Friday, February 28, 2020

अखरेगी बात मगर हम दिल को समझा लेंगे कि
जिन्हें कद्र नहीं हमारी उनके साथ चलना क्यूँ हो 

Wednesday, February 26, 2020

सोशल ईक्वलिब्रीअम ..

किसे हम सभ्यता की परिभाषा कहें ? .. 

मैंने मिलावट सामग्री विक्रय करके ज्यादा मुनाफा कमाया।
फिर मेरी बाइक ख़राब हुई, सुधारने वाले जितनी खराबी नहीं थी, उससे ज्यादा खराबी बताई और ज्यादा मुनाफा कमाया।
बाइक वाले का टीवी ख़राब हुआ, सुधारने के लिए जितने पार्ट्स ख़राब नहीं थे, उससे ज्यादा कीमत बता कर बाइक वाले से ज्यादा मुनाफा कमाया।
टीवी वाले का बेटा कम मार्क्स लाया था, कॉलेज में एडमिशन देने के लिए, प्राइवेट कॉलेज ने ज्यादा महँगी फीस वसूल कर ज्यादा मुनाफा कमाया।
फिर कॉलेज ओनर की पत्नी बीमार हुई, वह हॉस्पिटल में भर्ती की गई, वहाँ डॉक्टर्स ने अकारण महँगी दवायें और परीक्षण करवा कर ज्यादा मुनाफा कमाया।
डॉक्टर्स फल/अनाज/दूध और अन्य खाद्य लेने मार्केट गये, उन्होंने मुझ जैसे विक्रेता से मिलावटी सामग्री खरीदी और मुहमें झे ज्यादा मुनाफा दिया।
अर्थात हमने अपने अपने लिए खींचातानी करते हुए एक संतुलन बनाया जिससे समाज जिसमें छल व्याप्त हुआ।
एक अन्य परिदृश्य -
मैंने शुध्द खाद्य समाग्री विक्रय की, क्रयकर्ता ने मेरी तय कीमत से, पचास रूपये ज्यादा देते हुए कहा रखिये, आपके बाल-बच्चे परिवार है।
मेरी बाइक ख़राब हुई, सुधारने वाले ने मेहनत से सुधारी, दाम बताये, मैंने पचास रूपये ज्यादा देते हुए कहा रखिये, आपके बाल-बच्चे परिवार है।
बाइक वाले का टीवी ख़राब हुआ, रिपेयर्स के सही दाम लगाये, बाइक वाले ने पचास रूपये ज्यादा देते हुए कहा रखिये, आपके बाल-बच्चे परिवार है।
टीवी वाले का बेटा कम मार्क्स लाया था, प्राइवेट कॉलेज ने यथोचित फीस लेकर एडमिशन दिया, कहा ऐसे बच्चों की उचित शिक्षा हमारा दायित्व है।
कॉलेज ओनर की पत्नी बीमार हुई, उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करवाया, अच्छा और उचित कीमत पर उपचार और दवायें दीं गईं, उसने हॉस्पिटल को दान देना चाहा, उसे अस्वीकार करते हुए कहा गया, हमें, ईश्वर ने सभी का 'स्वास्थ्य रक्षक दूत' नियुक्त किया है
डॉक्टर्स हमारे पास फल/अनाज/दूध और अन्य खाद्य सामग्री खरीदने आये, हमने पौष्टिक और गुणवत्ता वाली ताज़ी सामग्री उन्हें विक्रित की, डॉक्टर्स खुश हो, अतिरक्त कीमत देने की पेशकश करते, हम कहते आपके बाल बच्चों को वही पौष्टिकता चाहिए जो हमारे बच्चों को चाहिए।
हमारे परस्पर देने की भावना से एक संतुलन हमने बनाया जिसमें समाज जिसमें सौहार्द्र व्याप्त हुआ।
हम बतायें, कौनसा विकल्प हमें उचित लगता है - 'सोशल ईक्वलिब्रीअम' दोनों ही तरह से बनता है। 


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22.02.2020





Monday, February 24, 2020

पाने के लिए छोटा है जीवन मगर
खोने को कुछ विशेष होता नहीं
जो खोता पुनः खोने के लिए उसे
अगले जन्म में फिर पा लेता उसे

Sunday, February 23, 2020

जीवन से सीखे हैं हमने ये शब्द लिखना कहना
शब्दों से सँवर जाए कोई जीवन तो सीखा कहना

Saturday, February 22, 2020

अगर हम, अपने आसपास या साथ गुजर रहे,
श्रेष्ठ व्यक्ति की अनुमोदना नहीं करते हैं
तो अनायास ही हम
आदर्श के हतोत्साहन के दोषी होते हैं

शीतल की वापिसी ...

शीतल की वापिसी ...

शीतल के घर से निराश लौटते समय, 'दिनाँक 20 फरवरी 2019 है', यह मैंने स्मरण कर ली थी। तब से मुझे प्रतीक्षा करनी थी, 20.02.2020 की जबकि मैं, दीप एवं शीतल को वापिस, अपने घर ला सकूँ। मैं तब बुरी तरह आशंकित भी था कि 1 वर्ष बड़ा समय होता है, जिसमें कुछ भी भला-बुरा घट सकता है। ना जाने, इस बीच क्या अप्रिय हो जाए, कुछ नहीं कह सकते।
ईश्वर का, धन्यवाद करूँगा, यह समय ठीकठाक बीत गया था। यध्यपि बीच-बीच मैं कमजोर पड़ा था, अनेक बार मैंने, शीतल से मोबाइल पर बात करनी चाही थी। व्हाट्सएप संदेश किये थे, किंतु शीतल ने अपने व्यवहार से मुझे इस हेतु हतोत्साहित कर दिया था। वह संदेशों का कोई रिप्लाई नहीं करती, कॉल रिसीव नहीं करती अपितु भाई के द्वारा रिंग बैक करवा देती, जो मुझे बताता की दीदी बात नहीं कर सकेगी।
दो बार मैं उसके घर भी गया मगर मुझे दरवाजे से लौटना पड़ा। घर का कोई और सदस्य दरवाजे पर ही, मुझे कहता कि यदि शीतल से मैं, अभी मिला तो एक वर्ष की प्रतीक्षा की गणना, तब से बदल जायेगी। अर्थात मेरी प्रतीक्षा अवधि और बढ़ जाएगी, भय और मानसिक पीड़ा लिए, दीप और शीतल को देखे बिना दोनों बार मुझे लौटना पड़ा था। 

शीतल का यह ऐटिटूड, मुझे आहत करता मगर मेरा मन, उसके दृढ निश्चय की प्रशंसा भी करता कि, शीतल की जगह जबकि कोई और होता तो 'शायद उसे भय होता कि मैं उससे निराश होकर किसी और से कोई संबंध कर सकता हूँ'।
शीतल के तरफ से संदेश बिलकुल स्पष्ट था कि मैं उसकी निर्धारित कसौटी पर खरा रहूँ, तब तो मैं उसे स्वीकार्य रहूँगा अन्यथा उसकी मुझ में कोई रूचि नहीं रहेगी। 
परसों 20 फरवरी 2020 को, मैंने शीतल को कॉल किया। उसने एक वर्ष में पहली बार मेरा कॉल लिया। मैंने सामान्य शिष्टाचार के बाद, उसे स्मरण कराया तो उसने 22 फरवरी को अपने मायके और मेरे परिवार के सभी सदस्य को रामटेक तीर्थ स्थान में मिलना तय किया।
तय अनुसार मैं अपने मम्मी, पापा, बहिन, जीजू सहित रामटेक पहुँचा हूँ। कॉल करने पर पता चला है, 15 मिनटों में शीतल भी सपरिवार पहुँचने वाली है। मुझे 15 मिनट का समय भी पहाड़ सा लगा है। 
वे सभी, अब पहुँच गए हैं। परस्पर अभिवादन के साथ हम गर्मजोशी से मिल रहे हैं। दीप में एक वर्ष में बहुत बदलाव हुआ है। मैंने उसे गोदी लेने का प्रयास किया, तो उसने ना कह कर मुहँ मोड़ लिया और, अपने नाना के कंधे में मुहँ छुपा लिया है।
मुझे समझ आ गया है कि अपनी मूर्खता में, मैंने क्या मिस किया है। दीप के लिए मैं, उसका पापा भी अजनबी हो गया हूँ। एक साल की उसकी सुखद बढ़त का साक्षी होने से, मैं वंचित रहा हूँ।
मेरी दीदी ने तब मेरा हाथ दबा पूछा है- कहाँ खो गए तुम, जिससे मेरी तंद्रा टूटी है। परिवार व्दय ने तब जिनालय में दर्शन किये हैं। फिर जलपान पश्चात, विश्रामगृह के एक हॉल में बिछे गद्दों पर सबने आसन ग्रहण किया है। अब हम सभी के बीच वार्तालाप होना है। मैं, किस तरह से अपनी बातें रखूँ इस उधेड़बुन में हूँ।
दीदी सबसे कह रही हैं, हमने पिछले वर्ष में अपनी भूल शिद्द्त से अनुभव कीं हैं। अब हम विश्वास दिलाते हैं कि शीतल को कभी कोई शिकायत का अवसर नहीं होगा। उसे हमारे परिवार में लौट आना चाहिए, हमारा परिवार और घर, उसका ही अपना है।
इतना कहने के बाद दीदी शीतल से कहती है, शीतल तुम क्या कहती हो?
शीतल, दीप को अपनी गोदी से भाई को सौंपती है। जो दीप को बाहर घूमने ले जाता है।
तब शीतल कहना आरंभ करती है-
यह समाज, नारी के लिए कितनी चुनौतियों का है, इसकी कटुता मैंने पिछले कुछ वर्षों में अनुभव की है। मेरे, आप सभी के द्वारा हुए, अपमान का जिक्र, दोहराना उचित नहीं। अन्य में, प्रमुख बातें, मैं बताती हूँ।
ज्योंही आसपास परिचितों में मेरा परित्यक्ता होना ज्ञात हुआ, मेरे इर्द गिर्द रंगीन तबियत लोगों की कामुक नज़रें होना देख, मेरा स्वाभिमान आहत होता था। इस बीच पुर्नविवाह के हमारे घर, कुछ प्रस्ताव आये।
तीन प्रस्तावों से तो मुझे हैरत हुई कि वे पचास से अधिक आयु के पुरुषों के थे, जबकि मैं बत्तीस की हूँ। यह सब मैं उल्लेख इसलिए कर रही हूँ कि अब, जब मैं आप पर विश्वास कर लौटूँ, तो मुझे इस मुश्किल में फिर कभी ना छोड़ना।
मैंने इन फुसलाते पुरुष इरादों को सफल न होने देते हुए पिछले वर्ष में, आर्थिक उपार्जन की योग्यता अर्जित की है। मैं अपने पापा पर अतिरिक्त भार न डालते हुए, पिछले कुछ महीनों से 25 हजार रूपये कमा लेती हूँ, जो मेरे और दीप के लिए पर्याप्त है।
आज मैं आपके साथ चलूँ तो आप सोच लीजिये कि कहीं आज के मेरे कंफर्ट जोन से निकाल, इससे बेहतर मेरे लिए आदर परिवेश न देकर, कल आप, क्या मुझे नई चुनौतियों से फिर, अकेली जूझने तो नहीं छोड़ेंगे? कहते हुए प्रश्नवाचक उसकी निगाहें मुझ पर टिक गईं हैं।
परिवार के सभी सदस्य तन्मय हमें सुन रहे हैं, यह मैं अनुभव करता हूँ। कुछ मिनट अपने को सहज करने में लेता हूँ फिर मैं कहता हूँ-
कहते हैं, बुरा भी कोई होता है, वह किसी अच्छे के मिलने पर उसके साथ अच्छा ही बर्ताव करता है। मुझे यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि मैं, उस बुरे से भी बुरा व्यक्ति रहा हूँ, जो अच्छी-भली शीतल के साथ बुरा होकर पेश आता रहा। 
हमारे घर में, शीतल को मेरी माँ से, दहेज को लेकर उलाहने मिले। उसके लिए मम्मी का दोष नहीं, पुत्रमोह में उनके ऐसा करने को विवश होने का कारण मैं हूँ। मैंने उम्र के साथ पर्याप्त न कमा सकने के कारण, उन पर आर्थिक दबाव, इस कदर बढ़ा दिया कि वे मेरी ससुराल से ऐसी अपेक्षा करने लगीं थीं।     
शीतल के दिए सबक को अन्यथा नहीं लेते हुए, मैंने इसे सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण किया। मैंने स्वयं को अब ज्यादा जिम्मेदार बनाया है। अब में परिवार को सहज सुविधा, मुहैय्या करा सकने जितना अर्न करने लगा हूँ। शीतल, वापिस लौटने पर, घर में और मुझमें, यह बदलाव स्वयं अनुभव कर सकेगी।
शीतल की उल्लेखित शंकायें स्वाभाविक हैं, वह दूध की जली है, छाछ भी फूँक कर पीती है। हमारे बीच हुई बातों से, समाज में क्षोभनीय तथा जगहँसाई की स्थिति के लिए, उसका कोई दोष नहीं। सारा दोष मैं अपना मानता हूँ।
उससे विवाह पश्चात मै भूल गया था कि मेरा जब, कहीं संबंध नहीं हो सक रहा था, तब मैं ही शीतल के साथ विवाह को मरा जा रहा था। मै ही उसे सारे झूठे वचन देकर परिणय सूत्र में बाँध, अपने घर ले गया था।
बेटी जन्मने पर उससे इस तरह पेश आया, जैसे बेटी पैदा करना कोई उसका कसूर हो। जबकि संतान बेटी या बेटा होगा उसके निर्धारण में भूमिका पति की होती है। यह विज्ञान पुष्ट सत्य है।
मैं यह भी अपना दोष मानता हूँ कि मैंने बेटी को बेटे से हीन मानने की भ्राँत धारणा को अपने मन में स्थान दिया और शीतल से बदसलूकी से पेश आकर उसके स्वाभिमान को आहत किया। जबकि परिवार और समाज में पत्नी को सम्मान और सुरक्षा का स्थान मिले, यह उत्तर दायित्व पति का होता है।
मेरी दीदी रूपवान है, जब वे हमारे घर आतीं तो शीतल को लेकर, मेरी झूठी बातों के प्रभाव में, उसकी सुंदरता को लेकर उलाहने कर देतीं। पिछले वर्ष में, जब मैंने उन्हें, शीतल को लेकर वस्तु स्थिति बताई तो वे भी शीतल के गुणों पर मुग्ध हैं। 
अब वे कहतीं हैं, किसी दांपत्यसूत्र का सुखद होना गुणों से सुनिश्चित होता है। रूप का होना नहीं होना लंबे साथ में गौड़ हो जाता है। कम ही युवतियाँ, इस दृष्टि से शीतल से ज्यादा गुणी होतीं हैं। और ऐसे में, शीतल का पति होने से आज स्वीकार करता हूँ, कि मैं अत्यंत भाग्यशाली हूँ।
चरित्र को लेकर भी शीतल की प्रशंसा करता हूँ। वास्तव में जहाँ कोई बात भी नहीं वहाँ भी शंका करना, हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति के स्वभाव में आ जाता है। मुझ में तब कई बातों को लेकर हीन भावना थी। जिन्हें पिछले एक वर्ष के मिले सबक से सीखते हुए मैंने दूर कर लेने में सफलता पाई है।

अंत में यह कहूँगा पिछले वर्ष जिन्हें, सुख अनुभव करते हुए बिताया जा सकता था, उस अनमोल समय को मेरी मूर्खता ने व्यर्थ किया है। मुझे अत्यंत पछतावा है कि हमारे जीवन में बेशकीमती कुछ वर्ष अनावश्यक कलह में बीत गए, जिन्हें कुछ भी करलें लौटा लाना संभव नहीं है।  
वस्तुतः हमारे जीवन के हरेक पल, हमारे ही होते हैं, यदि मैं विवेकवान होता तो उनका उपयोग सभी संबंधितों एवं स्वयं के लिए, सुखद बना सकता था। 
शीतल एवं दीप से एक वर्ष की दूरी जिसमें हमने परस्पर सानिध्य से मिल सकने वाली खुशियों से स्वयं को एवं सभी को, वंचित किया उसमे भी दोष मेरा ही है।    
जो थोड़ी अच्छाई इस समय की रही है, वह यह है कि मैंने इस बीच अच्छी संगति की, जिससे मै मानवोचित गुणों को पुनः प्राप्त कर सका हूँ।
अब विश्वास दिलाता हूँ कि पिछले वर्षों के साथ में जिन पलों की खुशियों को हमने खोया किया है उसकी भरपाई हेतु अपनी किसी मूर्खता में एक भी पल ख़राब नहीं होने दूँगा। हमारे जीवन के आगामी हर पल में मधुर साथ की ख़ुशी घोलूँगा। 
कहते हुए मैं शीतल के सम्मुख घुटने के बल खड़े हो, उसके दोनों हाथ अपने हाथ में कोमलता से लेता हूँ और पूछता हूँ-
शीतल क्या तुम मेरे बदले रूप पर भरोसा करती हो? क्या आज मेरे साथ अपने घर में वापिस चल सकोगी?
शीतल सबके समक्ष की मेरी अदा से लजा जाती है। सिर्फ मुस्कुरा देती है।
आज का शेष समय, फिर हम दोनों परिवार ने किसी पिकनिक जैसे बिताया है।  इसमें मैंने दीप का भी विश्वास जीता है।
शाम हम सब रामटेक से लौट रहे हैं। शीतल, दीप और मैं अलग कैब में हूँ।  मेरा मन
जागी आँखों के सुनहरे सपनों में, ऐसे, यूँ, उत्तेजना अनुभव कर रहा है, जैसे कोई दूल्हा, नवविवाहिता पत्नी को विदा कर अपने घर लिवा ले जा रहा हो।
दीप मेरी गोद में बैठ, चलती कार से बाहर देखते हुए खुश है।
शीतल के मुख पर मगर, संशय का दर्शन हो रहा है - वह शायद सोच रही है आज की वापिसी पर उसे कभी पछताना तो न पड़ेगा! .... 

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22.02.2020
  



Friday, February 21, 2020

ज़िंदगी! ...

ज़िंदगी! ... 

तू थी तो कुछ आशायें थी न रही तो आशा कहाँ रही और न रही तो निराशा कुछ होना नहीं तू थी तो कुछ खुशियों की दरकार थीतू रही तो ग़मगीन किसे होना रहातू थी तो कुछ मंजिलें तय कीं थींतू न रही तो मुसाफिर को पहुँचना कहाँ रहातू थी तो अरबों में एक हम भी थे तू नहीं तो अरबों को कुछ होना नहीं तू थी तो समय हमारा भी था तू नहीं फिर भी समय को चलना ही था तू थी तो अच्छाइयाँ हमें जीनी थींतू नहीं तो अच्छाई का बिगड़ना क्या था तू थी तो कुछ बोल मेरे होते थे तू नहीं तो भी बोल तो रहने ही थे तू थी तो ये झरने, पर्वत दिखते थे तू नहीं तो भी इन्हें होना ही थातू थी तो जीवन में बसंत देखते थे तू नहीं फिर भी बसंत लौट लौट आने थे तू थी तो किन्हीं आँखों के अश्रु पोंछ देते थे नहीं तू तो खुद रोने वाले ने पोंछ लेने थे तू थी तो मेरी कल्पना की उड़ानें थींनहीं तू तो क्या! कल्पना साकार कहाँ होनी थीं तू थी तो हमारे लिए पहेली थी नहीं तू तो हल ढूँढने की उत्सुकता नहीं तू थी तो हमारी एक आकृति थी तू नहीं तो निराकार सही मगर अब भी तो हम हैं

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22.02.2020

ज़िंदगी समझ लिया तुझको
जीने की विशेष कोई चाह न रही
ज़िंदगी बनी अनुसंधान मेरा कि
कैसे वे जियें, जिनके तू जीने लायक न रही

Wednesday, February 19, 2020

शीतल, वापिस नहीं आई ..

शीतल, वापिस नहीं आई ..  

सुबह जिनालय दर्शन को गया फिर घर वापिस आया था। मैंने पहले पापा, मम्मी फिर मोबाइल पर बहन को अपना निश्चय बताते हुए, साथ, शीतल के घर चलने कहा था।
महीने भर से हमारे बीच रहे अलगाव के कारण, मेरे से ज्यादा ग्लानि और शर्मिन्दगीं उनको थी। इससे वे साथ चलने को कतरा रहे थे।
उनकी हिचक देख मैं अकेला शीतल के घर के लिए बाइक पर निकला हूँ।
मैं रास्ते भर एब्सेंट माइंड बाइक चलाते आया हूँ। मेरे दिमाग में यह आशंका चलती रही है कि ससुराल वाले और शीतल मेरे साथ जैसा उचित है, कहीं वैसा दुर्व्यवहार न करें।
शीतल के घर की कॉल बेल पर अँगुली रखते हुए मेरे हृदय की धड़कन तीव्र हो गईं हैं।
दरवाजा शीतल के पापा ने खोला है, मुझे देख वे चकित हुए हैं। उन्होंने, अंदर आने की जगह करते हुए मुझे कहा है- आओ, दामाद जी!
उनके चेहरे पर मेरे आशा के विपरीत शांत भाव दर्शित हैं। मै, झुककर उनके चरण स्पर्श करता हूँ, औपचरिकता में कहता हूँ, पापा, (यही संबोधन पहले से करता आया हूँ)  कैसे हैं आप?
उन्होंने क्या उत्तर दिया अनसुना करता हूँ, अंदर आते ही मेरी दृष्टि, चटाई पर शीतल बैठी शीतल पर पड़ती है, मुझे घर आया देख उसके मुख पर अचरज के भाव आते हैं, वह सिर हिला कर अभिवादन करती है, फिर मेरी तरफ से उदासीन अपने काम में लगती है।
वह हाथ मशीन से कपड़े पीको कर रही है, साथ ही दीप को फीड़िंग भी कराती जा रही है।
मुझे शीतल और दीप पर प्यार हो आया है। अगर, पापा नहीं होते तो दोनों को सीने से लगा लेता। अपने को रोकता हूँ।  उसका अभिवादन करना, मुझे अच्छा लगता है मगर मुझसे उदासीन भँगिमा, अखरती है।   
आज मैं क्षमा याचक भाव लिए यहाँ आया हूँ। पापा एवं शीतल का रवैया, मेरे किये की तुलना में अत्यंत विनम्र कहा जायेगा।
मैं, छोटे कमरे में रखे सोफे की एक कुर्सी पर बैठता हूँ। बाजू में पापा बैठते हैं। यहाँ की आहट मिलने पर अंदर से मम्मी आती हैं। मुझे देख कुछ झल्लाई मुखमुद्रा दिखती है। वे सामने बैठती हैं। मैं उठकर उनके चरण छूता हूँ। वे, आदत अनुसार - खुश रहो कहती हैं। मैं वापिस बैठता हूँ।  

अब तक का सिलसिला आशा से अच्छा रहा है। मुझे लग रहा है, ऐसे में मैं सहज अपनी क्षमा याचना उनके समक्ष रख सकूँगा।
मैं हाथ जोड़ कहता हूँ, वैसे मेरा किया क्षम्य नहीं है, लेकिन कृपया मुझे क्षमा कीजिये। मैं शीतल से मिला संबंध-विच्छेद का नोटिस, साइन नहीं करूँगा। (फिर, मै पॉज लेकर उनकी प्रतिक्रिया देखता हूँ)
मम्मी एवं पापा के चेहरे पर तो राहत के भाव दिखते हैं। मगर शीतल अपने काम में लगी हुई उदासीन ही दिखती है। वह अपनी गोदी में दीप का मुहँ दूसरी तरफ करती दिखाई पड़ती है।
पापा कहते हैं - बेटा, अपनी हैसियत से बढ़कर विवाह पर खर्च, उसके यूँ टूटने के लिए नहीं किया था। मगर तुमने समझदारी नहीं दिखाई है, मेरी शीतल को मर्माहत एवं हमें निराश किया है।
मैं हाथ जोड़ कहता हूँ - अपनी अक्षम्य भूल मैं मानता हूँ, मेरा विश्वास कीजिये शीतल को मैं एवं मेरा परिवार आगे प्रेम से रखेंगे।
तब मम्मी पहली बार शिकायती स्वर में बोलती हैं - बेटा, तुमने सोचा होता जिसने तुम्हारे घर को अपनी दुनिया मानी थी, उससे निकाले जाने पर वह किधर जायेगी! क्या होगा, उसकी गोद में आई नवजात बच्ची का! 
मैं पूरी विनम्रता से कहता हूँ - शीतल मेरे अपराध का जैसा चाहे बदला ले ले, मुझ पर हाथ उठा ले, मुझे अपशब्द कह डाले, मगर संबंध तोड़ने को न कहे। मेरे इन शब्द से शीतल की आँखों में अश्रु झिलमिलाये दिखते हैं। जिन्हें वह छिपाने की कोशिश करती है। शायद उसे उस रात की बातें याद आईं हैं। मगर प्रकट में वह चुप ही है। 
पापा कहते हैं-
"बेटा, अपशब्द या मारपीट हमारे संस्कार नहीं हैं। पति तो कई अपनी पत्नी को घर से निकालते रहे हैं मगर पिता कोई अपनी बेटी को घर से निकालता नहीं है। तुमने, पत्नी को तो निकाला ही है, अपनी दुधमुँहीं बेटी दीप को भी निकाला है, तुमने, यह निकृष्ट परंपरा, समाज को देने का अभूतपूर्व पाप किया है।"
हम इतना ही कहेंगे आगे का निर्णय शीतल की जो ख़ुशी हो, उस अनुसार शीतल ही करेगी।
तुम और शीतल ही बात कर लो। कहते हुए वे और मम्मी भीतर चले जाते हैं।
पापा के शब्द शर्मसार करने वाले पाप का बोध मुझे कराते हैं। तब मैं, मिमियाता सा शीतल के तरफ मुखातिब हो कहता हूँ- शीतल, मुझे क्षमा कर क्या एक अवसर, भूल सुधार का दे सकोगी? 
शीतल कहती है, आपकी क्षमा याचना मैंने सुन ली। क्षमा भी मैं करती हूँ। आज जब हम बात कर रहे हैं यह घर मेरा है।
" तुम्हारे घर को, मैंने अपना मान कर तीन वर्ष पूर्व उसमें जीवन आशाओं के साथ प्रवेश किया था। तुमने अपने व्यवहार से झुठला दिया कि वह घर मेरा है।"
आज अपने घर में, सिर्फ मैं कहूँगी उसे सिर्फ सुनिए, कुछ तर्क अब नहीं कीजिये।
मैं उसके सख्त शब्दों से असुविधा अनुभव कर रहा था। मगर सुनना मेरी लाचारी थी, न्यायसंगत भी यही था। शीतल ने फिर आगे कहना आरंभ किया।
मेरा नोटिस तुम्हें स्वतंत्र कर देने के लिए है। तुम परस्पर सहमति से बंधन-मुक्त होकर, जिसके साथ चाहो अपनी नई दुनिया फिर बसा सको इसलिए। जहाँ तक मेरा सवाल है,  तुमने जिस कटु यथार्थ के दर्शन मुझे कराये हैं, उसे देख मैं कोई और विवाह करने की अब नहीं सोचती हूँ।
"तुमने मेरे स्वाभिमान को ललकारा है। अब मैं इस योग्य बनने के लिए दृढ संकल्पित हूँ कि आर्थिक रूप से मैं किसी पर बोझ न रहूँ। मैं दीप का ऐसा वह लालन पालन करुँगी कि वह नारी को मिलती चुनौतियों के समक्ष कभी टूट न जाए" 
तुम अपने ग्लानिबोध में अगर मुझे ले जाने को उत्सुक हो तो आज तुम निराश होगे। मैं, वापिस नहीं चलूँगी मगर -तुम सहमति से विच्छेद नहीं चाहते और फिर हमें साथ रखना चाहते हो, तो इसका मैं स्वागत करती हूँ। "मैं, तुम्हें एक वर्ष का समय देती हूँ। मुझसे बिना मिले, बिना बात किये भी अगर तब भी आप अपने इस निर्णय पर बने रहते हो तो मैं वापिस आऊँगी। इसके पूर्व आर्थिक और मानसिक रूप से स्वयं को इतना योग्य बनाऊँगी कि तुम मुझ पर गृह हिंसा की आगे साहस न कर सको।  "
उसके ठंडे लहजे ने मुझे कुछ कह सकने का कोई मौका नहीं दिया था।
मम्मी के लाये जलपान ग्रहण कर मैं अकेला मायूस लौटा था। शायद नैसर्गिक न्याय भी यही था, मुझे, इसे आशावान रहकर स्वीकार्य करना ही विकल्प था ...    


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
20.02.2020
 




Tuesday, February 18, 2020

विचार बहुत अच्छे हैं
उन्हें जीवंत तो करो
अन्यथा पीढ़ी कहेगी
ये सिर्फ लिखने-कहने, पढ़ने-सुनने  के लिए होते हैं

आस ना तोड़ो किसी की
उसे ज़िंदगी जीना है
ज़िंदगी जीकर अपनी
दुनिया को कुछ देना है

Monday, February 17, 2020

पाश्चात्य सँस्कृति तब बुरी हो जाती है-
जब पुरुष स्वयं इसे अंगीकार करते हुए,
चाहता है कि-
नारी भारतीय सँस्कृति में रहे

498 (ए) ..

498 (ए) ..

तुम्हारे, पापा में इतना भी तमीज नहीं कि डिलीवरी पर इतना अस्पताल-दवाओं के हुए खर्च के कुछ रूपये देते?
सुनकर, शीतल तमतमा गई थी, कहा था, उनको अभी मेरे भाई की पढ़ाई पर बहुत खर्चे का भार है। आप, उनके लिए आदर से कह सकते हो तो कहो, नहीं तो चुप रहो!
मैंने, शीतल को और उकसाने के लिए, तीक्ष्ण शब्द का बाण फिर चलाया था, शक्ल न सूरत पर जबान तो देखो कितनी चलती है, तुम्हारी!
इससे शीतल को और आग लग गई थी, उसने कहा - अपनी देखते, आईने में पहले!
(उसने कुछ और कहते कहते, स्वयं को रोक लिया था। )
मैंने, अपनी सोची-समझी चाल अनुसार, उसे भड़काने के लिए फिर उलाहना दिया, ना पैसा, ना शक्ल और ना ही ठीकठाक चरित्र- मेरी अक्ल पर पाला पड़ गया था, जो तुम्हें ब्याह लाया!
चरित्र पर लाँछन वाले शब्दों से उसका धैर्य चुक गया- वह आक्रामक हो गई, तैश में बोल पड़ी, अपने चरित्र को देखलो, खूबसूरत लड़कियों पर लार टपकाती भँगिमा से घूरते रहते हो।
यह मेरी योजना अनुकूल था, अब -
मैंने, उसके गाल पर, थप्पड़ रसीद किया, अंदर शाँत मगर प्रकट में चिल्ला कर बोला- इतनी ही शिकायत है मुझसे तो, निकल क्यूँ नहीं जाती, मेरे घर से?
मुझसे पहली बार, पिटने के कारण वह रो पड़ी, कहा- सबेरे चली जाऊँगी, दीप (हमारी महीने भर पहले जन्मी बेटी) को लेकर! तब तक सब्र रखो।
फिर मै सो गया था, सुबकते सुबकते शायद वह देर तक नहीं सो पाई थी।
अगली सुबह उसने, अपने और दीप के कपड़े समेटे थे और मायके (इसी शहर में था) के लिए ऑटो बुलाकर चली गई थी।
मम्मी, पापा और मेरी बड़ी बहन (जो अभी यहाँ आई हुई थी) ने उसे रोकने-मनाने की कोई कोशिश नहीं की थी।
उसके जाने के बाद दिन भर पापा के साथ, अपनी दुकान पर रहा। रात्रि, बिस्तर पर बहुत दिनों बाद अकेला था। मेरे मन में पिछली बातों का सिलसिला /स्मरण चलने लगा था। 
हमारी शादी लगभग 3 वर्ष पूर्व हुई थी। ठीकठाक कमा नहीं पाने के कारण, जैसी सुंदर लड़की और जैसा धनवान ससुराल मुझे चाहिए था, वैसा रिश्ता कोई मिला नहीं था। ऐसे में मेरी, तब उम्र 30 वर्ष हो गई थी। जो थोड़े रिश्ते पहले आते थे, वे भी आने बंद से हो गए थे। तब विवाह को मैं, मरने लगा था। इसलिए शीतल के घर से जब रिश्ता आया तो एक तरह से लपक कर मैं उसे ब्याह लाया था।
कहते हैं, सुविधा मिलने लगे तो आदमी पसरता ही जाता है। अतः जब शादी हो गई तो ससुराल से, आभूषण-वस्त्र और सुविधा सामान भी आता रहे, इस हेतु मम्मी, शीतल को सुना दिया करतीं।
मेरी बड़ी बहन सुंदर थी, जब वे मायके आतीं तो साधारण रूप रंग पर वे शीतल को हीनता बोध करा देतीं।
शीतल में मिलनसारिता गुण था, जिससे उसके मायके से फुफुरे-ममेरे उसके कोई भाई आते उनसे वह बड़ी गर्मजोशी से मिलती थी। ऐसा मिलना अनावश्यक ही मुझे संदेह में डालता था। कभी इस पर मैं रोकटोक कर देता था।
आज के पहले यह सब एक साथ कभी न हुआ था। आज सारी बातें, एक ही समय में, मैंने उससे कह डालीं थीं। इसका असर शीतल पर इसलिए और ज्यादा हुआ था कि बोलने वाला मैं, उसका जीवनसाथी था।
मैंने एक साथ, सारे हमले उस पर यूँ ही नहीं किये थे। अपितु उसे घर से निकालने की परिस्थिति निर्मित करने की यह मेरी कुत्सित चाल थी। वास्तव में, शीतल गर्भवती हुई थी, तबसे मेरे सहित घर के सभी लोग, बेटा चाहते थे, जबकि पैदा बेटी हुई थी।
समाज चलन बदल रहा था, जिसमें बेटियाँ भी, बेटे जितनी, पढ़ने-लिखने वाली, हर बड़े काम अंजाम दे सकने वाली, तथा धन उपार्जन के व्यवसाय/कामकाज करने वाली होने लगी थी। लेकिन बेटे की चाह के विपरीत, बेटी के जन्म ने मेरे मन में नैराश्य उत्पन्न कर दिया था। जिसके वशीभूत,  शीतल के जाने से, आगे मुझे क्या विपरीत परिणाम भुगतने होंगे, उसकी कल्पना में नहीं कर पाया था।
फिर दिन व्यतीत होने लगे। दिन तो बाहर किसी प्रकार बीत जाता था। रात बिस्तर पर अकेला होता था। कुछ दिन और बीते तो यह अकेलापन मुझे अखरने लगा, शीतल, याद आने लगी, अक्सर नन्ही दीप का मासूम चेहरा और उसे गोदी में लेने का अनूठा आनंद याद आ जाता था।
मेरी, आशा विपरीत, मेरे ससुराल से कोई नहीं आया था। जबकि मुझे अनुमान था, वे लोग मनाने/समझाने आएंगे। एवज में हम खर्चों की दिक्कत के बहाने, ठोस रकम ले कर शीतल को वापिस बुला लेंगे।
मेरे अनुमान से बिलकुल विपरीत जो हुआ, उसने मुझे सकते में डाल दिया।
शीतल के घर छोड़ने के लगभग एक महीने बाद, स्पीड पोस्ट से मुझे वकील के माध्यम से, भेजा नोटिस मिला, जिसमें परस्पर सहमति से विवाह विच्छेद के लिए, मेरे हस्ताक्षर अपेक्षित थे।
नोटिस को पढ़कर, मेरे खुद ही सिर धुन लेने की इच्छा बलवती हुई। मम्मी, पापा ने सब ठीक कर लेने का आश्वासन दिलाया मगर मैं आश्वस्त नहीं हो सका। दो दिनों, मैं पागल सा रहा।
आज, मानसिक तनाव मिटाने के लिए, मेरे फ्रेंड के कहने पर, मैं रात जिनालय गया। वहाँ हो रहे पंडित जी के प्रवचन में 1 घंटे बैठ सुनता समझता रहा। फिर घर आया हूँ।
आज बिस्तर पर मेरा मन शाँत है। शाँत चित्त में विवेक के सहारे विचार कर पा रहा हूँ।
मैं अनुभव कर पा रहा हूँ, हमारी नश्वर देह में, मेरे या शीतल के साधारण रूप का होना महत्वहीन है।  

मुझे स्पष्ट हो रहा है, कषाय रखते किसी के साथ बुरा व्यवहार करने से, जीवन में मिल सकने वाले मित्रवत साथ से, मुझे स्वयं वंचित होना है। 


मै रियलाइज कर पा रहा हूँ कि शीतल नेकदिल है, अन्यथा उसका भेजा गया नोटिस 498 (ए) के प्रावधानों का उल्लेख करते आया हो सकता था। रहा हूँ। 

मैं कल्पना कर सक रहा हूँ कि मेरी नन्हीं बेटी दीप, पापा की छत्रछाया से वंचित होकर शायद, उतनी अच्छी न बन सके, जितनी कोई बेटी पापा के अच्छे लालन-पालन और सँस्कार से बन सकती हैं। 


मैं समझ सकने में समर्थ हुआ कि अपनी संकीर्ण सोच से मैं, शीतल का भाइयों या अन्य रिलेटिव से मधुर व्यवहार को देख चिढ़ता रहा हूँ। जबकि अगर शीतल से विवाह विच्छेद उपरांत या तो मुझे कोई लड़की शादी करेगी नहीं, जो करेगी वह भी डिवोर्सी ही होगी। जिसका पूर्व पति से संबंधों का इतिहास रहा होगा। 

मुझे लगा समझदारी यह नहीं कि अतीत के संदेह/याद से वर्तमान को ख़राब किया जाये, अपितु  समझदारी इसमें है कि आगे के लिए पति-पत्नी परस्पर परायण रहें।  

और भी न जाने क्या क्या विचार, मेरे मन में आते रहे हैं।
अब, सोने के पूर्व मैंने यह निश्चय किया है कि मैं सुबह जिनालय दर्शन करने के उपरांत, ससुराल जाउँगा। वहाँ शीतल सहित सभी से क्षमा याचना कर,

  शीतल को कभी न परेशान करने का भरोसा दिलाकर, उसे वापिस अपने घर ले आऊँगा ...   


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
18.02.2020

                

Sunday, February 16, 2020

तेरी दुनिया है कुछ दिनों की
क्या हिंदू, क्या मुसलमान
जी ले यहाँ तू इस तरह से कि
बना रहे तेरा, उनका स्वाभिमान

अच्छा ही हुआ कि भ्रम, बनते टूटते रहे न रहते कुछ भ्रम तो 'राजेश' जीना कठिन होता

जीतना पसंद था हारना भी मंजूर रहा मुझे खेल बड़ा था या छोटा इज्जत का प्रश्न न बनाया मैंने

देखे मैंने, रचे कीर्तिमान सब टूटते जाते थे कि रचूँ कोई कीर्तिमान तनाव लिए बिन, बिंदास मैं जीता रहा

Saturday, February 15, 2020

यह नहीं, कुछ और चाहिए है ..

यह नहीं, कुछ और चाहिए है ..

याद है मुझे, तब मैं शायद कक्षा ग्यारह में पढ़ती थी। समाचार चैनलों, समाचार पत्रों एवं नेताओं के नारेबाजी से उस समय, मुझे समझ आया था कि देश के विकास एवं गुणवत्ता पूर्ण निर्माण एवं दोषरहित सेवाओं के मार्ग में, भ्रष्टाचार बड़ा अड़ंगा बना हुआ है।
मैंने स्कूल के वार्षिक साँस्कृतिक कार्यक्रम में तब, इस विषय पर आधारित, नाटिका का मंचन, प्रमुख भूमिका लेकर किया था। जिसमें आव्हान- भ्रष्टाचार न करते हुए, देश और समाज निर्माण के लिए उत्कृष्ट सेवायें देना था।
मुझे स्मरण है, मैंने उसमें दो संवाद, अपने ओजस्वी स्वर में कहे थे -
1. "बहनों, मेरे देश को बनाने, कोई अमेरिकी, रुसी या पाकिस्तानी नहीं आएगा। मेरे देश को बनाने, मेरे देशवासियों को ही स्वयं योगदान करने होंगे। " तथा
2. "बहनों, मुझे दुःख होता है, देखकर कि, हम कोमल हृदया नारी भी व्यावसायिक होते ही भ्रष्टाचार में संलिप्तता से नहीं बच पाती हैं। " 

मेरे इन संवादों पर दर्शकों में, मैंने खासी तालियाँ बटोरी थी।
शायद ऐसे आदर्श विचार आयुजनित होते हैं। जब हमारी आयु छोटी होती है, हमारे चिंतन में छल-कपट का अपमिश्रण थोड़ा ही होता है, क्यूँकि हम निष्कपट हृदय के साथ जन्मते हैं। जीवन के साथ शनैः शनैः हममें कलुषितता मिश्रण होता जाता है।
स्कूल उपरांत मैंने बिट्स पिलानी में प्रवेश लिया था। कॉलेज में पढ़ते हुए मुझे यह अनुभव हुआ था कि मेरे पापा भी थोड़े भ्रष्टाचार में संलिप्त रहे थे। उन्होंने कभी कहा था कि वेतन से, सिर्फ ठीक ठीक गुजर हो सकती है। बिना कमीशन लिए, भोग-उपभोग के सुविधा साधन नहीं जुटाये जा सकते हैं।
बी. टेक. (सी एस) की उपाधि पूरी होते होते, मेरा, 'प्रौद्योगिकी की टॉप रैंक 1 बहुराष्ट्रीय कंपनी' में कैंपस सिलेक्शन हो गया था।
आरंभिक वर्षों में मैंने टेक्नीकल सेक्शन में सेवायें दीं थीं। इस बीच मेरा विवाह भी हो गया था।  तीन वर्ष बाद, मुझे प्रोजेक्ट मैनेजर की प्रोन्नति देते हुए एक लगभग सौ करोड़ के कॉन्ट्रेक्ट के कार्य का दायित्व दिया गया था।
मेरी एवं मेरे पति की आय इतनी थी कि किसी अनैतिक तरीके से उपार्जित आय की आवश्यकता नहीं थी। नई जिम्मेदारी में मगर मुझे, हमारी कंपनी को यह कॉन्ट्रेक्ट अवार्ड करने वाले लोगों में कमीशन पहुँचाने का कार्य करना था।
मै दुविधा में थी, कैसे यह दुष्कर कार्य को पूरा करूँ। अभय (मेरे पति) ने इस पर मुझे समझाया था- यह भ्रष्टाचार, आप अपने लिए नहीं कर रहीं हैं।
पशोपेश में ही इस काम पर निकली थी।
दो अथॉरिटी को/तक मैंने निर्धारित राशि प्रदान कर दी थी। तब, बारी संबंधित विभाग के मुख्य अभियंता को देने की आई थी। मैं बैग लेकर, उनके कार्यालय में पहुँची थी। वे मेरे पापा के उम्र के व्यक्ति थे, सादे से वस्त्रों में साधारण दिखाई पड़ने वाले उनके मुख पर अनूठी आभा दर्शित थी।
परिचय और थोड़ी औपचारिक बातों के बाद, मैंने सकुचाते हुए साथ लाया बैग, आगे किया, कहा था- सर, हमारी ओर से यह भेंट लीजिये।
उन्होंने गर्दन हिला नकारते हुए बोला था- मुझे,
'यह नहीं कुछ और चाहिए है', आप दे सकेंगी?
मैं आशंकित हुई, मालूम नहीं, ये क्या माँग रखें, फिर भी प्रकट में बोली, सर बताइये, क्या देना होगा?, हमें!
उन्होंने तब कहा था- आप मुझे यह सुनिश्चित कीजिये कि इस कॉन्ट्रेक्ट के अधीन लगने वाले उपकरण, सॉफ्टवेयर एवं सर्विसेज उच्चतम गुणवत्ता की रहें।
यह सुन मैं चकित थी, मुझे चोरी करते पकड़ा जाने जैसा ग्लानिबोध हुआ था।
मैंने शर्मीले स्वर में कहा था, सर आप इस हेतु आश्वस्त रहें।
उन्होंने, धन्यवाद कहा था।
फिर मैंने विदा ली थी।   
उस शाम, मेरी खेद खिन्नता, अभय ने यह कह कर दूर की थी। आप, उन महोदय के एक्सपेक्टेशन (अपेक्षा) अनुरूप कार्य निष्पादन करवा दीजिये।
मुझे, स्कूल समय का मंचन याद आया था। मैंने स्वयं को दृढ़ प्रतिज्ञ कर लिया था।
दो वर्ष, इस काम में समर्पित रहकर उत्कृष्ट काम करवाया था। हमारी कंपनी को इस कॉन्ट्रेक्ट से अनुमानित चालीस करोड़ की तुलना में अठारह करोड़ का ही लाभ मिला था। जिससे, मेरी आशा अनुरूप मुझे, प्रमोशन नहीं मिल सका था। तब भी, मुझे अनोखी संतुष्टि थी कि-
"कथनी और करनी में, मैं समानता रखने में सफल हुई थी।" अपने किये के गर्व बोध सहित आज, मैं उन महोदय से मिलने पहुँची थी ताकि उनकी शाबाशी पा सकूँ। लेकिन मुझे निराशा हुई, वे सर, रिटायर हो चुके थे।
वापसी समय, मैं, कैब में सशंकित बैठी हूँ कि-
"उनके द्वारा रिक्त पद पर अब आगे, शायद, कोई उनसा ही, राष्ट्र निर्माता इंजीनियर आ सकेगा .. "


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

16.02.2020

Wednesday, February 12, 2020

किससे लिया, बदला?

किससे लिया, बदला?

रात्रि दो बजे का समय था, मैं सोई हुई थी, तब ड्रॉइंग रूम में शोर से मेरी नींद खुली थी। मैं बिस्तर छोड़ बाहर आई थी। दृश्य, दुःखदाई था, मम्मी के गोरे गाल पर हाथों की अँगुली लालिमा लिए उभरी हुईं थीं। प्रतीत हो रहा था, पापा ने उन्हें मारा था। 

सिसकते हुए वे कह रहीं थीं- बाहरी औरतों के साथ सोने का बुरा काम करके आते हो, मेरी आपत्ति जताने पर घर आकर, मुझे पीटने का एक और बुरा काम करते हो। कैसे आपकी अंतरात्मा गवारा करती है?
पापा शराब के नशे में दिखाई पड़ रहे थे, आग बबूला होकर उन्होंने कहा था - चुप कर, आगे कभी, मुझ पर आपत्ति दिखाने की दोबारा कोशिश न करना, तुझे और दोनों बेटी का गला दबा दूँगा, समझी?
यह सुन में बुरी तरह सहम गई थी। मैंने, अपने को दरवाजे के पीछे छिपा लिया था। फिर, बिना आहट किये में अपने बिस्तर पर लौटी थी। जहाँ मेरी चार वर्षीया छोटी बहन अनु, गहन निद्रा मग्न सो रही थी। मैंने, खुद को उसके बाजू में लिहाफ़ में समेटा था।
आज से, लगभग चालीस वर्ष पूर्व, मेरी आयु तब आठ वर्ष थी। उस रात देर तक मेरी नींद नहीं लगी थी। मेरे पापा, मुझे एवं अनु को बहुत लाड़-प्यार करते थे। नित नए नए वस्त्र और खिलौने लाते थे। हम दोनों भी पापा को बहुत चाहते थे, लेकिन उस रात मुझे वे बहुत डरावने लगे थे। मुझे यूँ प्रतीत हो रहा था, जैसे अब तक हम किसी खतरनाक राक्षस की गोदी में खेलते रहे थे।
अगली सुबह रोज की तरह, मम्मी ने हमें जगाया नहीं था। जब नींद खुली तो देर हो चुकी थी। उस दिन हम स्कूल न जा सके थे। घर का माहौल बोझिल था। सब चुप-चुप से दैनिक कर्म में लगे थे। पापा, ग्यारह बजे करीब चले गए थे। माँ, दिन भर रुआँसी सी रहीं थीं। हमारे या सर्वेंट्स के सामने सामान्य दिखने की कोशिश करतीं रहीं थीं। केवल आवश्यक शब्द  कम से कम ही कह कर काम चलाती रहीं थीं।
यह रात और यह दिन तबसे अब तक मेरे ह्रदय पटल पर स्पष्ट अंकित रहा था। मेरी मम्मी या पापा ने कभी जिक्र नहीं किया था। मैं भी इतनी घबराई रही थी कि मैं मम्मी से पूछने की हिम्मत न कर सकी थी। मम्मी ने भी हमें कभी बताया न था। शायद, बताकर पापा के प्रति हमारे मन में आदर और प्यार को वे कम नहीं होने देना चाहती थीं।
बाद के जीवन में हमें सारी सच्चाई ज्ञात हुईं थीं। हमारे पापा, तब सिने जगत के मशहूर अभिनेता थे। वे सिनेमा में उनके साथ काम करने वालीं कई अभिनेत्री/ अन्य आर्टिस्ट से संबंध रखते थे।
मेरी मम्मी, उन किसी अभिनेत्री से सुंदरता में कम नहीं थीं। मुझे, बाद में पता चला था, कि किसी पुरुष के लिए, घर पर बैठी समर्पित-सुंदर पत्नी से ज्यादा अहमियत उस साधारण किसी स्त्री की होती है, जो उसके लिए हर समय उपलब्ध नहीं।
15-16 वर्ष की उम्र में जब मुझे यह कटु सच्चाई अनुभव हुई तो, मैंने, 'किसी की पत्नी नहीं बनूँगी' यह तय कर लिया था। एक विचार और मेरे दिमाग पर हावी हुआ था कि मैं, अपने पापा से बदला ले कर रहूँगी। मेरी मम्मी को उन्होंने मानसिक रूप से जितना सताया था। मैं, उन्हें उससे ज्यादा सताऊँगी।
मैंने देखा एवं अनुभव किया था, धन-वैभव में एक से एक कीमती आभूषण-परिधानों में सुसज्जित दिखने वाली मेरी मम्मी, रात्रि पार्टियों में आकर्षक मुस्कान लिए तो मेरे पापा के साथ नज़र आती थीं मगर उनका दिल सदा रोता रहता था। हम बच्चों पर प्रभाव बुरा न पड़े इस लाचारी में उनके ओंठों तक उनकी कटु सच्चाई कभी न आई थी।
मेरे पापा की किस्मत का सितारा फिर अस्त होने लगा था, उनकी, की फ़िल्में ज्यादा व्यवसाय न कर रहीं थीं, जिससे, उनको मिलने वाला लगातार कम होते जा रहा था।
मैं, तब 19 वर्ष की हुई थी। मैंने, अपने पापा के नाम के बल पर गोपनीय तरीके से मूवीज़ में रोल तलाशने शुरू किये थे। पापा  के नाम का प्रयोग निर्माताओं पर, जब ज्यादा कारगर नहीं हुआ, तब मैंने अपने देह के जलवों का प्रयोग किया था। इससे मैं 1 बड़ी बजट की फिल्म में लीड रोल लेने में सफल हुई थी।
पापा को जब पता चला तो उन्होंने घर में हंगामा खड़ा किया। निर्माता पर दबाव बनाया कि मुझे हटाये। लेकिन पापा के रौब दाब का दौर, पुराना पड़ चुका था, काम नहीं आया था।
 मुझ पर पापा ने जबरन अपनी मनाही लादने की कोशिश की तो मैं, मम्मी और अनु के साथ अलग किराये के फ्लैट में, जो निर्माता ने अरेंज करवा दिया था, में रहने लगी थी। मेरी मम्मी चुप रहते, दबाव सहते अब तक भाव शून्य सी हो चुकी थीं।
मेरी पहली फिल्म, जब प्रदर्शित हुई तो मेरे खुले देह प्रदर्शन के कारण रिकॉर्ड तोड़ बिजनेस देने में सफल हुई थी। उसे देख, पापा के तन बदन में आग लग गई थी। एक दिन वे मेरे फ्लैट पर आये, बहुत गाली गलौज की, मुझसे कहा, यह विचार कर शर्म आती है कि तुम मेरी बेटी हो!
मैं, उनसे बदला लेने को उतारू थी। मैंने जबाब दिया था - आप, जब अपनी सह अभिनेत्रियों और जूनियर आर्टिस्ट, जो किसी की बेटियाँ थीं, के साथ अपनी रातें रंगीन करते थे और मम्मी पर जुल्म करते थे, तब आपकी यह शर्म कहाँ थी ?
आपने, अपने प्रभाव में, अन्य घरों की बहनों-बेटियों का जिस प्रकार दैहिक शोषण किया है, अपने साथी कलाकारों के साथ लिव इन रिलेशन में रहते या किसी रात उनके साथ बिस्तर शेयर करते हुए उस पाप को मैं धोऊँगी।
मेरा उत्तर सुन वे असहाय, अपमानित हो लौटे थे।
तब मेरी बहन अनु तब फूट फूट कर रोई थी। घर में वही थी, जिसकी संवेदना पापा के साथ थी। जो स्कूल में पढ़ते समय से ही, मुझसे तर्क करती थी। कहती, पापा के प्रशंसकों का विशाल समूह, इस बात का ध्योतक है कि अन्य लोगों की तुलना में वे ज्यादा प्रतिभाशाली हैं। उनके साथ एक ही चीज की कमी है कि वे किसी घटना/बात से सद्प्रेरणा ग्रहण नहीं का सके हैं। मैं तब, उसकी बातों को अनसुना कर देती थी।
कोई दस बरस और बीते थे। लोकप्रियता, ख्याति की बुलंदी और युवावस्था की रंगीनयाँ तब तक, मेरे पापा की ज़िंदगी से पूरी तरह विदा ले चुकीं थीं। वे अकेले में अपने भव्य अतीत की याद करते हुए दिन रात शराब पीते, नशे में चूर रह कर बुरे वर्तमान को सहते हुए, गंभीर रोग के शिकार हुए थे।
इस बीच अनु अपनी प्रतिभा के बल पर डॉक्टर हुई थी। उसने अपने स्कूल के सहपाठी, रोहित से विवाह कर लिया था, जो धनवान व्यवसायिक परिवार में बेटा था।
फिर एक दिन पापा, तन्हाई में इस दुनिया से विदा हुए थे।
उनकी अंत्येष्टि में, हम मम्मी सहित शामिल हुए थे। तब, न जाने कहाँ कहाँ से निकल उनके पूर्व प्रशंसकों का सैलाब उन्हें श्रध्दा-सुमन अर्पित करने आया था।
उनकी मौत का दुःख भी था, मगर एक तरह से मैं संतुष्ट भी हुई थी। मेरी माँ के जीवन पर ग्रहण बने, काला सूरज अस्त हुआ था। फिर भी मेरी माँ की आँखों में आँसू झिलमिलाये थे।
अनु बिलख बिलख रोई थी उनकी तस्वीर के सामने खड़े हो कहती थी- पापा, आपके जाने से ज्यादा वेदना मुझे यह बात देती है कि आप अपनी मिली प्रतिभा का उपयोग, समाज को सुपथ प्रशस्त करने वाले प्रतीक बनने में नहीं कर सके, जो आप चाहते तो करने में सफल होते। काश, पापा, मुझे आप सी योग्यता/प्रतिभा मिलती, मैं दिखाती ऐसा करके, जिससे मेरी पीढ़ी को गर्व होता कि वह मेरी समकालीन हुई।
इधर मेरे लिए, जीवन के एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति तो हो गई थी। लेकिन उसके लिए अख्तियार रास्ते की, बुराई मेरी आदत हुयी थी। मैं, शराब, पार्टी और खुले दैहिक संबंधों की दिनचर्या में ही अपनी ज़िंदगी बिताते चली गई थी।
काल परिवर्तन के साथ अब-
पिछले महीने, मेरी मम्मी स्वर्ग सिधार गई है। मुझे दुःख हुआ है, उनका पूरा जीवन, कामुक-नशेड़ी पति के अधीन वैभव-सुविधा सुसज्जित बँगले में कुंठाओं में बीत गया था।
उनके जाने पर मैं व्यथित हूँ। अब, मेरी दृष्टि स्वयं मेरे जीवन पर गई है।अनु, के कथन भी मेरे स्मरण में आये हैं। पापा के हश्र की कहानी मुझे, मेरे साथ दोहराये जाते प्रतीत हुई है। उम्र के इस पड़ाव में मेरे जलवों की ताकत खोने लगी है। धन-वैभव तो बहुत है, मगर साथ को लालायित भीड़ कम हो गई है।
ऐसी परिस्थिति में, मैंने अब घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है। कुछ दिन के चिंतन-मनन के उपरान्त, नशे और रात्रि पार्टियों की दिनचर्या एक झटके में त्याग दी है। शायद यह, मेरी मम्मी के प्रति श्रध्दांजलि है। मुझे समाज दायित्व बोध की चेतना आई है।
अब मैंने, इतिहास साहित्य पढ़ना, दिनचर्या बनाई है। इनसे मेरे ज्ञान चक्षु खुले हैं। मैं आज की वास्तविकता देख पा रही हूँ।
मैंने लगभग सौ वर्ष पूर्व के समाज का अध्ययन किया है। जन जीवन, जिसमें, संतोषी हुआ करता था। जिसकी भव्य परम्परा में, 'एक पति और एक पत्नी दैहिक और मानसिक रूप से परस्पर समर्पित होते थे'। जो, अतीव सुख, की मृगतृष्णा लिए, अनेकों से संबंध को उत्सुक, न स्वयं भटकते थे और न ही किसी अन्य के भटकाव के कारक बनते थे।
आज का परिदृश्य जबकि इससे नितांत ही भिन्न हुआ है। आज -
"एंजिन से निकलते धुयें के साथ उड़े कोयले के कणों से सिर और वस्त्रों का रेलयात्रा में पुर जाना, फिर घर गंतव्य पर पहुँच कर धोने और स्नान से तरोताजा होने वाली यात्राओं का दौर, अब हमारे देश से अतीत हुआ है। कोयले से धधकने वाली अग्नि से, एंजिन का चलना बंद हुआ है। (विकसित तकनीक)यह होते-होते, मगर, मानवीय जीवन यात्रा में, शरीर में कामाग्नि से धधकते, मनुष्य की जीवनशैली, नया दौर बनी है। ऐसे में अनेक पुरुषों की कामाग्नि से, उत्पन्न कालिख ने अपनी चपेट में लेकर, अनेक मासूम/नारी के जीवन को काला कर देना, वर्तमान की विडंबना बना दिया है।(उन्नत तकनीक प्रयोग से लज्जाजनक कृत्य के प्रसारण से)"

हमारे देश-समाज में, इस 180 अंश के बदलाव के लिए मैंने अनुभव किया कि सिने जगत, जिसमें मेरे पापा के तरह के लोग, तथा प्रतिशोध/प्रतिरोध का गलत मार्ग चुनती मेरी तरह की ख्याति लब्ध महिलाओं का होना भी कारक हुआ है। 
उन्नत तकनीक के दो उदाहरण मेरे सामने हैं। एक के जरिये हमने अपने जीवन से हानिकारक साधन हटाया है।
दूसरे के जरिये, निर्मित किये, सिनेमा/वीडियो, अनैतिक दृश्य, तथा पर्दे के पीछे के बुरे कृत्य से चटपटे प्रस्तुतियां /समाचार बनाये हैं।
हमने अपने बिन सोचे विचारे किये गैर-जिम्मेदार कृत्यों से, मानवता को लज्जित करने वाली अपसंस्कृति, घर घर तक पहुँचाई है। 
निश्चित ही, मेरा जीवन, मेरी लोकप्रियता का प्रयोग, मेरे प्रशंसकों में कदाचित इस संदेश के प्रसार के लिए नहीं होना चाहिए।
अपने किये का ग्लानि/पश्चाताप बोध अनुभव करते हुए, मैं, अपने बिताये का सँक्षिप्त वर्णन पाठकों के समक्ष, यह तय करने के लिए लिख रही हूँ कि आखिर मैंने -
किससे लिया, बदला?     

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
13.02.2020

Friday, February 7, 2020

शाहीनबाग़ - उसने कहा था ...

शाहीनबाग़ - उसने कहा था ...

शाहीन बाग़ धरने के समय के, लगभग 20 साल पहले मेरे परिवार ने, बँगला देश से हिंदुस्तान में घुसपैठ की थी। मेरे अम्मी-अब्बू के तब से यहाँ दिल्ली में रहते ही, आने के बाद मेरा जन्म हुआ था। मैं, 18 वर्ष की चुकी थी। यहाँ दिल्ली आकर भरपूर मेहनत के बल पर स्लम में मेरे अब्बू ने एक कमरा भी खरीद लिया था। जिसमें मेरे सहित हम 3 भाई बहनों का परिवार रहता था। मेरे अब्बू यहाँ ऑटो रिक्शा चलाते हैं, एवं मेरी अम्मी कमरे में ही टेलरिंग कर ठीकठाक कमाई करती हैं।
मेरे अब्बू-अम्मी ने अपढ़ रहने से, जिंदगी को ज्यादा मुश्किल पाया था इसलिए हम भाई-बहन, जिनमें मै बड़ी हूँ, की पढ़ाई के लिए खर्चे में कोई कमी न करते हुए वे हमें पढ़ने को प्रेरित करते थे। दिल्ली सरकार ने शासकीय शालाओं के स्तर में अच्छा सुधार किया था, जिसके लाभ हम ले रहे थे।
मैं तब कक्षा 11 की, विध्यार्थी थी और अपनी कक्षा में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण होती थी। मैं अपनी शिक्षिकाओं की चहेती भी थी। स्लम में रहते हुए भी हमारे परिवार का व्यवहार-कर्म बेहद शालीन था। हमारे दोस्तों एवं परिचितों में, पढ़ने में अच्छी एवं शिष्टाचार से पेश आने के कारण, मैं बेहद पसंद की जाती थी।
उन दिनों, भारत सरकार ने नागरिक संशोधन कानून पास किया। घर में अब्बू और अम्मी के बीच बातों से मुझे पता चला कि यह कानून मुस्लिम विरोधी है। इस क़ानून से हम पर, परेशानियाँ आएँगी। हमारे स्कूल में भी इसी कानून पर चर्चा होती थी। उसमें मुझे यह पता चला था कि कानून में मुस्लिम विरोध जैसा कुछ नहीं था।
यह कानून पड़ोसी देशों से गैर संवैधानिक घुसपैठ को रोकने तथा घुसपैठिये जो देश में रह रहे हैं उनकी पहचान कर उन के विरुध्द कार्यवाही करने के लिए लाया गया है। इस क़ानून में मुस्लिम एंगल यह था कि पाँच छह वर्षों से ज्यादा समय से ऐसी घुसपैठ करने वाले, अन्य संप्रदाय को तो यहाँ की नागरिकता प्रदान करना था, जबकि मुस्लिम घुसपैठियों को नागरिकता देने के प्रावधान नहीं थे।
मैं और मेरे भाई बहन तो भारत में जन्मे थे। ऐसे में हमारे परिवार के साथ क्या होगा मुझे स्पष्ट ज्ञात न हो सका था। पास पड़ोस के लोग नहीं जानते थे, मगर हमारे घुसपैठिये होने की बात हमारे परिवार में हम सभी जानते थे। अब्बू ने हम सभी के आधार कार्ड और अन्य कागजात भी बनवा रखे थे। हमारा जन्म प्रमाण पत्र भी बना था। ऐसे में मेरे मन में आशंका हुई कि क्या हमें इस देश से बेदखल किया जाएगा?
फिर हमें पता चला कि इस क़ानून का विरोध करने के लिए शाहीन बाग़ में महिलाओं ने धरना दिया हुआ है। इस धरने के लगभग 40 दिनों बाद हमारी अम्मी को भी अब्बू ने ऑटो से वहाँ ले जाना तथा छह आठ घंटे बाद वापिस घर लाना शुरू किया था। ऐसा करते हुए 10-12 दिन और निकले थे तब एक रविवार, मैंने भी उसमें भाग लेने चलने को कहा तो, अब्बू ने अम्मी के साथ मुझे वहाँ छोड़ा था।
वहाँ बहुत भीड़ थी। वहाँ जब खाने के पैकेट आये तो मैंने और अम्मी ने भी खाया था। मालूम नहीं कोई और कारण था, या खाना-पानी में कुछ था। कुछ समय बाद मुझे हाजत अनुभव हुई थी। अम्मी को बताया तो वे उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए मेरे साथ आई थीं। पास ही ऐसा कुछ नहीं मिल रहा था। तब एक युवक से पूछा था, उसने मेरी चेहरे की बदहवासी पढ़ी थी, कहा था बहुत पास ऐसा कुछ नहीं है, किसी के घर में पूछ लो नहीं तो पास ही मेरी शॉप है, वहाँ कोई व्यवस्था कर सकता हूँ।
मुझे लग रहा था कि जल्दी नहीं की तो मेरे कपड़े ही ख़राब हो सकते हैं। मैंने, अम्मी से शॉप के लिए हाँ कहलवा दी थी। उस युवक ने एक शॉप का ताला खोल कर शटर आधा उठाया था। जल्दी ही एक स्टूल और एक नई बकेट और पेपर नेपकीन दिए थे, मुझे अंदर किया था अम्मी और खुद उसने बाहर होकर, शटर गिरा दिया था।
हाजत से निबट मैंने बकेट कवर कर दी थी, तब शटर खटखटाई थी।
अम्मी ने बकेट साफ करने के लिए स्थान और पानी के लिए पूछा तो "उसने कहा था" कि, नहीं नहीं वह मैं कर लूँगा।
वास्तव में यह, उस युवक का प्रॉविजन स्टोर था, जो शाहीन बाग़ में धरने से, पचास से अधिक दिनों से बंद था। मैंने बाहर निकल कर साइन बोर्ड पर 'गुप्ता प्रॉविजन स्टोर' नाम देखा था। हम उस युवक का नाम नहीं पूछ सके थे। मैंने बोर्ड पर लिखा मोबाइल न. याद कर लिया था। अम्मी ने उसे तहे दिल से शुक्रिया कहा था। "उसने कहा था"- नहीं नहीं  इंसान, इंसान की इतनी मदद तो कर सकता है ना! इसकी, मुझे ख़ुशी है। 
हम वापिस, धरने में आ गए थे। धरने से महीने से ज्यादा, उसकी कमाई मारी गई थी। मेरे द्वारा गंदा किये जाने से, नई बकेट (जिसे उसे फेंकना पड़ेगा) का नुकसान अलग सहना पड़ेगा। सोच कर, धरने को लेकर मुझे ग्लानि हुई थी। मेरा उस युवक पर दिल आ गया था। जिसने निःस्वार्थ यह भला काम किया था।
फिर अब्बू के नहीं आने तक धरने पर रही थी। मगर मेरा मन किन्हीं और ख्यालों में खोया हुआ था -
मेरा जन्म भारत में हुआ था, जहाँ मुझे पढ़ने के शिक्षा और आधुनिक खुलेपन से विचार के अवसर मिले थे। इस देश में इस युवक की नेकी और नेकनीयत वह चीज होगी जिसे खोकर मुझे, अगर बँगला देश जाना पड़ा तो ज़िंदगी भर का गम रहेगा।
मुझे दुःख हुआ कि भारत में जन्मे और यहाँ रहने वालों को, क्यों नहीं इस देश की महानता का अहसास नहीं!
 यहाँ रहते, यहाँ पलते बड़े होते हुए भी,  इस देश की सबको जीवन अवसर प्रदान करने की भव्य परंपरा पर अपनी संकीर्ण और कट्टर, औरों को तथाकथित काफिर मानने की परंपरा लादने को उत्सुक रहते हैं? क्यों, औरों को भड़काते रहते हैं?  ना खुद चैन से रहते हैं, ना ही यहाँ के लोगों को चैन से रहने देते हैं। ऐसे विचारों में लीन मैं उस दिन धरने से लौटी थी। कुछ दिनों बाद धरना खत्म किया गया था। मुझे राहत आई थी। तबसे नित बीतता दिन, मेरे दिल में उस युवक के प्रति एकतरफा प्यार, बेहद प्रगाढ़ करता जाता था।
उसके प्रति शुक्रगुजार और प्यार से ओतप्रोत मेरे दिल के द्वारा मजबूर होकर, एक दिन मैं स्कूल से भाग कर उसके शॉप पर पहुँची थी। मैं स्कूल यूनिफार्म में थी, इस कारण मुझे पहचानने में, कुछ समय लगा था। मुझे देख वह मुस्कुराया था फिर अन्य ग्राहक से फ्री होकर, उसने मुझसे पूछा था, क्या चाहिए आपको?  

शॉप में उस समय कोई और नहीं होने का लाभ उठा, मैंने उसे याद दिलाया था। वह मुझसे पुनः मिल कर खुश हुआ था, तब साफगोई से और बिना झिझक मैंने कहा था - मुझे, आपसे प्यार हो गया है। समय आने पर मैं, आपसे शादी करना चाहती हूँ, क्या आप मुझसे शादी कर सकेंगे? तब जबाब न देकर उसने, मुझे रविवार एक रेस्टोरेंट में आने कहा था। उस दिन, उसका क्या जबाब होगा, इस जिज्ञासा से मैं, अपने धड़कते दिल के साथ वहाँ पहुँची थी। वहाँ अलग एक केबिन में, अत्यंत आत्मीय व्यवहार सहित उसने, मुझे आग्रह कर कर बहुत कुछ खिलाया पिलाया था। उस सबसे, मुझे लगने लगा था कि उसका उत्तर मेरे प्यार के पक्ष में आएगा। अंत में उसने थोड़ा गंभीर भाव मुख पर लाते हुए कहना शुरू किया था - शाहीन, (मेरा नाम उसने पूछा ही नहीं था) आपके, उस दिन के प्रश्न पर मेरा उत्तर अब सुनिए, कहते हुए 

'उसने कहा था' - 

"अभी, मेरी और आपकी उम्र, किसी भले साथी को देख, उसके प्रेम में पड़ जाने की है। आप बेहद खूबसूरत हैं, मेरे दिल में भी उस दिन, आपको देख प्यार आया था। उसी प्यार के अधीन, मैंने आपकी, इस तरह से मदद करते हुए दिलीय ख़ुशी महसूस की थी।  

आगे सवाल, आपके और मेरे शादी का है, इस पर मेरा मानना है कि हर प्रेम की परिणति विवाह नहीं होती है। हर प्रेम शारीरिक संबंध तक पहुँचने के अभिप्राय से नहीं होता है। आपका और मेरा धर्म अलग है। ऐसा होना, मुझे, आपसे विवाह को नहीं रोकता है। आपको, आपके जितना ही चाहते हुए, जो विवाह नहीं करने को विवश करता है, वह कारण अन्य है। यह, वह कट्टरपंथी वर्ग है, जो मेरे और आपको विवाह कर लिए जाने पर यहाँ के परिवेश में वैमनस्य घोलने का एक और बहाना ले लेगा। 

मुझे माफ़ करना, प्यार मैं भी रखूँगा, प्यार ही तुम भी मेरे लिए दिल में रख लेना और इस प्यार भरे दिल में दुआ रखना। ताकि लोगों को अक्ल में आपस में नफरत की जगह ,प्रेम से रहने की भावना प्रधान हो जाए।"

उसने, मेरी आशा के विपरीत, मेरे प्रस्ताव को असहमत कर दिया था। ऐसा करने का मगर उसका अंदाज अनूठा था, उससे मेरा दिल टूटा नहीं था। उसने, मेरे दिल में, उसके प्रति प्रेम को, आसमान की ऊँचाई तक उठा लिया था। 

आज, दिनाँक 4 अक्टूबर 2022 है। आज, हमारा परिवार अपना भविष्य तलाशने बँगला देश जा रहा है। जहाँ मेरे अब्बू अपने परिश्रम से हमारा लालन पालन करने के अवसर पा लेंगे। मगर भारत के खुले एवं आधुनिक परिवेश के जगह, वहाँ के कट्टरपंथी, संकीर्ण परिवेश की कल्पना मुझे परेशान कर रही है
 किसी और की नहीं मालूम मगर मेरे दिल में यह कामना है कि मेरी जन्म भूमि ,भारत, विश्व का सर्वोत्कृष्ट राष्ट्र होने का दर्जा हासिल करे  ....    



-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
07.02.2020

Monday, February 3, 2020

फाँसी ...

फाँसी ...

पिछले सात वर्षों से मैं कारावास में हूँ। यहाँ, आरंभ में मेरे द्वारा किये घृणास्पद अपराध की स्वीकारोक्ति के लिए मुझे मानसिक तथा शारीरिक रूप से अत्यंत प्रताड़ित किया गया था। मैं इसकी शिकायत नहीं करना चाहता क्योंकि मुझे याद है कि, किस तरह की निर्ममता, मैंने बेचारी, उस लड़की के साथ की थी। उसका स्मरण करते हुए अपने पर प्रताड़ना (torture) मुझे बहुत कम लगती थी।
अपराध के स्वीकार कर लेने के बाद, यूँ तो ऐसे उत्पीड़नों का क्रम समाप्त हो गया था, मगर न्यायालयीन प्रक्रियाओं के लिए मुझे कई बार, अदालत ले जाया गया था।
वहाँ उपलब्ध भीड़ की आँखों एवं भावभँगिमा में, मेरे प्रति जो घृणा और धिक्कार दिखाई देता था, उसे अनुभव कर मैं धरती में गड़ जाना चाहता था। किंतु ईश्वर से, मेरे विनती करने के बाद भी, धरती  के  फटने  एवं  उसमें  मेरे  समा  जाने  जैसा कोई चमत्कार नहीं हुआ था।
सात लंबे वर्षों से अपराधियों के बीच, कारावास में रहते हुए, मुझे उन अपराधियों के आँखों में भी तिरस्कार दिखाई देता था। क्यूँ न हो!, उनके किये अपराध न तो मेरे जितने निर्मम और घिनौने थे, न ही उन्होंने, जैसा मैंने किया, किसी के आगामी लंबे, शेष जीवन का यूँ अंत किया था।
मुझसे घृणा की अभिव्यक्ति में वे (अन्य कैदी), आते-जाते, सामने या पास आने पर तब-जब, मुझे थपड़या देते थे। उनकी ऐसी हरकतों को, मैं अपना अपमान नहीं कहूँगा। मुझे अपने मान का विचार होता तो मैं ऐसा नृशंस कृत्य, उस छोटी सी जान, लड़की के साथ नहीं करता।
 मेरी तरह ही किसी की संतान, वह लड़की, मेरे समक्ष, अपने पर, जबर्दस्ती न करने के लिए एवं शारीरिक यातना नहीं देने के लिए, कितना ही नहीं गिड़गिड़ाई थी, तब, मुझ हैवान ने, उसकी कहाँ सुनी थी!, उसके साथ, मैं अपनी घृणित मनमानी पूरी करने के बाद ही तो रुका था। उस दुष्टता के बाद, पश्चाताप औचित्य विहीन ही था।
उस समय कामान्धता में नहीं समझ सका पर अब मुझे समझ आता था, मैंने कोई खिलौना तो तोड़ा नहीं था। किसी माँ-पिता की गोद उजाड़ दी थी। वह लड़की जीवित रहती तो, अपने जीवन में, नोबल पुरस्कार तक, हासिल करने योग्य कार्य भी कर सकती थी। मैं, अमानुस ने, अपनी कुछ मिनट की, कामवासना के दुष्प्रभाव में, ऐसी सारी संभावनाओं एवं उसके दीर्घ शेष जीवन का बेदर्दी से अंत कर दिया था।
पिछले सात वर्षों की अवधि में, जब-तब मुझ पर न्याय बोध हावी होता था, तब मैं अपने पर, निर्धारित फाँसी की सजा को न्यायोचित मानता था। इस के समानांतर मगर जीवन ललक, बड़ी विचित्र तरह से काम करती रही थी।
यूँ तो यहाँ कारावास में ना तो भोजन ठीक था, ना ही रहने को कोई ढंग की सुविधा थी, साथ ही उपरोक्त में उल्लेख अनुसार, मुझ पर अपमान और तिरस्कार के परिवेश में मेरी तनिक भी ख़ुशी की परिस्थितियां नहीं थी, अर्थात जीवन के आकर्षण कुछ भी नहीं था, तब भी, अपनी मौत की कल्पना, मुझे भयाक्रांत कर देती थी, मैं मरने से डरने लगता था।
मुझे, फाँसी के वक़्त गर्दन की हड्डी कैसे टूटती है, उसका विचार डराया करता था। मैं सिहर जाता था, तब मुझे स्मरण हो जाता कि, मैंने किस हैवानियत से उस लड़की पर अत्याचार किये थे, चाकू से, उसकी अँतड़िया तक बाहर कर दी थी।
मेरे प्राण तो फाँसी के फंदे पर झूलने से, एक झटके में निकल जायेंगे। जबकि मेरे द्वारा बुरी तरह से घायल की गई, उस लड़की ने कितने ही दिन, मौत से संघर्ष में भीषण विषम वेदना भोगी थी। उसके प्राण निश्चित ही किसी फाँसी की अपेक्षा, बहुत ज्यादा पीड़ा के बाद निकले थे।
मुझे तब, निष्पक्ष ख्याल यह आता कि, मुझे मिलने वाली फाँसी, मेरे अपराध अनुरूप, सख्त सजा नहीं है।
तब मुझे न्यायोचित यह लगता कि -

"मैं किसी चौराहे पर किसी खंबे में बाँध दिया जाऊं, मेरे किये दुष्कृत्य का वहाँ उल्लेख स्पीकर द्वारा किया जाए और लोगों को अनुमति रहे कि वे जैसे चाहे वैसे मुझे मारें। मैं गिड़गिड़ाता रहूँ अपने दर्द से तड़फता रहूँ, तब भी कोई दया नहीं करे। लोग मुझे तब भी लातें-जूते मारें जबकि मेरे प्राण निकल चुके हों।"

अब तक, मेरे घिनौने अपराध से शर्मसार हुए मेरे पिता, माँ एवं पत्नी, मुझसे मिलने आ सकने का साहस नहीं जुटा सके थे। वे, अपराध के लगभग छह वर्ष पश्चात, मुझे मिलने वाली फाँसी की सजा की तिथि नियत हो जाने पर, मेरे प्रति उनके दुलार-प्यार एवं आसक्ति वश, अपनी शर्मींदगी को अलग रख, कारावास में मुझसे मिलने आये थे।
तब रो रो पड़ते हुए, तीनों मुझसे कहते थे - तुम्हारे बाद, हमारे जीवन में क्या बचा रह जाएगा! उनके रुदन से मुझे पिछले 7 वर्षों में उनकी भोगी, मानसिक यातनाओं का आभास मिला था।
"मैं अपनी माँ से हर जिद मनवा लिया करता, किसी से न कर सकूँ मगर उनसे हर शिकायत करता रहा था। आज मैं उनसे शिकायत करना चाहता था कि माँ मात्र पैदा करना तुम्हारा काम नहीं था। तुम्हारा कर्तव्य यह भी था कि शिक्षा-सँस्कार के अदृश्य बंधन से तुमने मुझे ऐसे बाँध दिया होता कि मेरे कर्म किसी की गरिमा या जीवन को क्षति करने वाले न होते।"
मगर उनके रुदन को देख यह नहीं कर सका था। मैं उन्हें और वेदना नहीं देना चाहता था।
मुझे लगा था "मैं फिर कायर के तरह सोच रहा हूँ। अपराध के समय मेरी उम्र 24 हो चुकी थी, तब मैं अबोध नहीं रहा था। मुझे प्राप्त विवेक बुध्दि में उचित-अनुचित का भेद स्वयं होना चाहिए था, मुझे किसी माँ-पिता के लाड़-दुलारी पर यों नृशंसता नहीं करने से स्वयं को रोकना चाहिए था। अपने बुरे काम का आरोप माँ-पिता पर रख देना मेरी कायरता ही होगी।"
 मेरे इस विचार ने भी मुझे रोका था। 
मुझे तब बोध भी हुआ था कि "मेरे किये हुये घिनौने नृशंस अपराध का दंड, मुझसे ज्यादा मेरे माँ-पिता और पत्नी भुगत रहे थे। अधमरे से हुए ये तीनों, इनका जीना, मर जाने से, कोई ज्यादा अच्छा नहीं था। फिर भी इन्हें जीना था, जबकि आशंकित फाँसी, मुझे मानसिक यातनाओं से निजात दिला देने वाली थी।"उनके रुदन ने मुझे, कानूनी पैतरों वाले कागजात पर, हस्ताक्षर करने को बाध्य किया था, जिसमें मुझे फाँसी नहीं दिए जाने लिए कई तर्क उल्लेखित थे। फिर वे चले गए थे।
उनके जाने के बाद, एकांत में, उस अपराध पीड़िता, लड़की के माँ-पिता और भाई आदि की मानसिक यंत्रणाओं का भी मुझे अनुभव हुआ था, जिनकी लाड़ दुलारी,सलोनी वह बेटी, मेरी निर्ममता से अकाल चली गई थी। मैं रीअलाइज़ कर सका कि-
"मुझ अपराधी बेटे की मौत की आशंका ही जब मेरे माँ-पिता को भीषण दुःखदाई है, तब उनकी क्या हालत है जिनकी निर्दोष मासूम बेटी पर पहले मैंने दुराचार किया था और फिर अत्यंत वेदनादाई मौत को विवश किया था। " 
  • क्या, वे मेरे परिजनों से कम बुरी हालत में होंगे!
  • मुझे दया आई थी, अपनी माँ पर, जिसकी कोख से जन्म लेकर, मैंने उसे कलंकित किया था।
  • मुझे दया आई थी, उस ममता पर, जो स्वयं अधमरी/लाचार होकर भी मेरे जैसे अयोग्य बेटे के (भले ही कारावास में हो) जीवन की कामना करती थी।
  • फिर मेरी फाँसी की तिथि तय हो गई थी।
और आज, मैं फाँसी पर लटकाया जा रहा था। "मेरे सिर पर पहनाया कपड़ा और फंदा उसी भाँति था, जिसे हमारे स्वतंत्रता के दीवाने, शहीद भगतसिंग ने पहना था।"अंतर बस इतना था कि -उनके ,ऐसे फंदे पर झूल जाने पर, पूरा देश और मानवता, फफक फफक के रोये थे। और मेरे लटकने पर देश में खुशियों की तरंग बहने वाली थी। मानवता पुष्ट होने वाली थी।मैं रो रहा था, फिर भी मुझे, अपने किये की सजा कम लग रही थी। फिर मुझे याद नहीं रहा था।
माटी में मिलकर भी माटी पर लगाया मेरा कलंक शायद कई काल तक बने रहने वाला था।
लेखक ने अंत में लिखा था-
"हर किसी को जीवन जीने का प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, किसी के द्वारा किसी भी कारण या तर्क से वह अधिकार छीनना भीषण दुखदाई है। हमारी मानव सभ्यता को अभी उस मंजिल तक पहुँचना है, जहाँ हरेक मनुष्य प्रकृति का आदर करते हुए किसी के जीवन के हक में अपना कोई हस्तक्षेप नहीं करता हो। जहाँ जीवन प्रवाह किसी भी अंधविश्वास या कानूनी नियंत्रण से अस्तित्व नहीं बनाये रखता, अपितु प्रत्येक मनुष्य की विवेक-बुध्दि ही उसके स्वयं के प्रयत्नों से अन्य को जीवन सुलभ करने में सहायक होती है.."


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04.02.2020

Sunday, February 2, 2020

गणित ...

गणित ...

शासन द्वारा यध्यपि सेवा निवृत्ति की उम्र बढ़ा दिए जाने से, तब मुझे 3 वर्ष और, सेवा के अवसर थे, किंतु सेवानिवृत्त होकर पद रिक्त करने से किसी युवा के लिए जॉब का अवसर बनेगा, ऐसा विचार कर मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली थी।
इस निर्णय पर पहुँचने के लिए मेरा एक और विचार सहायक हुआ था कि 'अब तक के जीवन में, जो प्रमुख रूप से मेरे कार्य अपने एवं परिवार के हित से प्रेरित रहे थे, उन्हें समाज हित दिशा में मोड़ना, रहा था'
वस्तुतः इस विचार के पीछे मुझमें उस 'जिम्मेदारी के अहसास' की भूमिका थी, जो मुझे यह अनुभव कराती थी कि 'गणेश शर्मा ', तू जिस समाज की सहायता से, इतना जीवन देख सका है, उसके अनुग्रह की भरपाई के लिए तुझे  समाज परिवेश को पुष्ट करने के लिए परोपकार के उदाहरण बनते तरह के, कुछ कर्म अपने सामर्थ्य अनुरूप करने चाहिए।
सेवा निवृत्ति के दूसरे दिन से ही मैंने अपनी कार्य योजना का 'शाब्दिक रूपांकन', जिलाधीश महोदय को जानकारी देने के लिए, उनके कार्यालय में जमा किया था। उसमें, मेरे अनुरोध अनुसार जिलाधीश महोदय द्वारा मुझे तीन दिन बाद, कार्यालय बुलाया था। मेरी योजना के, मेरे द्वारा सफल रूप से क्रियांवित किये जाने के लिए, उन्होंने मुझे, शुभकामनायें दी थी।
छोटी सी इस योजना के लिए जिसमें किसी से कोई वित्तीय सहायता आवश्यक नहीं थी में, अन्य प्रकार से किसी भी मेरी अपेक्षित सहायता को प्रशासन द्वारा सुनिश्चित किये जाने का उन्होंने भरोसा दिलाया था।
तत्पश्चात, मैंने महीने भर के भीतर, एक कमरा, तीन हजार के किराये पर लिया था। उसमें क्लास रूम में लगने वाला वाला, कम खर्चीला फर्नीचर लगभग 50 हजार रूपये व्यय कर व्यवस्थित कराया था।
साथ ही मैंने पर्चों (पम्पलेट्स) के माध्यम से योजना का प्रचार किया था।तदुपरांत गणित विषय की पढ़ाई के लिए, एक शैक्षणिक सत्र के 2400 रूपये के शुल्क पर साक्षात्कार के जरिये, कक्षा 6 से 9 तक के, बारह-बारह बच्चों का चयन, किया था।
मेरे द्वारा चयन का आधार, पिछली कक्षा में बच्चों का गणित विषय में स्कोर 60% से 70% का होना निश्चित किया गया था। मैंने, चयन में बालिकाओं को प्रमुखता दी थी, जिनके मन में गणित के कठिन होने का भय ज्यादा होता है। जिससे, चयनित 48 बच्चों में 32 बालिकायें एवं 16 बालक थे। 
इस सबके उपरांत, जुलाई माह से, मैंने सप्ताह में छह दिन, प्रतिदिन 4 घंटे अध्यापन के लिए देना आरंभ कर दिया था।
मैं प्रति सोम, बुध एवं शुक्र में कक्षा 6 एवं 8 तथा रवि, मंगल एवं गुरुवार  को कक्षा 7 एवं 9 को 2-2 घंटे के कालखंड में उस शैक्षणिक सत्र भर शिक्षण देता रहा था। 
किन्हीं किन्हीं कारणों से, तीन बच्चे, सत्र के बीच ही मेरे क्लॉस रूम की, पढ़ाई छोड़ चले गए थे, जिन्हें उनके जमा शुल्क का कुछ अंश, मैंने लौटा दिया था।
मेरी क्लॉस में जुलाई से फरवरी तक 45 बच्चे नियमित रहे थे। जिनके स्कूल परीक्षा परिणाम, मार्च में आये थे। जिनमें, 18 बच्चों ने 90% से ज्यादा अंक प्राप्त किये थे। जिन्हें योजना में निर्धारित अनुसार मैंने, उनका जमा शुल्क वापिस कर दिया था।
शेष 27 में से 22 बच्चे 80% से ज्यादा स्कोर करने में सफल हुए थे। 5 बच्चे ऐसे रहे थे जिनके परिणाम ज्यादा बेहतर नहीं हुए थे। 
जिलाधीश महोदय की जानकारी के लिए, तब मैंने अपनी रिपोर्ट तैयार की थी, जो यूँ थी -
आय बच्चों से प्राप्त शुल्क (48X2400)                                  115200 रूपये
व्यय शिक्षण त्याग किये बच्चों को लौटाया शुल्क                       3900 रूपये
प्रोत्साहन के लिए बच्चों को लौटाया शुल्क  (18X2400)    43200 रूपये
क्लॉस रूम किराया                                                         36000 रूपये
बिजली बिल, राशि                                                         10800 रूपये
अन्य व्यय                                                                       6400 रूपये
अध्यापन सहायक का वेतन                                            40000 रूपये
कुल                                                                             143000 रूपये
इस तरह 'बिना लाभ हानि' के आधार पर बच्चों के अध्ययन सहायता की योजना में वित्तीय हानि 27800 रूपये थी।
जिलाधीश महोदय ने मेरी रिपोर्ट पर यह टिप्पणी देते हुए, मूल प्रति अपने कार्यालय में रख, छाया प्रति मुझे लौटाई -
"आदरणीय गणेश शर्मा जी, आपने 27800 की राशि ,मानवता को पुष्ट करने के पावन कार्य के लिए निवेशित की है। प्रशासन आपके इस वर्ष के इस कार्य को इस आशा से प्रचारित/प्रसारित करेगा कि मानवता को पुष्ट करने के लिए और भी ,हमारे वरिष्ठ नागरिक, अपने अपने प्रयोग के साथ आगे आयें जिनसे हमारे समाज में सकारत्मकता सशक्त हो सके। "मैं जिलाधीश महोदय की टिप्पणी से भाव अभिभूत हुआ - मुझे प्रतीत हुआ कि बच्चों को गणित में प्रावीण्यता दिलाने के अपने प्रयास में, मैं मानवीय जीवन-गणित को समझने में प्रवीण हुआ ...

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
02.02.2020