बातों पर विचार कर लीजिये कि चाचा नशेलची न हों और उनकी आर्थिक स्थिति कम से कम आप जैसी हो। दूसरी बात, माँ के जाने के बाद बहनें, आप पर निर्भर हो जायेंगी। क्या, यह जिम्मेदारी आप ले सकेंगी।     
यशस्वी ने उत्तर दिया - ये चाचा, किसी सरकारी विभाग में क्लर्क हैं और उनमें कोई बुराई नहीं सुनी है। उनका 50 किमी दूर, कस्बे में खुद का घर है। जहाँ तक बहनों की बात है तो मैं, 5 वर्ष शादी न करूँगी, तब तक वे दोनों पर्याप्त बड़ी हो जायेंगी। 
मैंने तब कहा - तब कोई समस्या नहीं है। माँ की शादी कराओ और 'बेटी द्वारा माँ का कन्यादान करने' का अनूठा उदाहरण समाज के समक्ष रखो।
यशस्वी ने कहा - सर, पूछते हुए मुझे, आपका उत्तर पता था। हाँ, इस कार्य को 'बेटी द्वारा माँ का कन्यादान करना', आपका हमेशा की तरह नया तरह का निरूपण है। यह सब सुनकर, अब यह कार्य, मैं पूरे उमंग-उल्लास से करुँगी। 
फिर यशस्वी हँसी थी।
मैंने भी हँसते हुए कहा - यशस्वी, अपने पिछले कुछ वर्षों पर विचार करो। क्या कभी सोच सकती थी कि तुम, इतना और ऐसा सब कुछ कर सकोगी। यशस्वी ने तब गंभीर होकर जबाब दिया - सर, यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आप मिले। मुझे, आपने ना केवल अवसाद से निकाला बल्कि अपने सकारात्मक विचारों से, मुझमें हमेशा उत्साह एवं आत्मविश्वास का संचार करते रहे हैं। मैंने पिछले तीन वर्षों में ऐसी अविश्वसनीय तरह की उपलब्धियां हासिल की हैं जो मैं, पहले कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी। 
मैंने कहा - यशस्वी, तुम एक मनुष्य हो। साथ ही तब किशोरवया और अब युवा भी हो। मैं मानता हूँ कि तुम जैसी प्रत्येक बेटियों (और बेटों में भी) ईश्वर अनंत क्षमता एवं संभावनायें प्रदान करते हैं। 
आवश्यकता मात्र, युवाओं को, उनकी ऐसी योग्यताओं का अहसास कराने वाले मार्गदर्शन की होती है। मैं, इसे मेरा सौभाग्य कहूँगा कि उस चरम अवसाद के दिन के बाद से, तुमने मेरी हर बात मानी है। तुमने, मुझे ऐसा अवसर सुलभ कराया है जिसमें मैं, अपने को एक शिल्पकार अनुभव कर रहा हूँ जो, एक पत्थर में भगवान तराश दिया करता है। 
उस दिन, अंत में यशस्वी ने कहा - सर, आप प्रथम श्रेणी के तथा एक वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप अपने विभागीय दायित्व ही नहीं वरन, अपने सामाजिक दायित्व भी, पूर्ण गंभीरता एवं अनुकरणीय जिम्मेदारी से निभाते हैं। अगर ऐसा दायित्वबोध आप के तरह के, सभी वरिष्ठ व्यक्तियों में हो तो, हमारे समाज में अवसाद अस्तित्वविहीन हो जाएगा।
फिर यशस्वी ने कॉल खत्म किया था।
बाद में मैं सोच रहा था कि यशस्वी ने प्रिया को तो बताया था मगर उस नौजवान लड़के से, अपनी प्रेम अनुभूति की बात मुझसे नहीं कही थी। वह अपनी बहनों एवं माँ के भविष्य को प्राथमिकता देते हुए, अपना विवाह पाँच वर्ष तक नहीं करने जा रही थी।
ऐसा, सिर्फ मनुष्य के जागृत विवेक के अवलंबन से ही, संभव हो सकता था ...  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28-06-2020

Saturday, June 27, 2020

यशस्वी (6) ...

यशस्वी (6) ...

फिर एक दिन यशस्वी ने कॉल किया, पूछा - सर, मेरी बहन तपस्वी, बारहवीं में है। उसकी स्ट्रीम साइंस है। उसके लिए इंजीनियरिंग एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी करना ठीक रहेगा या बुटीक, जिसमें कमाई इंजीनियर से ज्यादा आ रही है, में साथ करना ठीक रहेगा। 
मैंने उल्टा प्रश्न किया - क्या, तपस्वी अभी बुटीक में, तुम्हारे साथ काम कर रही है?
यशस्वी ने बताया - जी नहीं, अभी मेरे रिलीवर की तरह माँ, बुटीक के कामों को देख लेती हैं। 
तब मैंने कहा - मैंने, तुम्हें,पढ़ाई छोड़कर पापा के व्यवसाय में, साथ लगने के लिए तब, इसलिए कहा था कि परिस्थितियाँ वैसी थीं। तपस्वी के लिए पढाई छोड़ने की, ऐसी बाध्यता नहीं है। अगर वह पढ़ना चाहती है तो उसे, इंजीनियर बनने के लिए पढ़ने दीजिये। 
यह कहने के साथ ही पूछा - यशस्वी-तपस्वी, ये नाम किसने रखे हैं। 
यशस्वी ने बताया - पापा ने!
इस पर मैंने कहा - तुम्हारे पापा की पसंद, उत्कृष्ट रही एवं तुम्हारी कुशाग्रता से प्रतीत होता है, ये तुम्हें उनके (आनुवंशिकी) जेनेटिक्स से मिले हैं। कहने का आशय यह कि पापा, प्रतिभावान पुरुष रहे होंगे। परिवेश एवं सँस्कारवश वे रूढ़ियों के प्रभाव (अधीन) में, बेटी पर बेटे को श्रेष्ठ मानने की भूल कर बैठे। इसलिए एक साधारण व्यक्ति की पहचान से ऊपर न उठ सके। उनका सहारा एवं परिवार प्रमुख होकर, तुमने दर्शाया है कि परिवार में बेटा न होना, कोई कमी नहीं होती है। तुम किसी बेटे जैसे ही व्यवसाय में स्थापित होकर, ऐसा साबित कर सकी हो। 
यशस्वी ने उत्तर दिया - सर, आप ठीक कहते हैं। मेरा अनुभव भी पापा के साथ यही है। वे आस-पड़ोस के अन्य लोगों से, अलग तरह से काम एवं व्यवहार करते थे। 
मैंने कहा - उचित मार्गदर्शन एवं अच्छी संगत न मिल सकने से एक महान क्षमता वाला व्यक्ति, साधारण प्रभाव ही छोड़ चला जाता है। तुम्हारे पापा जैसे और भी अनेक व्यक्ति ऐसे क्षमतावान हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं का सही प्रयोग करना आ जाए तो हमारा, देश एवं समाज दुनिया के लिए उच्च समाज सँस्कृति हेतु नेतृत्व दे सकता है।  
तब यशस्वी ने सहमति भरते हुए सामान्य औपचारिकता की बातों के बाद 'बाय सर' कहते हुए कॉल खत्म किया था।   
फिर यशस्वी का अगला कॉल, थोड़े अंतराल के बाद आया था। यह एक तरह से शिकायती कॉल था। जिसमें उसने बताया कि वह, आयकर रिटर्न्स जमा कराने के अभिप्राय से, एक सी ए के कार्यालय गई थी। यशस्वी एवं सीए के बीच वार्तालाप तब यूँ हुआ था :-
सी ए  - आपके रिकॉर्ड देखने से आपकी व्यवसायिक उपलब्धि, अविश्वसनीय लग रही है। पूर्व के दो वर्षों में, पाँच लाख से कम आय के साथ, आपने 'शून्य' आयकर की रिटर्न्स दाखिल की हैं। इस वर्ष आपकी आय तीस लाख से ऊपर अर्थात सात गुनी बढ़ी है। ऐसा चमत्कार कैसे?
यशस्वी - सर, हमने टेलरिंग के साथ, आधुनिक फैशन डिजाइनिंग अपने व्यवसाय में जोड़ा है। 
सी ए  - अरे वाह, इससे यह संवृद्धि (ग्रोथ) संभव है। (फिर हँसते हुए) बहुत बहुत बधाई! मैं आपकी रिटर्न्स सब्मिट कर दूँगा। 
यशस्वी - आपकी फीस कितनी होगी?
सी ए (कुछ अलग अंदाज से)  - आप, फीस रुपयों से अलग रूप में भी अदा कर सकती हैं। 
यशस्वी - सर, मैं समझी नहीं।   
सी ए - विशेष नहीं, पाँच सितारा होटल में, मेरी तरफ से डिनर और एक रात हमारी। 
यशस्वी ( तीव्र प्रतिक्रिया एवं स्वर तेज करते हुए) - ये कैसी अजीब बात कर रहे हैं, आप? मुझे आप फीस बताइये। 
सी ए - दस हजार रूपये। आप मॉडर्न प्रोफेशन में है अतः मैंने सोचा, आपकी सोच भी आधुनिक और खुली होगी, अतः पूछा। आपको पसंद नहीं तो भूल जाइये, मैंने जो कहा।    
इतना बताकर यशस्वी ने रोष भरे स्वर में मुझसे पूछा -  क्या आधुनिक होने का अर्थ यह है? क्या, कोई युवा लड़की, आधुनिक वस्त्रों में है तो इसका मतलब यह होता है कि वह, किसी का, ऐसा साथ चाहती है? 
यशस्वी के रोष एवं उसके प्रश्नों का समाधान करने के लिए उपयुक्त उत्तर के लिए मुझे कुछ पल सोचना पड़ा। 
इसी बीच यशस्वी ने पूछा - सर, आपने सुना, मैंने क्या कहा है ?
मैंने कहा सुना है, विचार में हूँ कि मुझे क्या कहना चाहिए। तुम दो मिनट रुको। (फिर कुछ क्षण उपरांत मैंने कहा) - 
हम भारतीय, पाश्चात्य संस्कृति की नकल करने को आधुनिक होना मानने लगे हैं। पश्चिमी देशों में कोई पुरुष (या महिला भी) का ऐसा पूछना (प्रस्ताव), बुरा नहीं माना जाता है। उत्तर ना होने पर प्रस्ताव ऐसे ही छोड़ दिया जाता है जैसे उन महोदय ने किया है।  
हम भारतीयों में आज बड़ी कमी यह है कि हम, कोई नकल भी पूरी तरह नहीं करते हैं। पश्चिमी देशों में ऐसी नाही के बाद, कोई जबर्दस्ती नहीं की जाती है। वहाँ बलात्कार के केसेस अत्यंत कम होते हैं। जबकि हमारे यहाँ सहमति बिना जबर्दस्ती, आम बात है। 
इन महोदय ने जबर्दस्ती तो नहीं की है लेकिन बुरा यह किया है कि एक संभ्रात लड़की की एक रात की कीमत लगाई है। 
उदाहरण के लिए - मैं (एक भारतीय) आधा अधूरा पाश्चात्य बनकर, किसी पराई स्त्री से ऐसे तो पेश आना पसंद करता हूँ। मगर यदि मेरी पत्नी या बेटी से कोई ऐसा व्यवहार (प्रस्ताव) करता है तो मैं आग बबूला हो उसका जानी-दुश्मन हो जाता हूँ। अर्थात स्वयं के उपभोग (पर स्त्री गमन) के लिए मैं, पाश्चात्य संस्कृति को मानने वाला हो जाता हूँ। किंतु मेरी अपनी बहन-बेटी को लेकर मैं, अन्य पुरुष से, भारतीय संस्कृति की अपेक्षा करने लगता हूँ।  यही दोहरा व्यवहार ही हमारे समाज में  कन्या भ्रूण, किशोर वया बहन-बेटी (ऑनर किलिंग) एवं पत्नी की हत्या/शोषण का कारण बन रहा है। 
आशय यह कि हम भारतीय पुरुष समझें कि यदि हम नारी को भारतीय संस्कृति के दायरे में देखना चाहते हैं तो हम भी उसी में रहें और अगर, हम पाश्चात्य में जाना चाहते हैं तो नारी को लेकर संकीर्णता त्यागें, उसे भी पाश्चात्य अपनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ें।  (मैंने, एक पल विराम लेकर पूछा) यशस्वी, समझीं तुम? क्या मैं, अब दूसरे का उत्तर दूँ? 
यशस्वी ने कहा - जी सर।  
तब मैंने कहा - वास्तव में यह गलत धारणा, अनेक पुरुषों के दिमाग में बैठी है कि कोई युवा लड़की, आधुनिक वस्त्रों में है तो इसका मतलब, वह स्वच्छंद यौन संबंधों की अभिलाषी है। जबकि बदल रहे परिवेश में नारी की गतिविधियों में भी बदलाव आये हैं। परंपरागत वस्त्र में होना, उनकी निभाई जाती नई भूमिकाओं में, असुविधाजनक होता है। इसलिए नई ड्रेस डिजाइनिंग आज एक जरूरत है। पुरुष आकर्षक दिखना चाहता है, नारी भी दिखना चाहे तो बुरा नहीं है।  
यद्यपि जिन्हें दौलत एवं प्रसिध्दि का लालच अधिक रहा है (जैसे -सिने अभिनेत्रियां), उन्होंने अंग प्रदर्शित करने वाले वस्त्र के चलन बढ़ाये हैं। जबकि ऐसे आधुनिक वस्त्र भी होते हैं, जैसे तुम भी डिज़ाइन कर रही हो, जिसमें परंपरागत वस्त्रों जैसी, गरिमा भी सुनिश्चित होती है। 
यशस्वी ने तब पूछा - क्या कोई लड़की ऐसी होती है जो सी ए के, ऐसे प्रस्ताव को सहमत करती है। 
मैंने कहा - किसी बात को अनुमान से कहना, गलत प्रचार करना होता है। हम जानते हैं, अनुमान गलत भी होते हैं। मैं अनुमान से, हाँ बोलकर हमारी नारी गरिमा को, कोई क्षति पहुँचाना नहीं चाहता। 
मैंने जानबूझकर यह अर्धसत्य तरह की बात की थी। मैं, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होने से तथ्य जानता था। लेकिन यशस्वी को अभी, यह बुरी होती, समाज तस्वीर नहीं दिखाना चाहता था। 
यशस्वी ने कहा - सर आप अत्यंत सधे शब्द में बात समझा देते हैं। अभी के लिए एक अंतिम प्रश्न पूछना चाहती हूँ। 
मैंने कहा - हाँ, पूछो। 
यशस्वी ने कहा- सर, मैंने सी ए की फेसबुक प्रोफाइल में देखा है, उनकी पत्नी मेरे से अधिक सुंदर है। ऐसा होते हुए उनमें अवैध लालसा, क्यों होती है ?
मैंने कहा - यशस्वी, सच कहूँ अभी इसका उत्तर मैं नहीं देना चाहता। मेरी बेटी पीएचडी कर रही है उसका शोध इसी विषय पर है। मैं किसी दिन उससे चर्चा करके ही, इसका सटीक उत्तर देना चाहता हूँ। 
यशस्वी ने कहा - कोई बात नहीं, सर। 
मैंने पूछा - सी ए के प्रति तुम्हारा गुस्सा शाँत हुआ ?
यशस्वी ने कहा - सर, आप सुंदरता से हर बात का समाधान रखते हैं। मैं समझ गई हूँ कि कुछ पुरुषों में, हम युवा एवं आधुनिका दिखती लड़कियों को लेकर गलत धारणायें होती हैं। उन पुरुषों में से एक, वह महोदय हैं। 
फिर वह हँसी थी और अगले कॉल तक के लिए विदा कहा था  .... 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
27-06-2020



Friday, June 26, 2020

यशस्वी (5) ...

यशस्वी (5) ...

पापा के नहीं रह जाने से, अब यशस्वी उस कमी की पूर्ति, मुझे पापा मानकर करने लगी, लगता था। यद्यपि यशस्वी ने ऐसा, कभी कहा या लिखा नहीं था।
कुछ दिन हुए, फिर यशस्वी का कॉल आया लगता था। उस समय मैं, एक अति आवश्यक बैठक में था। मैंने रिसीव किया तब उसका स्वर, रुआँसा था। 
मैंने उसे कहा कि- थोड़ी प्रतीक्षा करो। अभी मैं बैठक में हूँ, इससे फ्री होते ही, कॉल बैक करूँगा।    
फिर मैं, शाम को ही कॉल कर सका था। उस समय भी वह उदास ही लग रही थी। यशस्वी ने जो बताया उसे, यशस्वी एवं महिला ग्राहक के वार्तालप के रूप में, यूँ पढ़ा जा सकता है :- 
महिला ग्राहक - मैं, छह हजार के परिधान तो पसंद कर चुकी हूँ। मुझे और चाहिए हैं मगर, तुम्हारे पास 'सुंदर अंगों' को उभार देने वाले वस्त्रों की उपलब्धता नहीं है। 
यशस्वी - जी, हम ऐसे वस्त्र, गाउन के अंदर के पीस के रूप में बनाते हैं। पार्टी वियर में ऐसे डिज़ाइन किये वस्त्रों के साथ, एक ऊपर का आवरण देते हैं। 
कहते हुए यशस्वी ने, उन्हें कुछ ऐसे वस्त्र सामने रख, दिखाने शुरू किये। जिनमें से महिला ने, 5 हजार के वस्त्र और लिए। 
इसके बाद महिला ने कहा - तुम्हारी डिजाइनिंग उत्तम है। तुम्हारा व्यवसाय और बढ़ सकता है अगर तुम, अपने परिधानों में और विविधता (वैराइटी )लाओ। 
यशस्वी - मेम, कैसी वैराइटी?
महिला - लो नेक, बैकलेस तथा मोटे के स्थान पर कुछ अंगों या कुछ भाग पर झीने कपड़े के प्रयोग के, परिधान की माँग आज ज्यादा होती है। 
यशस्वी (प्रिया की दी टिप्स का स्मरण करते हुए) - मेम, ऐसे परिधान हम अपने अपनाये, सिद्धांत के तहत नहीं बनाते हैं। ऐसे वस्त्र, पुरुषों की निगाहें, हमारे अंगो पर रोक सकते हैं। जो पहनने वाली युवती के लिए असुविधाजनक हो सकता है।
महिला हँसते हुए - कोई पुरुष यदि ऐसा घूर लेता है तो हमारा क्या ले जाता है? ऐसे तो फिर हर सुंदर लड़की को, अपने मुख पर भी पर्दा रखना चाहिए, अपनी पहचान ही नहीं रखनी चाहिये, कि उसे कोई घूरता है।  
यशस्वी - जी, जिनके घर, स्कूल, कॉलेज, ऑफिसेस में एवं जाने आने के साधन में सुरक्षा (गॉर्ड आदि) पर्याप्त है, उनका कोई कुछ नहीं ले जाता है।  लेकिन देश में ऐसी बहुत सी लड़कियाँ/युवतियाँ हैं जिन्हें यह सुलभ नहीं है। उन पर खतरा हो जाता है। 
जहाँ तक 'मुख पर पर्दे' की बात है,  मैं मानती हूँ कि, मुखड़े से प्रभावित होने पर, मन में प्रेम जागृत होता है। जबकि अंगों पर आकर्षित होने से, व्यक्ति में कामुकता जागृत होती है।   
महिला (चिढ कर) - तुम, क्या समझती हो! तुम नहीं बनाओगी तो खरीदने वालों को, ऐसे आधुनिक परिधान मिलेंगे नहीं?
यशस्वी - मिलेंगे, लेकिन किसी असुरक्षित स्थान पर ऐसे वस्त्र पहनी किसी लड़की को कोई अपराधी, अपने वासना आवेश में छेड़छाड़ करता है तो मुझे, कम से कम यह विचार राहत देता है कि इन वस्त्रों के निर्माण के पीछे, मैं नहीं हूँ। 
यद्यपि ऐसे वस्त्रों के निर्माता पर, ऐसे किसी अपराध के लिए, संविधान कोई दंड निर्धारित नहीं करता। मगर यदि मैं निर्मित करूँ और, मेरे ऐसे निर्मित परिधान के कारण आवेशित हो कोई दुस्साहसवश, किसी लड़की पर अपराध करे तो अप्रत्यक्ष रूप से मैं, खुद को दोषी मानूँगी। 
तब महिला ने अपने तर्क को वजनी करने के लिए अजीब बात कही - परोक्ष रूप से तुम, तमाम सिने सेलिब्रिटीज पर दोष लगा रही हो जो, ऐसे वस्त्र धारण कर इनका फैशन चलाती हैं। 
यशस्वी को महिला कमाई दे रही थी, उम्र में बड़ी थी अतः उनका मान रखते हुए हँसते हुए सिर्फ यह कहा - जी मेम, शायद !
महिला ने कीमत भुगतान करते हुए पूछा - तुम, कितना पढ़ी हो?
यशस्वी - जी, बारहवीं !
महिला - तभी, तुम्हारी सोच संकीर्ण है ? 
यह कहते हुए महिला तो चली गई, परंतु यशस्वी को मानसिक रूप से आहत कर गई। यशस्वी ने इसी पर, मुझसे परामर्श (कॉउंसलिंग) के लिए कॉल लगाया था।  
मुझसे पूछा था - सर, क्या मैंने गलत कहा है? डिजाइनिंग के ये  आचार विचार (एथिक्स) तो मुझे प्रिया मेम से मिले हैं, वे तो डॉक्टरेट हैं। 
मैं समझ गया कि यशस्वी तो, अपने बारहवीं पढ़े होने को, अपनी हीनता मान रही है। मुझे वह उत्तर देना था जिससे यशस्वी की यह ग्रँथि (हीनता बोध) नष्ट की जा सके। 
मैंने समझाते हुए कहा - पिछले दो वर्षों में, अपने काम एवं व्यवसाय में तुमने जो सफलता अर्जित की है, उससे तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी की उपाधि की जरूरत नहीं बचती है। तुम ऐसे उपाधि लिए अनेक बच्चों से श्रेष्ठ हो। तुम्हें, उन महोदया की बातों से अवसाद नहीं मानना है।  
यशस्वी ने तब कहा था - धन्यवाद सर, आपके कहे शब्दों से मुझे आत्मबल मिलता है। 
अब तक सोफे पर मेरे साथ प्रिया आ बैठी थी। मैंने यशस्वी को बता कर कॉल होल्ड किया था एवं प्रिया को सारी बात बताई थी। आगे कॉल प्रिया ने लिया था। 
प्रिया ने फिर यशस्वी से कहा था - यशस्वी, जल प्रवाह की दिशा में अजीव वस्तुयें बहती हैं। जबकि किसी जीव को प्रवाह की दिशा में नहीं जाना होता है तो वे विपरीत दिशा की और तैरते हैं। 
यह जीवन प्रवाह है। जिसमें कोई यहाँ तो कोई वहाँ, बहना और तैरना चाहता है। आधुनिकता के नाम पर आज जो प्रवाह लोगों ने चला रखा है, हम उसकी दिशा में नहीं बहना चाहते हैं, इसके पीछे कारण हैं। 
मैंने जो डिजाइनिंग एथिक्स तुम्हें बताये हैं, उसका कारण यह है कि मैं उच्च पुलिस अधिकारी की पत्नी हूँ। ऐसे मैं जानती हूँ कि देश में युवतियों से छेड़छाड़ एवं बलात्कार के इतने अपराध हो रहें हैं कि इनके सब अपराधी को दंड सुनिश्चित कर पाना, प्रशासन एवं न्यायपालिका के लिए दूभर हो रहा है। अतएव समाज में इन अपराधों से कोई पीड़ित न हो इस हेतु हमें सिर्फ व्यवस्था पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। 
जागरूक नागरिक की तरह हमें, इसके समानांतर प्रयास करने चाहिए कि हम, वह परिवेश बदल दें जिसमें, कोई ऐसे अपराधों के लिए प्रवृत्त होता है। 
मैंने डिजाइनिंग करते हुए वस्त्रों को आधुनिक रूप तो देना चाहा है लेकिन ऐसा रूप दिया है, जिसे पहनना अपराध की संभावना ना बढ़ाये। (फिर पूछा) यशस्वी, तुम बताओ कि तुम्हारी प्राथमिकता अधिक दौलत बटोरना है या समाज स्वस्थ परिवेश, जिसमें तुम और तुम्हारी बहनें सुरक्षित होती हैं?  
यशस्वी - निश्चित ही मेम, स्वस्थ परिवेश। दौलत की यदि बात लें तो अभी, जितनी मुझे मिली है हमारे परिवार की अपेक्षा से अधिक है। मुझे ज्यादा की लालच नहीं है। आप दोनों ही मेरे जीवन निर्माता हैं। मैं ऐसे ही कार्य करना पसंद करुँगी जिसमें मुझे, आपका आर्शीवाद मिलता है। 
अंत में मैंने एक वाक्य कहा - साहित्य यदि नहीं चलता है तो कोई साहित्यकार अश्लील साहित्य लिखने नहीं बैठ जाता है। ऐसे ही, तुम गरिमामय आधुनिक वस्त्र डिज़ाइन करती रहो। 
फिर हँसी के आदान प्रदान के साथ कॉल खत्म किया ...
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26-06-2020
  

    

Thursday, June 25, 2020

यशस्वी (4) ...

यशस्वी (4) ...

अब, यशस्वी हम से निरंतर मोबाइल कॉल एवं फेसबुक में संपर्क में रहती थी। अपनी उलझनों पर चर्चा करनी हो तो मुझे कॉल/संदेश करती और डिजाइनिंग टॉपिक पर प्रिया से बात कर अपनी जानकारी बढाती थी। 
ऐसे ही कॉल/संदेश में जब कभी वह, अपने पापा के गिरते जाते स्वास्थ्य पर, दुःख एवं चिंता में होती तो, मैं समझाता कि उनकी उपचार-दवा कराते जाओ। उनकी सेवा-देखभाल करते जाओ। हम, अपने प्रियजन के रोगग्रस्त होने पर यही कर सकते हैं।
मैं पूछता - उपचार में पैसों की कमी तो नहीं?
इस पर उसका आत्मविश्वास से भरा उत्तर मिलता- सर, प्रिया मेम एवं आपसे मिले मार्गदर्शन एवं ज्ञान से, मैं अपने व्यवसाय से, लगातार अधिक धन अर्जन करते जा रहीं हूँ। अतः ऐसी कोई कमी नहीं है।
मैं, उसकी बात काट कहता - यह टैलेंट तुममें है। यह मेहनत तुम्हारी है। 
वह, ऐसी प्रशंसा पर हँसती। ऐसा करते हुए मेरा अभिप्राय, उसके पिछले अवसाद के स्मरण से उसे, बचाना होता था।      
यूँ कोई एक-सवा वर्ष बीता था कि एक शाम यशस्वी का कॉल आया। वह रो रही थी। उसने बताया - 15 दिनों पहले, पापा पर पक्षाघात हुआ। तबसे मस्तिष्क एवं हृदय संबंधी समस्यायें लगातार बढ़ती गईं। आज अभी, पापा नहीं रहे। 
सुनकर मैंने तुरंत निर्णय लिया, मोबाइल पर मनोबल दिलाना कठिन था। उससे अंत्येष्टि की जानकारी ली एवं कहा - उसमें कल सवेरे, मैं सम्मिलित होऊँगा। (फिर कॉल खत्म किया था)
मुझे अपनी अति व्यस्तता में यह करना था। इस सदमे से, यशस्वी को फिर अवसाद में जाने नहीं देना था।  
प्रिया को बताया तो वह भी साथ चलने तैयार हुईं। मैंने अगले दिन के अपने एजेंडा स्थगित करने की सूचना, वरिष्ठ एवं मातहत अधिकारियों को दी ताकि, वे संबंधितों को अवगत करा दें।
अगली सुबह हम, अंत्येष्टि में सम्मिलित हुए। मेरे स्तर के अधिकारी का वहाँ होना लोगों को अचंभित कर रहा था। जिस पर मैंने ध्यान नहीं दिया। हम रात्रि वापिसी करने वाले थे।
शाम यशस्वी अपनी एक बहिन के साथ, विश्राम गृह में हमसे मिलने आई। तब उसने कहा -
सर-मेम, आपने, मेरा मार्गदर्शन नहीं किया होता तो, शायद अपनी पूर्व महत्वकाँक्षा को मैं त्याग नहीं पाती। उस बात को दो साल हुए हैं। मैं इंजीनियरिंग की महँगी पढ़ाई कर रही होती तो आज पापा के नहीं रहने पर वह अधूरी छोड़नी होती। आपके परामर्श अनुरूप, इन दो वर्षों में, मैंने पापा का व्यवसाय, अपने हाथ में लिया और उसे जिस प्रकार बढ़ा सकी हूँ उससे, मैं, हमारे परिवार पर आई इस विपत्ति के समय में, आर्थिक रूप से सक्षम हुई हूँ। मै टूटने से बच सकी हूँ। अब मैं पापा के बिना, माँ-बहनों की जरूरत एवं घर की आर्थिक रूप से, पूर्ति सरलता से कर सकने योग्य हूँ। इसका श्रेय आपको है। आप दोनों के आभार के लिए, मेरे पास शब्द नहीं हैं। 
वह चुप हुई तब मैंने कहा - यशस्वी, वैसे तो तुम इंजीनियरिंग कर रही होती तब यह संकट आता, तब भी कोई न कोई रूप से, तुम और तुम्हारे परिवार का आगे जीवन चल जाता। लेकिन उस समय तुम्हारा इंजीनियरिंग करने का विचार त्यागना अप्रिय था, आज अप्रिय नहीं रहा। अब यह निर्णय तुम्हारी उपलब्धि हुआ है।
ऐसे अवसर तुम्हारे जीवन में ही नहीं, सभी के जीवन में अनेक बार आते हैं। तब यदि अपने ईश्वर के संकेत को समझ कर, हम सही विकल्प चुनते हैं तो हम, सुखद स्थिति में होते हैं। 
ईश्वर हमें भली स्थिति में ही रखना चाहते हैं। परंतु यदि हम ईश्वर की व्यवस्था में जिदवश अपनी ही इक्छा चलाते हैं तो, अपने कष्ट बढ़ा लेते हैं।  
तुम्हारा नाम एवं व्यवसाय अब चल निकला है। अपनी शॉप को तुम, बुटीक के रूप में परिवर्तित करो। अब समय आया है कि अपनी (उसकी बहन की ओर इशारा करते हुए) इस बहन या माँ को पापा की जगह अपने व्यवसाय में जोड़ो। (फिर प्रश्न किया) तुम समझ रही हो मैं, क्या कहना चाह रहा हूँ ?
उसने कहा - जी सर!
शायद यशस्वी समझ गई थी कि उसके विवाह होने की परिस्थिति में, मैं उसके परिवार को तैयार रहने का उपाय कर रहा था। फिर, दोनों बहनें चली गईं थीं।
वापिसी के समय मैं प्रिया से कह रहा था - अपनी प्रतिष्ठा, आदर, (महत्वकाँक्षा अनुरूप) उपलब्धियों तथा अपने विभागीय एवं पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति से, हमें प्रसन्नता मिलती ही है। मगर मैं, अनुभव कर रहा हूँ कि निरपेक्ष एवं निःस्वार्थ किया परोपकार, हमारा मानवता के प्रति उत्तरदायित्व होता है। इसे हम निभाते हैं तब का मिला सुख, सबसे बड़ा जीवन सुख होता है।        
इसके बाद कुछ ही दिनों में यशस्वी ने संदेशों के माध्यम से अवगत कराया था कि उसने, पिछली जगह बदल कर नई एवं बड़ी जगह किराये पर ले ली है। और अपनी शॉप को टेलरिंग से बुटीक में परिवर्तित कर लिया है।
माँ का नाम सीता होने से बुटीक का नाम "यशस्वी सीता बुटीक" रख लिया है। मैंने इनके लिए, यशस्वी को शुभकामनायें एवं बधाई दी थीं।
एक दिन यशस्वी ने बताया कि पापा के शॉप पर 15 वर्षों से रहा, सिलाई सहायक जिसे यशस्वी, चाचू कहती थी, उसकी दृष्टि यशस्वी को गंदी लगती थी। पहले यशस्वी, उसे उसकी समस्या मान कर अनदेखा कर देती थी। इधर पापा के नहीं रहने के बाद, उसकी कुचेष्टायें बढ़ने लगीं थीं। वह किसी-किसी बहाने से, यशस्वी के शरीर को छूने लगा था। अतः उसे, यशस्वी ने अब काम से हटा दिया है। वैसे भी बुटीक में ग्राहक, लड़कियाँ/महिलायें होती हैं। अतः ऐसे गंदी दृष्टि वाले का होना, व्यवसायिक हितों में नहीं होता है। यशस्वी ने उसके जगह एक सिलाई सहायिका को स्थान दे दिया है।
इसे सुन मुझे विचार आया कि जीवन है तो, नित नई चुनौती पेश करता ही है। अब यशस्वी का घर एवं व्यवसाय, (अपने) पुरुष सदस्य विहीन हुआ था। ऐसे परिवार और व्यवसाय सामान्यतः कुछ धूर्त तथा अपराधी किस्म के पुरुषों के लिए सॉफ्ट टारगेट होते ही हैं ... 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
25-06-2020

Wednesday, June 24, 2020

यशस्वी (3) ...

यशस्वी (3) ...

अगले जी दिन से यशस्वी ने परामर्श अनुरूप क्रियान्वयन आरंभ किया था। यद्यपि इंजीनियर बनने के सपने को साकार रूप देना छोड़कर, टेलरिंग का उपेक्षित सा व्यवसाय अपनाना, यशस्वी के लिए अत्यंत कटु लगने वाला अनुभव था। लेकिन कड़वा काढ़ा, लाभकारी होने वाला हो तो मनुष्य पीता है। आदत हो जाए तो उसे, कड़वाहट भी बुरी लगनी बंद हो जाती है।
यशस्वी के पापा को भी पहले, यह अच्छा नहीं लगा था। वह अपनी बुध्दिमान बेटी को इंजीनियर बनता देख और परिवार के लिए उसकी अभूतपूर्व उपलब्धि का, गौरव अनुभव करना चाहते थे। मनुष्य के जीवन में मगर, बुरे दिन, उसके अभाव से समझौता करवा देते हैं। दुकान पर यशस्वी के होने से उनकी आय, धीरे धीरे बढ़ने लगी थी। कुशाग्र बुध्दिधारी यशस्वी, शीघ्र ही मेजरमेंट एवं डिज़ाइन अनुरूप कपड़े की कटिंग करना सीख गई थी। जिसे दो सहायक सिल दिया करते थे।
पापा को यशस्वी के दुकान पर होने से, अस्वस्थता अधिक लगने पर, घर आकर विश्राम का समय अधिक मिलने लगा था। यशस्वी की माँ अवश्य, ऐसे समय में युवा बेटी के, पापा के बिना दुकान पर होने से, घबराया करती थीं। तब अपने सहायकों के होने का हवाला देकर, पापा उन्हें दिलासा दिया करते थे।   
यशस्वी का दुकान मालिक तरह के होने से, दुकान पर लेडीज काम बढ़ने लगा था। जिससे दो माह में ही अच्छी कमाई होने लगी थी। दुकान पर एक लेडीज सिलाई सहायिका और रख ली गई थी। ऐसे, यशस्वी ने रुपयों की आवक बढ़ते देखी तो उसके अवसाद दूर हो गये थे। 
इधर ज्यों ज्यों यशस्वी दुकान/टेलरिंग के कार्य में पारंगत होने लगी त्यों त्यों उसके पापा के, स्वास्थ्य में गिरावट बढ़ती जा रही थी।
साप्ताहिक दुकान बंद वाले एक दिन जब यशस्वी, पापा की अस्पताल में जाँच करा लौट रही थी। तब पापा ने अपने ग्लानि बोध से यशस्वी को बताया कि -
यशी, जो मैं सब भुगत रहा हूँ मेरे ही, पाप का फल है। तुम्हारी माँ नहीं चाहती थी तब भी, तुम्हारे होने के बाद, भ्रूण परीक्षण करवा कर, मैंने दो बार उसके गर्भ गिरवाये थे। अपने लिए पुत्र होने के जूनून में शायद मैं, यह और करता रहता मगर बाद में, तुम्हारी दो बहनों के गर्भ में आने के समय तक भ्रूण परीक्षण पर कड़े क़ानून के डर हो जाने से, डॉक्टर ने जेंडर, बताने से इंकार कर दिया था। 
ऐसे दो संतान की हत्या एवं बेटे के लालसा में, तीसरी भी पैदा करके मैंने  परिवार बड़ा कर लिया। आज यही मेरे ख़राब किये कर्म, मेरे ग्लानि बोध तथा चिंता के कारण हैं। ऐसी अस्वस्थता में, मैं अपने बुरे हश्र की कल्पना से घबराया रहता हूँ। मुझे लगता है मेरे बाद तीन युवा हो रही बेटियों की चिंता कर तुम्हारी माँ, चिंताओं में कितना ही ना घुटा करेगी। ये तो अच्छा हुआ है कि तुमने मेरी स्थिति समझते हुए अपनी उच्च शिक्षा की महत्वकाँक्षा त्याग कर एक बेटे से बढ़कर, जिम्मेदार और समझदार होने का परिचय दिया है। 
दोनों, फिर घर पहुँच गए थे। पापा के इस खुलासे ने, उनका मन तो हल्का कर दिया था, मगर यशस्वी को घर में ही बड़ी बुराई की अनुभूति कराई थी। घर का यह राज, यशस्वी ने, एक दोपहर प्रिया को आ सुनाया था।
वह पहला दिन था जब सिलाई और शॉप में दक्ष होने के बाद यशस्वी ने, फैशन डिजाइनिंग का ज्ञान प्राप्त करने, प्रिया के पास आना शुरू किया था।
यशस्वी ने, प्रिया को बताया था कि पापा की, अस्वस्थता बढ़ गई है। अब दुकान पर मैं, उन्हें दोपहर के दो घंटे ही बुला रहीं हूँ। जिसमें, मैं आपके पास एक घंटे नियमित आ सकूँ।
प्रिया ने उसके जल्दी ही सिलाई में दक्ष हो जाने एवं ऐसे डिजाइनिंग के लिए आने पर प्रसन्नता जताई थी।
यशस्वी ने तब कहा - मेम, मैं अपने हृदय पर रखा एक बोझ भी आज, आपसे शेयर करना चाहती हूँ।       
प्रिया ने कहा - क्यों नहीं! बिलकुल कहो। 
तब यशस्वी ने बताया - मेम, मैंने कहीं पढ़ा है कि हमारे देश में, 1000 पुरुष पर नारी 924 हैं। मेरे पापा की तरह सोच वाले लोग, बेटियों को गर्भ में मार कर यूँ यह अनुपात, डरवाने स्तर पर ला रहे हैं। हमारे देश की जनसँख्या और उसमें वृध्दि दर भी विस्फोटक स्तर पर है। इसमें भी मुझे मेरे पापा जैसे पुत्र मोह का होना, कारण लगता है। हमारे लोग, समझ नहीं रहे हैं। स्कूल कॉलेज में सीट्स नहीं है। सरकार और शैक्षणिक संस्थायें, किशोरवय छात्र-छात्राओं की बड़ी सँख्या को शिक्षा के लिए, अपनी संस्थाओं में प्रवेश देने की स्थिति में नहीं हैं। हमारे लोगों में राष्ट्र हितों के लिए उनके कर्तव्यों के प्रति कभी चेतना आएगी भी या नहीं ? 
प्रिया ने उत्तर दिया - जब तुम जैसे नई पीढ़ी के युवाओं में यह तार्किक सोच उठने लगी है तो मुझे आशा है कि देश में, ना केवल जनसँख्या वृध्दि पर रोक लगेगी अपितु यह अनुपात भी सुधर सकेगा। 
तब, यशस्वी ने प्रिया को अपने अगले प्रश्न से अचंभित कर दिया उसने पूछा -
स्वतंत्रता के बाद हमारे समाज ने जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया लगता है। नारी शोषण, नारी अपमान, दहेज हत्या एवं नारी पर दुराचार के रिवाज से, लोगों को बेटी के माँ-पिता होने से भय लगने लगा तब किसी स्वस्थ दिमाग से इनका अपेक्षित समाधान तो यह होता कि समाज से, ये ख़राब चलन मिटाये जाते मगर ऐसा ना करते हुए यहाँ, इसके स्थान पर अस्वस्थ दिमाग ने, बेटी को गर्भ में या जन्मने पर मारना शुरू कर दिया। क्या इसे, हमारा पढ़े लिखा होना या सभ्य होना कहा जा सकता है?
प्रिया इस तार्किक प्रश्न को तैयार नहीं थी, लेकिन यशस्वी के सामने अनुत्तरित रह जाने के स्थान पर उसने कहा -
यशस्वी, कभी कभी हम ठोकर खाकर गिरने से सबक लेते हैं यद्यपि यह बुध्दिमत्ता तो नहीं होती लेकिन तब भी आगे के लिए सुधार की आशा जगाती है। तुम जैसी बेटियाँ -बेटे, अब जागरूक होते दिखने से, मुझे आशा है स्वतंत्रता के बाद से, जिस जागृति एवं न्याय की भारत वासियों से अपेक्षा थी, वह सत्तर वर्ष विलंब से ही सही, सुनिश्चित की जा सकेगी।   
फिर प्रिया ने यशस्वी को और कठिन प्रश्न करने के अवसर देने की जगह, उसे डिजाइनिंग की चर्चा में लगा दिया था।
प्रिया ने बाद रात्रि में, मुझे यशस्वी से हुईं सारी बातों को अक्षरशः बताया था।
मुझे फिर, गौरव हुआ कि जो बेटी, मेरे निमित्त अकाल मारे जाने से बची थी, वह साधारण नहीं अपितु राष्ट्रीय गौरव बन सकने की योग्यता रखती है।
ऐसी प्रतिभाशाली एक बेटी के ज्ञान लाभ देने में, प्रिया को अत्यंत प्रसन्नता होती रही। ऐसे, यशस्वी नियमित और पूर्ण निष्ठा से, कुछ माह तक प्रिया के पास आती रही।   
यशस्वी से प्रथम भेंट के लगभग डेढ़ साल बाद, मेरा स्थानांतरण दूसरे शहर के लिए हो गया।  यहाँ से जाने के पहले, मैंने, मेरे प्रति निष्ठावान रही एक पुलिस निरीक्षक, रिया से यशस्वी का परिचय कराया। 
यशस्वी के पीछे, रिया से यह कहा कि तुम, यशस्वी का ध्यान ऐसे रखना जैसे कि यशस्वी मेरी बेटी है।  फिर, हम इस शहर से शिफ्ट हुए।
हमारा ईश्वर मगर, कुंदन की परख कसौटी पर बार बार घिस कर करता है।
ईश्वर के ऐसे ही स्वभाव के कारण, यशस्वी के सामने आगे और भी चुनौतियाँ खड़ी होने के लिए, प्रतीक्षा कर रहीं थीं ..
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
24-06-2020


Tuesday, June 23, 2020

आशियाना ..

आशियाना ..

वास्तव में मेरा मानना है कि हर मनुष्य में (सृष्टि) ईश्वर प्रदत्त क्षमतायें अनंत होती हैं। हर अकाल मौत से, मुझे लगता है कोई (आगे चलकर बनने वाला)  संभावित- महान वैज्ञानिक, महान समाज सुधारक, महान व्यक्ति, भारत रत्न या नोबल विजेता चला गया।
ऐसा विचार करते हुए मुझे, हर अकाल मौत, मानवता को बड़ी क्षति दिखाई पड़ती है। जो मुझे बाध्य करती है कि मैं, ऐसा कुछ प्रेरणास्पद लिखूँ एवं उसे प्रसारित करूँ, जिससे आत्महत्याओं/ मासूमों की हत्याओं की रोकथाम हो सके। 
और जब इस हेतु अपना सामर्थ्य सीमित देखता हूँ तो मुझे अवसाद होता है। फिर एक चिड़िया के घोंसला बनाने के पुरुषार्थ पर विचार करते हुए, स्वयं का मेंटर बन जाता हूँ, सोचने लगता हूँ शक्ति अनुरूप छोटा, छोटा कर्म भी एक आशियाना निर्मित कर सकता है। ऐसे "समथिंग इस बेटर देन नथिंग" उक्ति से मेरी, मुझे यह मेंटरिंग, स्फूर्त करती है। तब अपने कुछ मित्रों (जो पढ़ते-कमेंट करते हैं) के लिए नया सृजन /रचना करने के पुरुषार्थ (लेखन) में व्यस्त हो जाता हूँ।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
24-06-2020

यशस्वी (2) ...

यशस्वी (2) ...

मैंने, प्रिया को यशस्वी के आत्महत्या के प्रयास के अतिरिक्त सब बात बताई थी। मेरा, मानना है जिस अपनी भूल का हमें पछतावा होता है और जिसका प्रचार हम नहीं चाहते, उसे जितने कम से कम लोगों में सीमित रखें, वह अच्छा होता है।   
प्रिया को यह भी बताया था कि यशस्वी को, सहायता की भावना से मैंने, मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए, रविवार को बुलाया है।
रविवार यशस्वी आई थी। उस समय मैं, 15 मिनट की नैप (झपकी) ले रहा था। प्रिया ने, उसे बँगले के मेरे ऑफिस कक्ष में बिठाया था।
यशस्वी ने पूछा था - आप, सर की बेटी हैं?
प्रिया, खिलखिलाकर कर हँस पड़ी बोली - मैं सर की, पत्नी हूँ। तुम्हारी जितनी बड़ी, हमारी एक बेटी है। 
यशस्वी झेंप गई, लजाकर पूछा - कोई आप जितना मैनटैनड, कैसे रह सकता है? 
प्रिया ने उत्तर दिया - यह सरल है। जीवन अत्यंत सरस होता है। यदि, भोजन-पेय और अन्य खानपान से ही, रस निकालने के स्थान पर उसे संतुलित मात्रा में लें और हम, अन्य अच्छे कार्यों से अधिकाँश, जीवन रस लेने की कला अपने में विकसित करें, तो इस तरह  मैनटैनड रहा जा सकता है।   
यशस्वी (प्रभावित होते हुए) - मेम, आप इस हेतु क्या करती हैं? 
प्रिया - मेरी कई हॉबीज हैं उन्हें करके मैं, जीवन रस लेती हूँ। फैशन डिजाइनिंग भी मुझे बहुत ख़ुशी देता है। 
जब मैं कार्यालय कक्ष में पहुँचा दोनों ऐसे वार्तालाप में थे। संयोग से मेरे पहुँचने पर ही, प्रिया के मोबाइल पर कोई कॉल आया और वह रिप्लाई करने  भीतर, बैठक कक्ष में चली गईं।
यशस्वी एवं मुझ में मुस्कुराहट का औपचारिक आदान-प्रदान हुआ। यशस्वी की बॉडी लैंग्वेज, पिछल दिनों से विपरीत आज, उसे आत्मविश्वास से ओतप्रोत दिखला रही थी। इसे देख मुझे अत्यंत ख़ुशी अनुभव हुई कि जीवन से भरपूर, एक बेटी का अनायास ही, मैं जीवन रक्षक हुआ था। 
बिना अन्य भूमिका के मैंने, यशस्वी को पिछली भेंट का, उसका प्रश्न स्मरण कराया और पूर्व विचारा, अपना उत्तर शुरू किया - 
यशस्वी, प्रायः सभी के साथ होता है, अपना मनोनुकल प्रदर्शन न कर सकने से, अवसाद आता है। हम भारतीय आस्तिक प्रकार के मनुष्य होते हैं। असफलता से ऐसे अवसाद में घिरकर हम अनायास ही, अपने ईश्वर की अविनय करते हैं, जबकि उन पर हमारी पूर्ण आस्था होती है। तुम्हारे पर लेकर बात करें तो, अभियंता होकर धनार्जन करना तुम्हारी इक्छा थी। परीक्षा वाले दिन तुम्हें बुखार आ गया। फलस्वरूप तुम, वह स्कोर करने में असफल रही जिससे, तुम्हारा अभियंत्रिकी में प्रवेश सुनिश्चित होता। 
मैंने एक चुप्पी लेकर उसे देखा वह तन्मयता से मेरा कहा जाता, सुन रही थी तब मैंने आगे कहा -
अपनी इक्छा से तुमने जीवन खत्म करना चाहा, मगर ईश्वर ने अपनी इक्छा से पहले ही मुझे, वहाँ पहुँचा दिया। यथार्थ यह है कि मैं, नर्मदा किनारे, सैर को नित्य नहीं जाता हूँ। ऐसे, ईश्वरीय इक्छा से मैं, तुम्हारे नवजीवन का निमित्त बना हूँ। जीवन, वस्तु स्वरूप ऐसा है कि प्रत्येक मनुष्य के, न्यायसंगत मनोरथ पूरे हो सकते हैं। आवश्यकता इतनी बस होती है कि जो परिस्थिति, उसके साथ बन जाती है उसमें, सही विकल्प की पहचान कर, आगे बढ़ना होता है। 
फिर मैंने पूछा- जो मैं कह रहा हूँ, तुम समझ रही हो?
यशस्वी ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा- जी हाँ, सर!  
तब मैंने अपनी बात फिर आगे बढ़ाई - जानती हो, एक दृष्टि से तुम्हारा असफल होना अच्छा रहा है। 
मैं आगे कहता उसके पहले ही, यशस्वी ने असहमति से प्रश्न किया - भला! असफलता, कभी अच्छी कैसे हो सकती है? 
अपने स्वर को अत्यंत मृदु रखते हुए मैंने कहना जारी रखा -
वही मैं आगे बताने जा रहा हूँ। वर्तमान में जो तुम्हारी पृष्ठभूमि है, पापा अस्वस्थ चल रहे हैं, बचत ज्यादा है नहीं तथा पापा की आय घट गई है। ऐसे में यह मुश्किल होता कि तुम, अभियांत्रिकी की चार-पाँच वर्षों की पढ़ाई निर्विघ्न कर पातीं। वास्तव में, तुम्हें, तुम्हारी माँ एवं बहनों के पर्याप्त उदर-पोषण आदि के लिए यह जरूरी है कि तुम्हारे (अस्वस्थ) पापा को ऐसा सहायक मिले, जिसकी मदद से वे अपनी शॉप कम उद्यम से, सुचारु चला सकें।     
ऐसे में विकल्प तुम ही बनती हो। तुम्हारी, प्रवेश परीक्षा में असफलता, तुम्हारे परिवार की पर्याप्त आय सुनिश्चित करने में, सफलता साबित हो सकती है।  
मैं चुप हुआ तो यशस्वी बोली - सर, मुझे समझ तो आया है मगर मैं, आपसे ज्यादा स्पष्ट सुनना चाहती हूँ कि अभी, मुझे क्या करना है? 
मैंने बोतल से दो गिलास में, जल लिया एक यशस्वी को दिया, एक से कुछ घूँट भर, अपना गला तर किया फिर आगे कहा -
मैंने ना तो पत्नी को बताया है ना तुम्हें ही, किसी को यह बताने की जरूरत है कि तुमने क्या प्रयास किया था। उसे एक दुःस्वप्न मान कर तुम्हें, भूल जाना है। 
शायद तुम्हें, यह जानकारी प्रिया ने अभी दी होगी कि उन्होंने, फैशन डिजाइनिंग में डॉक्टरेट की उपाधि ली है। कल से ही तुम, अपने पापा के साथ काम करते हुए, पहले कुछ दिनों सिलाई की कला सीखो एवं उन पर से व्यवसाय का भार कम करो। 
तुमने बताया है कि बारहवीं में तुमने, 90% स्कोर किया है। जो इस बात का संकेत करती है कि तुम प्रतिभावान हो एवं अवसर और अनुकूलता मिले तो तुम आईपीएस तक हो सकती हो। मगर ऐसी अनुकूलतायें तुम्हें नहीं है। तब भी निराश होने की जरूरत नहीं, प्रतिभा व्यर्थ नहीं होती है। तुम उसे इंजीनियरिंग में न लगा कर व्यवसाय में लगाओगी तो, यहाँ नाम और धन अर्जित कर सकोगी। 
दो तीन महीनों में जब इसका सफल आरंभ कर लोगी तो तुम, प्रिया से नियमित मार्गदर्शन लेकर अपने व्यवसाय में, विशिष्ठ डिजाइनिंग का सम्मिलन कर लेना। 
हर अपने कमजोर पल में, मुझसे बात करते रहना। मैं, तुम पर निराशा हावी न होने दूँगा। ऐसा करते हुए चलने से, निश्चित है कि अभी की असफलता, तुम्हारी भविष्य की शक्ति सिध्द होगी। 
मैं, देख सकूँगा कि तुम्हारा व्यवसाय और नाम इस शहर में चल निकलेगा। कभी हम, इस शहर से स्थानान्तरित भी कर दिए जायेंगे, तब भी तुम्हारी प्रसन्नता में हम अति प्रसन्न होंगे। 
यशस्वी की, मेरे कहे की प्रतक्रिया में, भाव-भंगिमा, मुझे आश्वस्त करने वाली थी।
तब तक प्रिया कक्ष में, वापिस आ गई थी। पीछे ही सेविका, चाय-नाश्ते के ट्रे सहित आई थी। मुझे एक बैठक में जाना था, मैंने यशस्वी से अभिवादन के साथ, विदा ली थी। पीछे, प्रिया और यशस्वी चाय लेते हुए बात करने लगीं थीं।
फिर जब में कार में बैठ रहा था - मुझे उन दोनों की हँसते हुए बात करने की आवाज सुनाई दी थी। दोनों में मित्रता हुई है, इस विचार ने मुझे मानसिक संतोष दिलाया था ..... 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23-06-2020


Monday, June 22, 2020

यशस्वी ...

यशस्वी (1) ...

सुबह चार बजे नींद खुल गई थी, मेरी। मैंने 4.45 तक दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर चाय भी पी ली थी। उजाला होने में अभी समय था तो, नर्मदा तीर घूमने को मन हुआ। प्रिया को बताया कि नर्मदा किनारे की ताजा-शीतल वायु लेकर आता हूँ। हाँ, सुनने के बाद, बाहर गॉर्ड को साथ न लेकर, अकेले ही कार से 15 मिनट में, नर्मदा किनारे पहुँच कर मैं, सैर करने लगा था।
मुझे, घूमते कोई पच्चीस मिनट हुए होंगे कि 25-30 मीटर दूर, 18-20 साल की एक लड़की दिखी। एक वृक्ष की आड़ होने से लड़की, मुझे देख ना सकी थी। वह उस तरफ बढ़ रही थी, जहाँ से 10 फिट नीचे, पानी अधिक गहरा था। उसके खतरनाक इरादे को भाँप कर मैंने, अपने कदम तेज किये और जब वह छलाँग लगा रही थी, कुछ ही क्षण पहले, लपक कर मैंने उसकी दाहिनी बाँह मजबूती से पकड़ ली।   
निर्जन स्थान पर उसके लिए यह अप्रत्याशित था। वह, कुध्द होकर मुझे देखने लगी। मैं, शक्ति लगाकर उसे किनारे से दूर के तरफ खींचने लगा था। थोड़ा प्रतिरोध करते हुए वह, मेरे साथ चलने लगी थी।
कोई 50-60 मीटर दूर की चट्टान पर मैंने, उसे साथ बिठाया था। मैंने, उसके हाथ थामे रखते हुए, फिर कहा- मैं, पुलिस कप्तान हूँ।
इसे, सुन उसके बल ढीले पड़ गए, एक तरह से वह, मुझसे डर गई थी।
मैंने पूछा- घर में, कोई पत्र लिख कर छोड़ा है?
उसने कहा- हाँ!
तब मैंने कहा - उसे पढ़कर घर में अभी, कोहराम मच रहा होगा। चलो, कार से मैं, तुम्हें घर छोड़ देता हूँ।     
उसने कहा- स्कूटी, मेरी यहाँ है। 
मैंने कहा - चिंता मत करो वह मेरा अधीनस्थ कर्मी, तुम्हारे घर पहुँचा देगा।     
अच्छी बात यह थी कि मेरे निर्देश वह मान रही थी। कार चलाते हुए, मैंने बातों में, उसका एवं घरवालों का पूरा परिचय, उसका मोबाइल नं आदि ले लिया।
फिर धमकी जैसे, मगर नम्रता से यह मैंने बताया कि- मैं, उस पर आत्महत्या के प्रयास का अपराध दर्ज करवाते हुए, कार्यवाही कर सकता हूँ। 
(आगे कहा) मगर मैं यह ना करूँगा, आज बस तुम इसे स्थगित रखो और दोपहर 2 बजे, जब मैं लंच लेता हूँ मेरे ऑफिस में आकर, मुझे आत्महत्या का कारण बताओ। अगर उससे मैं, संतुष्ट हुआ तो तुम्हें, करने के लिए मुक्त छोड़ दूँगा।
यह कहते हुए मैंने, अपना कार्ड उसे दिया।
तभी, यशस्वी (नाम उसने, यह बताया था) के मोबाइल पर कॉल आने लगा, मेरी प्रश्नवाचक निगाह पर उसने बताया- पापा का है। 
मैंने, उसे आंसर करने कहा और निर्देश दिए-  उन्हें बताओ कि मॉर्निंग वॉक खत्म करके, अभी आ रही हूँ।   
यशस्वी ने कॉल पर यही कहा।
साथ ही उसे, आगे सफाई में कहना पड़ा कि- आप सभी सो रहे थे अतः चुपचाप निकल आई थी।
फिर कॉल, काट दिया था। मैंने फ़िलहाल के लिए उस घातक पल को टाल दिया था। अतः निश्चिंत हो उसके घर के कुछ पहले यशस्वी को, यह कहते हुए कि सबमें पहले वह आत्महत्या का लिखा नोट, जाकर फाड़ दे फिर उसे, ड्राप किया और घर लौट आया था।     
आशा अनुरूप यशस्वी दो बजे के पहले, मेरे ऑफिस पहुँच गई थी। वैसे, मैं लंच घर पर करता था, लेकिन यशस्वी की निजता को ध्यान रखते हुए, मैंने पास के रेस्टोरेंट में जाना उचित समझा। ड्राइवर को मना किया, फिर साइड सीट पर यशस्वी को बैठाते हुए मैं, खुद ड्राइव ने लगा। तीन मिनट में, हम रेस्टोरेंट पहुँच गए थे। मैंने मोबाइल म्यूट पर रखा और फॅमिली केबिन में, यशस्वी को सामने बिठा लंच आर्डर किया।
फिर उससे पूछा कि- तुमने, यह प्रयास क्यों किया, बिना संकोच एवं भय के सविस्तार बताओ। 
यशस्वी ने कुछ पल सोचा फिर कहना आरंभ किया - मेरे पापा, टेलरिंग शॉप चलाते हैं। वे कुछ समय से अस्थमा से पीड़ित है, जिसका असर शॉप पर पड़ रहा है। उन्होंने अच्छा कमाया हुआ था लेकिन बचत का ज्यादा पैसा, मेरी दो बुआओं की शादी पर खर्च हो गया है। अब घर में, पापा, माँ एवं मेरी दो छोटी बहनों का परिवार है। पापा की अस्वस्थता के कारण मैं, उन पर आर्थिक भार कम करने के लिए खुद कमाने योग्य बनना चाहती हूँ। मैंने इस वर्ष बारहवीं की परीक्षा 90% अंको से पास की है। प्रवेश परीक्षा मैंने, बुखार की हालत में दी थी। कल उसके नतीजे आये हैं। जो रैंक मेरी आई है उससे, मुझे शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल सकेगा।       
तब आर्डर सर्व करने के लिए बेयरे के आने से, यशस्वी चुप हो गई। फिर उसके जाने के बाद उसने और मैंने खाना शुरू किया। बात आगे बढ़ाने के लिए मैंने उससे पूछा- तुम्हारे रिजल्ट पर घर में, कोई नाराज हुआ ?
नहीं, कोई नाराज नहीं हुआ, यशस्वी ने उत्तर देते हुए आगे बताया - मगर, मुझे बहुत दुःख है कि मैं पापा को कमाकर देने योग्य नहीं बन सकूँगी। निजी कॉलेज में फीस बहुत है जो मेरे पापा अभी की हालत में, भर न सकेंगे।
अब मैंने कहा- यशस्वी, तुम आज नर्मदा में कूद के जान दे देती तो मालूम क्या होता?
उसने उत्सुकता से पूछा - क्या होता? सर!
मैंने बताया - जिस नर्मदा को लोग श्रध्दा से पूजते हैं। जो नर्मदा, प्राणियों के जीवन के लिए जल प्रदान करती है, उसमें मरकर तुम उसे, गंदा करती।
यशस्वी ने इस पर कहा - सर इसका अर्थ यह कि मुझे आत्महत्या का कोई और तरीका चुनना चाहिए था ?
मैं हँसा, मैंने उत्तर दिया- नहीं, ये मतलब नहीं है, वास्तव में तुम्हें आत्महत्या करनी ही, नहीं चाहिए। मैं, संयोग और भाग्यवश वहाँ नहीं होता तो हमारा अमला, दूसरे काम छोड़ कर अभी, नर्मदा में तुम्हारे शव की खोज करने में लगा होता। एक दो दिन में पानी में फूला और नदी के जीव जंतुओं द्वारा खा लिए जाने से दुर्गंध देता तुम्हारा शव, जब घर पहुँचता तो पहले ही अस्वस्थ, तुम्हारे पापा की हालत और बिगड़ जाती। हो सकता है, सदमा उनकी जान ले लेता। तुम्हारी दो छोटी बहनें अनाथ हो जातीं।  तुम्हारी माँ पर मुसीबत का पहाड़ आ गिरता। लोग बेकार की दसियों बात करते।
ऐसा न भी होता तो तुम्हारे पापा के 18 वर्ष का, तुम्हारे पालन-पोषण पर किया व्यय, व्यर्थ चला जाता। समाज में तुम्हारे परिवार की बदनामी होती।         
मैं अगला कौर लेने चुप हुआ तो यशस्वी ने कहा - लेकिन सर, मेरी मौत से अगले पाँच साल का मुझ पर होने वाला तथा फिर मेरे विवाह पर होने वाला खर्च, तो उन पर नहीं आता।   
मैंने कहा - नहीं, ऐसा नहीं होता। कोरोना के कारण से, विवाह के तरीके में बदलाव आये हैं, अब विवाह ज्यादा खर्चीले नहीं रह जायेंगे। साथ ही अगले पाँच साल के खर्च के बोझ, तुम्हारे पापा पर न आयें इसके भी उपाय हैं। फिर समझाने के मृदु स्वर में, मैंने आगे कहा-
यशस्वी, तुमने जीवन थोड़ा देखा है अतः कम जानती हो। किसी की सेट मंजिल पर पहुँचने का, कोई एक ही मार्ग नहीं होता। जीवन अनेकों विकल्प उपलब्ध कराता है। जिनमें से किसी एक पर चलकर, कोई अपनी मंजिल पर पहुँच सकता है। तुमने मंजिल सेट की है कि तुम्हें, अपने पापा का आर्थिक बोझ, कुछ अपने पर लेते हुए, कम करना है, तो तुम यह समझ लो, तुम उस पर पहुँचोगी। हाँ, पर उस पर पहुँचने का तुम्हारा मार्ग, शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय से होकर नहीं जाता है। 
यशस्वी ने पूछा - सर, तो अब मुझे क्या करना चाहिए ?
मैं समझ गया था कि सुबह से अब तक की घटना एवं मेरी बातों के असर से, यशस्वी अपने डिप्रेशन से उबर चुकी है। हमारा लंच भी हो गया था। मैंने यशस्वी से कहा - इसका उत्तर मैं तुम्हें रविवार को दूँगा। तब तक तुम यह भूल कर कि तुम्हें कोई असफलता मिली है, घर में सबके बीच खुश रहो एवं रविवार को मेरे बँगले पर आओ
उसने सहमति से सर हिलाया, फिर मैंने उसे, अपने कार्यालय में उतारा, जहाँ उसने अपनी स्कूटी ली और वह चली गई थी ...
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22-06-2020
       


Sunday, June 21, 2020

कुछ पीछे,कुछ नीचे का स्थान सहर्ष ले लेना
उनके हर्ष का कारण होता है
जो पीछे,नीचे- हमें देखकर
गर्व करते हैं कि हम उनसे पिछड़े हैं

मेरे पापा ...

मेरे पापा ...

पापा, देश की आर्मी में थे। बचपन से ही मेरी समझ विकसित होने के साथ ही, मेरे पापा, मेरे सर्वोच्च आदर्श (ऑफ़कोर्से मेरी मम्मा भी) हो गए थे।
स्कूल के एनुअल स्पोर्ट्स में, मैं तब 10 साल का था, उन्होंने मुझे फुटबाल खेलते देखा था। उन्हें मेरे में, गॉड गिफ्टेड प्रतिभा प्रतीत हुई थी। अतः उन्होंने तभी से, मेरा फोकस अध्ययन से ज्यादा, खेल पर लगवा दिया था। उन्होंने मुझे सुप्रसिद्ध कोच से, कोचिंग दिलवाना आरंभ किया था।
जूनियर वर्ग में, मेरी उपलब्धियों पर उनकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रहती थी।
ऐसे में, जब 17 वर्ष की आयु में ही, मेरे प्रदर्शन के आधार पर, मेरा विश्व कप फुटबाल के लिए, टीम में चयनित होना तय सा हो गया था, वे अत्यंत खुश हुए थे। और विश्व कप की व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगे थे।
तब पश्चिमी एशिया के डिस्टर्बेंस में, हमारे राष्ट्रपति ने, अपना सैन्य बल, जिसमें मेरे पापा भी थे, वहाँ भेजा था।
विश्व कप को अभी चार माह शेष थे। तब मनहूस समाचार मिला था कि टेररिस्ट से एनकाउंटर में, मेरे पापा वीरगति को प्राप्त हो गए हैं।
उनका शव यहाँ लाया जाकर, अत्यंत राजकीय सम्मान पूर्वक, दफनाया गया था। उस सम्मान को देखते हुए हमारा मातम, गौरव बोध में बदल गया था। एकबारगी मुझे विचार आया था कि मैं भी आर्मी ज्वाइन करूँ। और राष्ट्र सेवा के लिए पापा जैसे ही, अपना जीवन समर्पित करूँ।
मेरी मम्मा को जब मैंने, अपनी अभिलाषा बताई तो उन्होंने, इस विचार के लिए मुझे शाबाशी दी। साथ ही स्मरण कराया कि मेरे पापा का, उनके जीवन का सबमें बड़ा सपना, मुझे विश्व कप में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए, खेलते देखना था।
मम्मा ने बताया था, अगर तुम अपने खेल से, यह विश्वकप देश के लिए जीतते हो तो, यह भी बहुत बड़ी राष्ट्र सेवा होगी। इस बात की अनुभूति ने, मुझे अपना सब कुछ अपने खेल पर झोंक देने को प्रेरित किया।
परिणाम मेरे पापा की अभिलाषाओं अनुकूल निकला। मैं विश्व कप खेला था एवं उस के मैचों में मैंने, ना केवल रिकॉर्ड गोल किये, अपितु विश्व कप देश के और प्लेयर ऑफ़ टूर्नामेंट अपने, नाम किया। 
कप सरेमोनी में हमारी टीम, जश्न मना रही थी तब मैं, फूट फूट कर रो रहा था। मैं अत्यंत भावुक था, मेरे ह्रदय में उथल पुथल चल रही थी।
विचार यह आ रहा था, काश! आज मेरे पापा, इन उपलब्धियों के साक्षी होते।
अगले दिन हम (विजेता टीम), देश वापिस पहुँचे थे। पूरा देश, हमें सिर-हाथों पर उठा रहा था। यह सब देख, मेरी मम्मा की खुशियों का ठिकाना नहीं था। भला! कितनी माँयें होती हैं, जिनके बेटे, राष्ट्र को ऐसे गौरव दिलवाते हैं। 
मेरे सौभाग्य के समानांतर ही मगर, मेरा दुर्भाग्य अभी भी साथ चल रहा था। पापा को पहले ही खो चुका मैं, विश्वकप जीतने के दो महीने के भीतर ही, अपनी मम्मा को एक दुर्घटना में खो बैठा।
यद्यपि देश मुझे गौरव से हाथों हाथ उठा रहा था मगर मैं, स्वयं को अनाथ अनुभव कर रहा था। 
उस रात गहन मातम में, मैं सो नहीं रहा था। रात भर, अपने आगामी जीवन के लिए, अपने लक्ष्य नियत करता रहा था।     
उस विश्व कप के बाद मैंने, फिर तीन और विश्व कप खेले। टीम की उपलब्धि यध्यपि हर बार विश्व कप जीतने की न बन सकी। मगर हमने हर बार फाइनल खेला और मेरे खेले, चार विश्व कप में से, दो में विजेता हम हुए।
इन विश्व कप में, मेरे द्वारा किये गोल, इतने हो गए कि यह असंभव दिख रहा था कि यह रिकॉर्ड, आगामी कई विश्व कप में तोड़ा जा सकेगा।
इस बीच, मम्मा के देहांत वाली रात को, मेरे तय संकल्प अनुसार मैं, अपने सामाजिक एवं मानवता दायित्वों को निभाता चल रहा था।
अपने आदर्श, मेरे पापा को चाहे, उनकी मौत के बाद ही सही, मैं, वैश्विक स्तर पर 'सर्वश्रेष्ठ पापा' होने का सम्मान सुनिश्चित करने की दिशा में, मैं काम करता रहा।
मैंने, उनके समय के हमारे जीवन स्तर और जीवन शैली ही जारी रखा। जिसमें मेरी आवश्यकताओं पर लगने वाला धन, ज्यादा नहीं होता था।जबकि देश और मेरे प्रशंसक लगातार, मुझ पर बेतहाशा धन वर्षा रहे थे। मैंने स्वयं को, अरबपति नहीं होने दिया था। मैंने एक ट्रस्ट बना दिया। जिसमें मुझे मिल रहे धन को जमा करता जाता था।
अपनी किशोरवय में पिता एवं माँ को खो देने से मैंने स्वयं को अनाथ अनुभव किया था। साकर में, मेरी उपलब्धियाँ भी मेरी अप्रिय इस अनभूति को दूर नहीं कर पातीं थीं।
अप्रिय इस अनुभूति से निकलने के लिए मैं, दुनिया में किसी भी सेना में शहीद हुए वीरों की, बेटे-बेटियों को (गोद लेता) अडॉप्ट करता था। उनके लालन पालन का दायित्व, मैं लेता रहा था। ट्रस्ट के जमा धन राशि के उपयोग से ऐसा करना, मेरे लिए सरल था।
आज मेरी अपनी दो बेटियों के अतिरिक्त, ऐसे अडॉप्टेड मेरे बेटे-बेटियों की सँख्या 3 हजार से ज्यादा हो गई है।
पितृ दिवस पर, मैं गौरव अनुभव करता हूँ कि दुनिया के सबसे ज्यादा बेटे-बेटी मेरे हैं। उन सब की धमनियों में, भले मेरा नहीं मगर परम वीर, साहसी एवं बलिदानियों का रक्त प्रवाहित होता है।   
अब फुटबाल से अवकाश लिए, मुझे 10 वर्ष हो रहे हैं। अतः खेल के द्वारा हासिल होती रही दौलत अब उतनी नहीं होती है। मगर मेरे एनजीओ को, दुनिया के महादानियों से प्राप्त हो रही सहयोग राशि उससे कम भी नहीं होती।
यहाँ मेरी, शीर्षस्थ फुटबॉलर की ख्याति काम आती है। मैं सोचता हूँ, कोई अगर सेलिब्रिटी हो तो अति विलासिता का उदाहरण बनने के स्थान पर इस तरह का उदाहरण बने तो दुनिया से बुराइयाँ कम होने लगेंगी। 
आज, मेरे ट्रस्ट की जमा पूँजी से, मैं, ऐसे और 5 हजार बेटे-बेटियों का लालन-पालन सरलता से कर सकता हूँ।
इतना सब उल्लेख करते हुए, मैं अपनी एक असमर्थता का खुलासा भी करना उचित समझता हूँ। आज से एक साल पहले, एक देश के मारे गए सैनिक की बेटी ने, मुझसे सहायता चाही थी।
अप्रिय होते हुए भी मैंने, उसे यह प्रदान करने में असमर्थता जतलाई और उससे क्षमा माँग ली थी। कारण यह था कि जिस देश की सेना में, उसके पापा सैनिक थे, वह देश अपने सेना का उपयोग, आतंकवादी बनाने के लिए करता है।
ऐसे में, यह मुझे गवारा कैसे होता कि जिन आतंकवादियों से, एनकाउंटर में मेरे पापा ने अपना जीवन बलिदान किया, उन जैसे आतंकवादी को बनाने/सहयोग करने वाली सेना के, मारे गए सैनिक के परिवार को मैं सहयोग करूँ।
ऐसा किया जाना मेरे पापा के साथ ही नहीं, मानवता के साथ भी अन्याय होता कि जो किसी व्यक्ति के, अकाल मौत के कारण बनते हैं, परोक्ष रूप से ऐसे विचारों को, मैं सशक्त करूँ।
यहाँ मैं, उस बेटी से क्षमा प्रार्थना करता हूँ मैं जानता हूँ कि वह, स्वयं दोषी नहीं है। मगर उसे अपने देश की काली करतूतों की सजा, अभाव एवं अनाथ रहते हुए भुगतनी है।
अंत में - "हैप्पी फादर्स डे",  मेरे दिवंगत, मगर मेरे आदर्श पापा .....
(काल्पनिक- यह कहानी मैंने, अपने जीवन में मेरे बाबूजी एवं माँ के त्याग का स्मरण करते हुए  लिखी है। )
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
21-06-2020
          

Saturday, June 20, 2020

कौनसा घर, पत्नी का ! ...

कौनसा घर, पत्नी का ...

ठीक है, अगर तुम मेरी इक्छाओं का इतना मान नहीं कर सकती हो तो, जहाँ जाना चाहो, कल चले जाना- गुस्से में तमतमाये अनवर, कह रहे थे।
ठीक है, मैं कल दोनों बेटों के साथ चली जाऊँगी- मैंने कहा था।
मैंने, बेटों का जिक्र जानकर किया था ताकि अनवर, जो बच्चों को जान से बढ़कर चाहते थे समझ सकें कि वे, क्या कह रहे हैं।
यह सुनकर, फिर अनवर अकेले हमारे शयन कक्ष में चले गए थे और मैं, सो रहे बच्चों के पास, उनके बेड पर जाकर लेट गई थी।
मेरी, आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। बात जरा सी यह हुई थी कि एक बार हो चुकने के बाद, मेरा फिर मूड नहीं था। मैं थकी हुई भी थी और अगले दिन के क्लॉस लेक्चर की तैयारी करने, अगली सुबह जल्दी उठने के लिए, सो जाना चाहती थी।
अनवर फिर से आवेशित हुए थे। मैंने मना किया तो उन के अंदर का मर्द कुपित हो गया था। बस इतने से पर उन्होंने, इतनी तक बात कह डाली थी। जबकि मुझे मालूम था मुझे बहुत चाहते हैं। वे, स्वयं ही जज थे। मुझे विश्वास था गुस्सा उतरने के बाद, उन्हें स्वयं की गलती का एहसास हो जाएगा।
मुझे ऐसे धमकाने की भूल न करें इसलिए अगले दिन सुबह, मैंने चाय नहीं बनाई और सबक सिखाने के लिए अपने एवं बच्चों के सूटकेस तैयार करने लगी। साथ में, मैं कनखियों से, अनवर की प्रतिक्रिया देखते जा रही थी।
अनवर के मुख पर पहले विस्मय के भाव दिखे, फिर वे एकाएक उठे और उन्होंने, बेटों का सूटकेस उठाकर अलग रख दिया।
बोले- नहीं, तुम बेटों को नहीं ले जाओगी।
मैं समझ गई कि अनवर, गलती की माफी नहीं माँगना चाहते। यह तो उनकी मर्दानगी के खिलाफ की बात हो जायेगी, इसलिए मुझे रोकने के लिए, भावात्मक यह दबाव बना रहे हैं। मुझे, उनका यह दाँव, साफ समझ आ रहा था।
मैं तो, जाने का यह अभिनय सिर्फ इसलिए कर रही थी कि कितने भी रुष्ट होने पर भी फिर, अनवर आगे से इतनी घटिया बात न कहें। और आज स्पष्ट रूप से अपनी भूल की क्षमा माँगे एवं मुझ से चिरौरी करते हुए ना जाने को कहें।
प्रत्यक्ष में बेपरवाही दिखाते हुए मैं,अपना सूटकेस तैयार करने का उपक्रम करते रही और कहा- ठीक है, बेटों की जिम्मेदारी आप रखें तो मुझे आसानी ही रहेगी। 
मेरी बात का उन पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा कंधे उचकाते हुए उन्होंने कहा - हाँ, मुझे कोई परेशानी नहीं। 
यह कह कर वॉशरूम में चले गए। तब तक बच्चे उठ गए, मैंने उनको, स्कूल के लिए तैयार किया। टिफिन लगाया और ड्राईवर के आने पर नित्य की तरह, अनवर की कार से उन्हें स्कूल भेजा।
फिर मैं, स्वयं स्नान करने गई। वस्त्र आदि पहन कर थोड़ा श्रृंगार किया। जब  बाहर आई तो देखा, अनवर किचन में चाय एवं ब्रेड बटर बना रहे थे।
मैं, ऐसा दिखाते रही कि मैं, उन्हें देख नहीं रही हूँ।
मैंने जानबूझकर उनके सामने जाने के लिए, फ्रिज से पानी की बोतल निकाली। फिर बेडरूम से अपना सूटकेस, जरूरत से ज्यादा शोर करते हुए बाहर लाई, अपनी कार की चाबी लेते हुए, सेंडिल बजाते हुए गेट खोला और बाहर निकली।
अब मेरे अभिनय ने काम किया, अनवर पीछे आये, मेरा सूटकेस छुड़ाया और कहते हुए- बेगम, क्यूँ इस गरीब जज की इज्जत का फालूदा बनाने पर तुली हो 
उन्होंने, मेरा हाथ पकड़ा और खींचकर वापिस घर के भीतर ले आये। 
मैंने प्रतिरोध नहीं किया। सोफे पर बैठकर, कॉलेज प्रिंसिपल को मोबाइल कॉल किया। अपने, अस्वस्थ होने का बहाना करके, अवकाश की स्वीकृति प्राप्त की। 
फिर अनवर से कहा- आपका मान रखते हुए, अभी जाना मैं, स्थगित कर रही हूँ लेकिन, आज रात बेडरूम में आपको, आपकी अदालत लगानी होगी, जिसमें मेरा केस सुनकर निर्णय देना होगा। आपके न्यायालय से न्याय मिलने पर ही मैं, जाने का विचार त्याग सकूँगी। अन्यथा अपना केस अन्य जज के कोर्ट में लगाऊँगी। 
कहते हुए मैं चेहरे पर यथोचित गंभीरता प्रदर्शित कर रही थी।         
अनवर एक तरह समर्पण सा करते हुए बोले- हाँ, मेरी अम्मा, जो कहोगी करूँगा लेकिन आप, दिन भर घर में ही टिके रहना।  
फिर अनवर कोर्ट चले गए। मैं दिन में, अपना पक्ष प्रभावपूर्ण तरीके से रखने की दिमागी तैयारी करते रही। बेटे स्कूल से लौटे तो उनके साथ मस्ती भी की। 
डिनर के बाद बच्चे जब सो चुके तो मैं, बेडरूम में पहुँची। अनवर ने कुछ मिनट मर्दानगी से समझौते के लिए, हिम्मत बटोरी फिर बोले - कल के लिए बेगम, मुझे क्षमा कीजिये। 
मैंने कहा - नहीं ऐसे ना होगा, आप साधारण व्यक्ति नहीं एक जज हैं। आपको जज के तरह सुनवाई करते हुए निर्णय करना होगा। 
मेरी भाव-भँगिमा से अनवर को समझ आ गया था कि उनकी, मैं प्रोफ़ेसर पत्नी ऐसे ना मानेगी तो वे जज के तरह बैठ गए और उनके कोर्ट में मैंने अपने पर अत्याचार के विरुध्द न्यायालयीन लड़ाई, यूँ लड़ना प्रारंभ किया। मैं : जज साहब, मेरे मुजरिम स्वयं आप हैं, आप जानते हैं कि आपने मुझ पर क्या ज्यादती की है। 
जज : जी हाँ, आप अपनी दलील रखिये। 
मैं : जज साहब, एक लड़की विवाह होने के बाद, अपने मायके से विदा की जाती है इससे स्पष्ट होता है कि पीहर का घर उसका नहीं होता है। 
जज : हाँ, यह परंपरा से माना जाता है, आगे कहिये। 
मैं : जज साहब, तब ऐसे वह लड़की, अपने पति के घर को अपना मानती है। इसे आप सहमत करते हैं।   
जज : जी हाँ, स्पष्ट कहें, आप सिध्द क्या करना चाहती हैं। 
मैं : किसी असहमति या किसी विवाद के कारण ऐसे में, कोई पति यदि पत्नी पर क्रोधित होता है तो वह पत्नी को घर से निकलने क्यों कहता है? जब, आप सहमत करते हैं कि ब्याह होकर आई लड़की का, यही घर उसका अपना होता है तो, किसी विवाद के कारण पति को यदि साथ नहीं रहना हो तो पत्नी ही घर से परित्यक्ता बतौर क्यों निकाले जानी चाहिए? क्या, न्याय यह नहीं कि, ऐसी स्थिति बनने पर खुद पति, घर से परित्यक्त हो?
जज : (कुछ समय सोचने के उपरांत) आपकी दलील, न्यायोचित है, मैं अनुशंसा करूँगा कि सरकार, संशोधन बिल लाकर, संविधान में ऐसा प्रावधान करे। 
मैं : धन्यवाद जज साहब, अब आप मेरे मुजरिम के लिए, दंड निर्धारित करने की कृपा करे। 
जज (आदेशात्मक स्वर में) : संवैधानिक प्रावधानों से विलग, यह अदालत मुजरिम को चेतावनी देती है कि वह पत्नी पर ऐसे अत्याचार से बाज आये। भविष्य में यदि ऐसी अप्रिय परिस्थिति बनती है तो पत्नी को घर से निकालने की जगह वह, स्वयं घर से निकले। साथ ही यह भी आदेश करती है कि मुजरिम, कल रात की भूल के लिए पत्नी से क्षमा माँगते हुए अपना शपथ पत्र, इस अदालत में जमा करे। नाउ, कोर्ट इज अड्जॉर्नेड!
तदुपरांत अनवर ने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया कहा - मेरी इंटेलीजेंट वाइफ, तुम्हें साथ पाकर मैं धन्य हूँ। तुम्हें प्रोफेसर की जगह लॉयर होने पर विचार करना चाहिए। 
तब मैंने अपनी बड़ी बड़ी अँखियों को, प्रेम से सराबोर करते हुए, अनवर को निहारा और उन्हें मोहित कर लिया .. 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
20-06-2020

  
   


Thursday, June 18, 2020

सामाजिक सरोकार ..

सामाजिक सरोकार ..

बात छोटी भी है ध्यान दिया जाए तो बड़ी भी है। मैंने ऐच्छिक सेवा निवृत्ति ग्रहण की है। प्रदत्त मोबाइल सिम विभागीय समूह से हटाया जाना नियम है। जबकि मेरे द्वारा प्रयोग किया जा रहा नंबर, मेरे परिचितों के कांटेक्ट लिस्ट में  होने से मुझे इसे जारी रखना था।
इस संबंध में #BSNL कार्यालय में औपचरिकतायें एवं डिपॉज़िट करके प्रीपेड सिम लेनी थी। कोरोना के समय में, मैं बहुत जरूरी होने पर ही घर से बाहर निकल रहा हूँ ताकि मैं, अनावश्यक भीड़ न बनूँ।
कल जब कुछ जरूरी काम इकट्ठे हुए तो मैं, घर से निकला था।  BSNL कार्यालय जाते हुए लगभग चार बजे का समय हो गया।
वैरिफिकेशन, डाक्यूमेंट्स पूर्ति, पहले के आउटस्टैंडिंग जाँच के लिए अलग अलग 4 स्टाफ, इनवॉल्वड था। सभी ने एक वरिष्ठ व्यक्ति का आदर देते हुए, मेरा काम तत्परता से किया। तब भी सिम.डिपॉज़िट काउंटर पर आते 4.35 का समय हो गया। कतार में तीन व्यक्ति आगे थे। 4.40 पर काउंटर के स्टाफ ने समय खत्म हुआ है आज काम नहीं हो सकेगा असर्मथता दिखाई तो हम तीनों कतार से हट गए। तब उन्होंने मुझे रोकते हुए कहा आप रुकिए, आपका काम जल्दी हो सकने वाला है। कहते हुए उन्होंने, आवश्यक प्रविष्टियाँ की-इन की और  डिपॉज़िट लेते हुए, मुझे सिम प्रदान की।
मैंने अनुग्रह से धन्यवाद कहते हुए, उन्हें बताया कि आजकल मैं, घर से बहुत जरूरी होने पर ही निकल रहा हूँ। उन्होंने कहा- जी, इसे मैं समझ रहा हूँ। मेरे पास टाइम कंस्ट्रेंट है। मुझे डिपॉज़िट, बैंक में जमा करना है। इसलिए निर्धारित समय तक ही काम कर सकता हूँ।
मेरा यह लिखने का आशय यह है कि वरिष्ठ नागरिकों पर, कोरोना खतरा ज्यादा देखते हुए BSNL के स्टाफ द्वारा जो अतिरिक्त सहयोग दिया जा रहा है, वह अपनी सेवाओं के साथ ही, उनके सामाजिक सरोकार का निभाया जाना प्रदर्शित करता है।
ऐसे ही, हम अपने हितों का ध्यान रखते हुए यदि, अपने व्यवसाय/सेवाओं में सामाजिक सरोकार सम्मिलित करें तो, हमारा समाज उत्कृष्ट समाज बनता है, जिसमें कोरोना तरह के खतरों से भी सफलता पूर्वक निबटा जा सकता है। 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन


19-06-2020

Tuesday, June 16, 2020

सीता जैसी (2) ...

सीता जैसी (2) ...

मैं सत्रह वर्षों बाद ससुराल वापिस आ गई। जिसे ससुराल कहना ठीक नहीं, मेरा घर कहना ठीक होगा। अब, घर की मालकिन मैं थी। अब, पति की दो बेटियाँ एवं पति, घर में मेरे आश्रित थे। बड़ी बेटी 12 एवं छोटी 9 की थी।
छोटी, पापा से बोली थी- ये, हमारी मम्मी नहीं हैं।
पतिदेव का धर्मसंकट, मैंने दूर किया, मैं छोटी से बोली - हाँ, मैं तुम्हारी मम्मी नहीं हूँ।
 तब बड़ी ने पूछा - फिर हम, आपको क्या बोलें?
 मैंने प्यार से पूछा - स्कूल में, आप टीचर को क्या कहती हो?
 वह बोली- मेम !
मैंने कहा- आप दोनों, मुझे भी मेम कहो, मैं आप दोनों को स्टडीज़ में गाइड करुँगी।
कम उम्र के बच्चे थे। मैं, उनसे, प्यार एवं आदर से बात करती, उनकी जरूरतों का एवं खाने को मनपसंद बनाती, उन्हें पढ़ाती, उनकी कठिनाई दूर करती, इनसे वे मुझे चाहने लगीं। मैंने उनके मन में बसी उनकी माँ को भी रहने दिया था। वे मुझे, मेम कहतीं और खुश रहती थीं।
मैं गाँव के स्कूल में, इसी उम्र के बच्चों को पढ़ाती रही थी। मुझे, थोड़ी मुश्किल, उनका अँग्रेजी माध्यम था लेकिन इसे मैंने, अपने लिए इंग्लिश पर दखल बढ़ाने का अवसर माना था। 
पतिदेव काम पर और बेटियाँ स्कूल जा चुकतीं तब मैं, इंग्लिश पढ़ा करती। छोटे बच्चों के सामने, वीक इंग्लिश में भी मुझे हिच नहीं होती। बल्कि उनके, बोलने से मेरी स्पीकिंग इंग्लिश की प्रैक्टिस होती थी।     
एक रात दबे स्वर में पतिदेव ने मुझसे पूछा- तुम कहो तो मैं ऑपरेशन रिवर्स करवा लूँ ? 
मैंने आशय समझा उत्तर दिया - नहीं, परिवार में दो से अधिक बच्चे ठीक नहीं। 
मेरे संक्षिप्त उत्तर ने जैसे उनके सीने पर रखा बड़ा बोझ हटा दिया। वे तुरंत ही मानसिक रूप से तनाव मुक्त दिखाई दिए। वापसी के चार महीने में ही हम चारों सदस्यों के बीच, पारिवारिक प्रेम एवं विश्वास निर्मित हो गया।
एक रात अनुग्रह के स्वर में इन्होंने मुझसे कहा - मैं गाँव पहुँचा था तब मेरे दिमाग में बहुत से डर थे, तुम साथ आईं, तुमने एहसान किया। यहाँ बच्चों को प्यार से अपना लिया। अपने खुद के बच्चे की कामना नहीं की।
मुझे, अपनी प्रशंसा नहीं सुननी थी, मैंने बीच में टोक दिया - हम कोई निर्णय करते हैं कुछ लोगों की दृष्टि में वह सही, कुछ की दृष्टि में गलत होता है। यह हम पर होता है कि हम ऐसा करें कि, भविष्य को लेकर किया हमारा वह निर्णय कालांतर में सही सिद्ध हो। यह बात, मैंने आपके साथ लौटते हुए ट्रेन में ही तय की थी कि मैं, हमारे निर्णय को, गलत सिद्ध ना होने दूँगी।
इस पर वह कुछ कहना चाहते थे। मैंने उन्हें रोकते हुए कहा था - जी, कुछ न कहिये। जो भी है हमें कह कर नहीं, कर के दिखाना है।
स्पष्ट था कि 17 साल पहले की, उनकी मुझ पर हावी (डामनैटिंग) होने की प्रवृत्ति, अब नहीं रही थी।
यूँ तो मोबाइल पर बातें होती रहीं थीं मगर जब मुझे तीन वर्ष वापिस आये हो गए तो, गाँव से माँ-बापू यह सुनिश्चित करने आये कि मैं वास्तव में खुश हूँ या नहीं?
पतिदेव उनकी आवभगत करते बहुत खुश हुए। सच ही कहा जाता है कि पत्नी यदि पति का दिल जीतती है तो पति के मन में, पत्नी के मायके वालों का आदर हो जाता है।
उन्हीं दिनों में, एक दोपहर घर में जब, माँ-बापू एवं मैं ही थे। तब बापू बोले - बेटी, मैं चकित था, जब दामाद जी, तुम्हें वापिस लेने आये और तुमने साथ आना सहमत किया था।
उत्तर में तब मैंने बताया कि - बापू, इन्होंने मेरा परित्याग अवश्य किया था लेकिन उसके पहले, डेढ़ वर्ष के साथ में इन्होंने, ना कभी मुझ पर हाथ उठाया था, ना ही कभी नशे में घर लौटे थे। युवावस्था वाली गरमी में जरूर इन्होंने, मुझे परित्याग कर, बड़ी भूल की थी। जब ये मुझे लेने आये तो, दूसरी पत्नी के बाद, इनके पास तीसरी कर लेने के विकल्प थे, लेकिन यह लौटे मेरे लिए थे। इन तथ्यों से मुझे आशा थी कि इनका साथ देना, मेरी भूल, सिध्द नहीं होगी। ऐसा हुआ भी है। बल्कि मेरी बिना मान मनौव्वल की हाँ, इन्हें, स्वयं पर आभार सी लगी और तब से इन्होंने, हमारे हर मामलों में, मेरी इक्छाओं का पूरा ध्यान रखा है। 
माँ-बापू 20 दिन रहकर जब लौट रहे थे तब अत्यंत ही संतुष्ट और जितना पहले कभी, मैंने नहीं देखा था, उतने प्रसन्न थे।
फिर बच्चे बड़े हो गए कक्षा 12 एवं 9 में आ गए। उन्हें गाइड करते हुए, मेरा अँग्रेजी पर अधिकार भी बढ़ गया। अवकाश वाले एक दिन मैंने, पतिदेव से नारी सशक्तिकरण वाले संगठन को ज्वाइन करने की अनुमति माँगी जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकृत कर दिया।
मुझे, उसमें दो साल हो गए तब एक कॉन्फ्रेंस में, स्पीच का अवसर मिला। अपने संबोधन में, मैंने कहा कि
"नारी सशक्तिकरण के अपने प्रयासों में हम, अपने पूर्वाग्रह अलग नहीं कर पाते हैं। मैं मानती हूँ कि पुरुष हम पर ज्यादती करते हैं लेकिन अधिकाँश प्रकरण में उनके अत्याचार में, हम नारी में से ही किसी का उन्हें, साथ-सहयोग मिलता है। उदाहरण के लिए, कोई नारी परित्यक्ता कब होती है? जब पुरुष को उसके विकल्प में कोई अन्य नारी, पत्नी के रूप में उपलब्ध होती है। हमें, पुरुष के ऐसे अत्याचार मिटाने हैं तो उस पुरुष की दूसरी पत्नी नहीं होना चाहिए जिसने डिवोर्स के माध्यम से, पहली पत्नी को छोड़ा होता है।"
मेरी स्पीच के बाद ऑडियंस में तालियाँ बजी थी। संगठन अध्यक्षा ने मेरे कथनों को, 'अलग नज़रिया' निरूपित करते हुए, अनुमोदित किया था।   
ऐसे मेरी पहचान एवं स्वीकार्यता सशक्तिकरण संगठन में बनी।
मेरे लौटने के बाद, 15 वर्ष फिर बीत गए थे। तब दुःखद रूप से, छह माह के अंतराल में पहले मेरी माँ, फिर बापू नहीं रहे थे। मुझे इस बात का संतोष था कि यदि मैं पति के साथ नहीं लौटी होती तो देहांत के समय, उन दोनों के हृदय में मेरे भविष्य को आशंकायें रहतीं।
हमने इस बीच ही दोनों बेटियों के बारी बारी विवाह कर दिये थे। इस समय तक मैं उनकी मेम से मम्मी बन चुकी थी। मुझे या उन्हें, अब लगता नहीं था कि वे मेरी जाई नहीं हैं।
अब घर में हम दो ही रह गए थे। मुझे खाली समय होता था। मुझे नारी सशक्तिकरण में अध्यक्ष चुना गया, यह जिम्मेदारी मैंने मंजूर कर ली।  उस अवसर पर मेरे भाषण में मैंने कहा -
"निशंक रूप से, पुरुष में बुराइयाँ होती हैं लेकिन हमें, इसे अपनी कमी के रूप में देखना चाहिए कि हममें वह बौद्धिक सामर्थ्य क्यों नहीं कि, अपने कर्म-व्यवहार से उन्हें, उनकी बुराई का अहसास करा सकें। हम बुराई का विरोध अवश्य करें लेकिन साथ ही अपने में, वह बौध्दिक चातुर्य भी लायें, जिसके होने से, हम पुरुष के अवगुण दूर कर सकें, उनमें, उनके गुणों के साथ जीवन यापन करने की, समझ विकसित कर सकें।"
मुझे कहना न होगा कि श्रोताओं की क्या प्रतिक्रिया रही।
ऐसे मुझे कोई पछतावा नहीं रहा कि मैंने, अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता खोकर, वापिस पति पर निर्भर हो जाना चुना था।
फिर मैं 61 वर्ष की हुई, हमारे विवाह को 42 वर्ष हुए, तब पतिदेव ने मैरिज सिल्वर जुबली (हम 17 वर्ष अलग रहे थे) आयोजित की। इस अवसर पर अतिथियों, जिनमें हमारे संगठन की सदस्यों के परिवार भी थे, के समक्ष, निः संकोच उन्होंने कहा कि -
"हम पुरुष, व्यर्थ दंभ पालते हैं कि अपनी पत्नी की ज़िंदगी हम बनाते हैं। मैं वह भाग्यशाली पति हूँ (कहते हुए फिर, मेरी तरफ इशारा किया) , जिसकी ज़िंदगी, मेरी इन पत्नी महोदया के द्वारा बनाई गई है, बनाई ही नहीं उत्कृष्ट बनाई गई है ".. 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
16-06-2020