भव्य आयोजन
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सम्पन्न परिवारों द्वारा आनन्द अवसरों के लिये आयोजन किये जाते हैं , उनमें भव्यता ,सुविधाओं , आधुनिक इंस्ट्रूमेंट्स , भोज्य , आरामदेह साजो-सामान ,वस्त्र ,परिधान और आभूषणों से मिलजुलकर एक नयनाभिराम छटा उपस्थित होती है ,जिसमें गरिमापूर्ण व्यक्तियों की उपस्थिति आयोजन में चार चाँद लगाते हैं . उनके शिष्टाचार , ज्ञान ,व्यवहार ,सुन्दरता , चेहरों पर दमकता उल्लास ,प्रसन्नता और सम्मान -सत्कार वह दृश्य प्रस्तुत करता है जो उसमें सम्मिलित और बाहरी दर्शकों को बड़ी प्यारी और मन भावन लगता है . विशेषकर विवाह अवसर के ऐसे दृश्य पूर्णिमा के चंद्रमा और तारामंडल सी प्रस्तुति बन एक मनोहारी छटा बिखेरती है जो सभी को भली -आकर्षक लगती है . लेखक को भी ये सर्वजनों की भाँति लुभाती ही है …
आज की सामाजिक आवश्यकता और ऐसे भव्य आयोजन
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जो अति सम्पन्न हैं उनको ऐसे भव्य आयोजन पर व्यय और व्यवस्था में कोई अड़चन नहीं होती . किन्तु हमारे समाज में अति सम्पन्न ऐसे समर्थों की संख्या सीमित ही है . वर्तमान समय में आडम्बरों से प्रभावित हो उनकी नक़ल करने की प्रवृति बढ़ी है . इस प्रवृति के लिए दोषी यद्यपि सम्पन्न वर्ग नहीं है . लेकिन हमारे समाज में टीका टिप्पणी और नवयुवाओं और बच्चों के जीवन अनुभव की अल्पता और सिने और अन्य माध्यमों पर आडम्बरों की प्रचुर प्रस्तुतियाँ अपने घर परिवार में विवाह आयोजनों को भव्यता प्रदान करने के लिये वर और कन्या पक्ष दोनों को ही बाध्य करती हैं। समाज में ऐसी सम्पन्नता कम है अतः भव्यता की सही नक़ल में तो कसर रह ही जाती है , बहुत दृष्टि से सामाजिक अच्छाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अतः ऐसे भव्य आयोजन को समाज दृष्टिकोण से परखने की आवश्यकता है .
भव्य आयोजन के प्रतिकूल प्रभाव
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संपन्न क्षमता अनुसार भव्य आयोजन करें तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है . ऐसे आयोजन तब परेशानी के कारण बनते हैं ,जब इन्हें देखकर जिनकी क्षमता नहीं होती वे ऐसे आयोजन करना चाहते हैं . यद्यपि वे अपने आयोजनों को भव्यता तो प्रदान कर नहीं पाते किन्तु इस प्रयास में बहुत प्रतिकूलताओं को आमंत्रित कर लेते हैं जैसे -
* व्यय आधिक्य से कर्जदार हो जाते हैं ,या जो धन जीवन की दूसरी आवश्यकताओं के लिये संग्रहित था उसे नक़ल पर गवाँ देते हैं .
* आयोजन का मानसिक दबाव होने से नींद नहीं ले पाते , रोग आमंत्रित करते हैं .
* खानपान भी पैसे की कमी और भव्यता की नक़ल के बीच ना तो स्वयं के ना ही अतिथि के लिए स्वास्थ्य वर्धक रह पाता है.
* भव्यता के लिये आमंत्रितों की संख्या बढ़ा लेते हैं. आज के व्यस्त समय में उन्हें आने /ना आ पाने के धर्मसंकट में डालते हैं.
* धर्मसंकट से उबर कर ज्यादातर आमंत्रित यदि पहुँच गये , तो उनका यथोचित सत्कार नहीं कर पाते हैं. या तो भीड़ इतनी हो जाती है ,जिसमें चल-बैठ पाना तक कठिन होता है या फिर भोज्य ही कम पढ़ जाता है. किसी आमंत्रित की उपस्थिति पर उन्हें जितना सम्मान , ध्यान और समय देना चाहिये उतना दिया नहीं जा पाता . तब आमंत्रित अप्रसन्न हो विदा लेता है.
* विवाह में जितना आनंद मिलना चाहिये वह तो मिलता नहीं बल्कि अनियंत्रित हो रहे आयोजन के कारण मानसिक तनाव और चिंता ही अधिक मिलती है.
* सामर्थ्य से अधिक व्यय कर लेने पर पहले और बाद भरपाई करने की जुगत में अनीति का व्यापार / सेवा देते हैं.
भव्य या सादगीपूर्ण आयोजन - औचित्य
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भव्यता के दिखावे में पड़ने के स्थान पर यदि सादगीपूर्ण विवाह आयोजन किये जायें तो उपरोक्त वर्णन के विपरीत सर्व लाभकारी होगा -
* आयोजन व्यय सामर्थ्य सीमा में होंगे . कोई अनीति धन बटोरने के लिए नहीं करनी होगी.
* आयोजन में आमंत्रित सीमित संख्या में होंगें , जो कम परिचित आमंत्रण के बाद धर्मसंकट में पड़ते हैं वे बचेंगे और उपस्थित हुये आमंत्रित सीमित संख्या में साथ ही ज्यादा निकटवर्ती होंगे जिन्हें हम यथोचित सम्मान -सत्कार दे सकेंगे . इस तरह आयोजन का आनंद आमंत्रित तो लेंगे ही हम भी वास्तविक उल्लास इस अवसर का अनुभव कर सकेंगे.
* प्रस्तुत भोज्य जितना सादगीपूर्ण होगा उतना स्वास्थ्यकारी होगा जिसके सेवन से किसी को स्वास्थ्यगत कठिनाई की संभावना कम ही होगी .
सादगीपूर्ण आयोजन और आधुनिकता
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आधुनिकता वास्तव में उस वस्तु में निहित होती है जो समाजोपयोगी होती है . समाज में आ गई खराबी को मनुष्य का जो आविष्कार ,कर्म और आचरण मिटाता है वह आधुनिकता होती है . पाषाण कालीन युग से आज तक की यात्रा मनुष्य ने ऐसी आधुनिकता पर सवार होकर ही की है . लेकिन हमारा समाज उस काल में आया है जहाँ आधुनिकता की भ्रान्त परिभाषा प्रचलित है . जिसमें नीति -न्याय के स्थान पर आडम्बरों और झूठे प्रदर्शन को आधुनिकता कहा और माना जा रहा है . हमें आधुनिकता की परिभाषा सही करनी होगी . सादगीपूर्ण आयोजन जो समाज के लिये सभी दृष्टि से उचित होंगे, उन्हें करने वालों को हमें आधुनिक बताना होगा.
इसलिए जिन सामर्थ्यशाली के लिए सरल होगा वे भी यदि भव्य के स्थान पर सादगीपूर्ण आयोजन करने के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो वे आज के समाज के आधुनिक (मॉडर्न) होंगे , नेतृत्व होंगें जिन्हें देख कर कम सामर्थ्यवान का सादगी पर विश्वास आएगा वह यह देखकर अपने से तर्क कर सकेगा "जब एक बड़ा आदमी आयोजन पर कम व्यय कर रहा है तो मै अपनी क्षमता से अधिक क्यों करूँ? " .
सादगीपूर्ण आयोजन और आज के युवा और बच्चे
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हमारा स्वयं का भरोसा डिग गया है ,इसलिए सादगीपूर्ण आयोजन का पक्ष सही तरह से बच्चों के समक्ष हम रख नहीं पाते हैं, फिर "क्या करें बच्चे इसके लिए मानते नहीं" कहते हुए उनके मत्थे दोष डालते हुए ,थोथे आडम्बरों के थपेड़ों की दिशा में चलते जाते हैं . और फिर स्वयं समाज हानिकर कर्म -आचरण करते हुए आज के समाज को ख़राब कहते जाते हैं . इस हलके से जीवन बसर करते हम ना तो अपना और ना ही समाज का भला कर सकेंगे . और जब तक एक जिम्मेदार सोच वाली पीढ़ी नहीं आएगी। . समाज निरंतर पतन उन्मुख गति करता जाएगा.
हम इस दायित्व को अगली किसी पीढ़ी पर ना छोड़ते हुये कुछ सामाजिक दायित्वों का स्वयं बोध करें अपनी कमियों पर नियंत्रण करें और समाज को नियंत्रित करें अपने कर्मों का समाज और बच्चों पर होने वाले प्रभाव को समझें और फिर ऐसा करने की आदत डालें जो इन्हें सही तरह से प्रभावित कर सके .
हम सच्ची आधुनिकता लायें ..
--राजेश जैन
19-12-2013