Tuesday, December 31, 2013

आतिशबाजी के शोर में सोते से जागकर

नववर्ष मंगलमय प्रसन्नता बरसाये
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"क्या था जी मुझ साधारण में ?
सब कैमरे कमाल बने थे
दृष्टि ही आपकी सुन्दर थी
जो रूप असाधारण देखती थी "

-- हम नववर्ष 2014 को इस दृष्टि से देखें

"नववर्ष सभी को शुभ हो "

--राजेश जैन                      (आतिशबाजी के शोर में सोते से जागकर )
01-01-2014

Friday, December 27, 2013

बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना

बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना
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जीवन पथ पर अग्रसर चाहे -अनचाहे कर्म नित जुड़ते जाते हैं , हम कुछ प्रयोग भी करते जाते हैं. हम यदि समय समय पर इनके हुए परिणाम पर गौर करें और विचार करें तो हमारे कर्म और नए प्रयोगों की मलिनता हमें दृष्टिगोचर होती है , थोड़े यत्नों से आगे के हमारे कर्मों से यह मलिनता कम होती जाती है. क्रम "गौर और विचार" करने का जारी रखा जाए तो ठीक उस भाँति जैसे बहती सरिता का गंदला नीर बहते बहते मलिनता मुक्त होता जाता है वैसी निर्मलता हमारे कर्मों में आ सकती है.

आज लगभग हर घर -परिवार में बड़े हो रहे और शिक्षारत बच्चे के मन में और पालक के आशाओं में यह बैठाया या बैठा होता है कि आगे जीवन में वह अच्छा कमा कर बड़ा या धनवान व्यक्ति बनेगा।

कम ही ऐसे माता-पिता होंगे जो यह सोचते और ऐसे संस्कार और शिक्षा बच्चे को देते हैं , जिसमें बच्चे से अपेक्षा धनवान होने के स्थान पर उनके कर्मों से महान बनने की होती हो।

धनवान तो अनेकों बन गये या सब कुछ सामर्थ्य लगा देने के बाद अनेक धनवान हो ही नहीं सके. लेकिन धनवान होने की जुगत में सब लगे रहने से जो छीना -झपटी /लूट खसोट का वातावरण निर्मित हुआ है उसमे न्याय -नीति ,शांति और सामाजिक सौहाद्र का अस्तित्व ही मिटता जा रहा है.
अगर हम " न्याय -नीति ,शांति और सामाजिक सौहाद्र" को अस्तित्वविहीन होते नहीं देखना चाहते तो हमें अपने घर में लालन-पालन में बढ़ते   बच्चे से आशा और उसके मन में यह विचार संकल्प डालना होगा "बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना" .

धनवानों ने भी (पाश्चात्य देशों में ) जो दुनिया बनाई है वह दूर से सुन्दर -सुहावनी तो लगती है किन्तु वहाँ मनुष्य जीवन यांत्रिक (मैकेनाइज्ड ) हो गया है.
सुख सुविधाओं और भोग-उपभोग में जीवन बिता देने के बाद भी जीवन संध्या पर ठगा सा अनुभव करता है.

मनुष्य और मनुष्य जीवन इसलिए धन से नहीं महान कर्मों से निर्मित होना चाहिए अन्यथा दुनिया ऐसी दिशा में बढ़ रही है जहाँ जाकर भूल सुधार की आवश्यकता अनुभव होगी और अगली किसी पीढ़ी के लिए बाध्यकारी होगा। हम चाहें तो इस चरम सीमा पर पहुँचने से बचा सकते हैं दुनिया और इस समाज को.

हर कोई तो महान बन नहीं सकेगा , और प्रचारित महान तो कई हो सकेंगे पर वास्तविक महान बिरले होंगे। आज दुनिया को ऐसे महान व्यक्तियों की आवश्यकता है जो प्रचारित नहीं सच्चे महान हों। मानवता रक्षक हमारी ही पीढ़ी बनके उभरे इस हेतु हमें बच्चे से कहना होगा
"बेटे तुम धनवान बनना अथवा नहीं कोई महत्व नहीं किन्तु सच्चे महान बनने का प्रयास अवश्य करना "

हमारे अनेकों घर में जब ये विचार -संस्कार अनेकों बच्चों के मन में  डाले जायेंगे तब कुछ महान बन संकेंगे , और बहुत से महान बनने के प्रयास में अच्छे मानव बन सकेंगे.

राजेश जैन
28-12-2013

Wednesday, December 25, 2013

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार
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इतना है तुमसे प्यार हमें मेरे राजदार , जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार …
करती है फ़रियाद ये धरती कई हजारों साल तब जाकर पैदा होता है एक   ….
जब तक सूरज चाँद रहेगा " " तेरा नाम रहेगा …
तुम जियो हजारों साल , साल के दिन हों पचास हजार   …

उपरोक्त तरह की पंक्तियाँ कवियों ,गीतकारों की कल्पनाओं में आईं ,एक गीत ,कविता बन अमर हुईं  . और जिन्होंने सुना शब्दों में जुड़ी भावनाओं और कामनाओं को ह्रदय से दाद भी दी  … आगे भी दाद देने और कवि अमर कल्पनाओं का क्रम जारी रहेगा  . इस तरह की रचनाओं में अतिशयोक्ति कल्पना ,अलंकार और किसी क्षण की किसी के बारे में चरम भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है  .

लिपिबध्द करता साहित्यकार भी इन कल्पनाओं और भावनाओं की पूर्ति को लेकर शंकित ही रहता है  . शब्दों में अभिव्यक्त करना तो कला है किन्तु किसी के कर्म ,धर्म इतने पवित्र और महान अति अति बिरले ही होंगें जब की इन चरम कल्पनाओं का थोडा अंश भी पूरा होता हो  .  भला सूरज ,चाँद और तारों का दीर्घकालिक अस्तित्व , उनकी संख्या (तारों की) इत्यादि की कोई थाह है ही नहीं इसलिए किसी का जीवन , किसी की प्रसिद्धि या किसी का समर्पण (स्नेह ,प्यार का ) इतना दीर्घजीवी या तादाद इतनी विशाल हो ही नहीं सकती  .

फिर मन में प्रश्न आना स्वाभाविक है कि इस तरह की पंक्तियाँ लिखने और पढ़वाने में क्यों अनेकों का समय व्यर्थ किया जाता है  . वास्तव में जिनकी पूर्तियाँ असम्भव हैं ऐसी शुभकामनाओं और मंगल भावनाओं से सजे साहित्य का निहित अर्थ और सरोकार होता है  . वह होती है एक प्रेरणा जो भव्य विशाल लक्ष्य की दिशा में किसी समाज या पीढ़ी को दी जाती है  . जिससे मानव समाज में अच्छाई की निर्मल गंगा अविरल प्रवाहित होती रह सकती है  .  इस तरह के साहित्यिक सृजन मानवता होती है ,मानवता रक्षक होती है  .

हमें मधुर लगती ये शुभकामनायें  और मंगल भावनायें हम सतही तौर पर ग्रहण ना करते हुये , इसे तनिक गम्भीरता से लें और पालन की दिशा में तनिक भी सचेत हों तो हम अपने परिवार ,समाज  और राष्ट्र को वह गरिमा दे सकते हैं  जिसका यहाँ अभाव स्वयं हमें खटकता और बैचैन कर रहा है  .

हम किसी को इस तरह तो चाहें ,जहाँ धन की लाभ हानि की दृष्टि से धोखा या फरेब हमारे ह्रदय ,कर्म और आचरण में ना आये  .
हम अपने प्यार को वह विशालता दें जहाँ वासना से दैहिक शोषण के कारण हमारा प्यार कलंकित ना हो जाये ,हमारा प्यार समर्पण इस तरह का बने जो दैहिक आकर्षण सम्बन्धों से ऊपर हो जिसमें ऐसी संकीर्णता ना हो जिसके वशीभूत हम अपने प्रिय के ह्रदय को आहत कर उसके ही बैरी बन जायें अगर इस दोष से अपने प्रेम को मुक्त करें तो निश्चित ही हम अपने संस्कृति अनुरूप चरित्रवान होंगे  . हम एक नहीं अनेकों के प्रिय और प्रेमपात्र होंगे  . अवश्य ही यह आजकल कहा जा रहा प्रेम (फ़्लर्ट ) नहीं होगा  . यह प्रेम वह होगा जिसमे हम अनेकों की दृष्टि में (ह्रदय में) पिता, बेटे या भाई  सदृश्य बस रहे होंगे.

मानवता और समाजहित इस एप्रोच  में ही विदयमान होता  है 

--राजेश जैन
26-12-2013

Monday, December 23, 2013

बिखरते परिवार - एक दृष्टि

बिखरते परिवार - एक दृष्टि
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एक परिवार होता है. माँ-पिता भाई -बहन के बीच एक बच्चा पलता और बढ़ा होता है. माँ -पिता का अंश होता है , भाई -बहन स्वयं छोटे होते हैं जबसे इस बच्चे को मासूम और बाल-सौंदर्य और निच्छल रूप में देखते लाड़ -दुलार से अपने बीच रखते हैं. इस  लाड़ -दुलार के मध्य बच्चा बाल सुलभता से ऐसे हठ भी करता है, जिसकी पूर्ति यद्यपि ठीक नहीं होती लेकिन बच्चे की उदासी अप्रिय लगती है अतः इसे मान लिया जाता है. यह क्रम निरंतर चलता जाता है. बच्चा हठी होता है. अभी 15-16 वर्ष का होता है महँगे वस्त्र , बाइक और मोबाइल इत्यादि चाहने लगता है. कुछ परिवार के लिए ये कठिन नहीं होते लेकिन कुछ कठिनाई में इन की पूर्ति मोहवश या बच्चे की हठ में करते हैं. यहाँ तक बच्चे को कुछ नहीं कहा जाता उसकी मानी जाती है. फिर बच्चा उच्च शिक्षारत हो जाता है. यहाँ अपेक्षा उससे प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन की होती है जिसके लिये पढ़ना लिखना अनिवार्य होता है. लेकिन महँगी ऑसेसरीस जो उसे परिवार विपरीतता में भी दिलाता आया है बच्चे के मन भटकाव के कारण बनते हैं. परिणाम होता है बच्चा जो अब युवक है कम अच्छी जगह पहुँच पाता हैं जहाँ धन अर्जन कम होता है.

परिवार लाड -प्यार से पालते हुए भी बच्चे से एक अपेक्षा करता है कि बढ़ा होने पर अच्छा पढ़ लिखकर वह अच्छी आय कर परिवार को सहारा देगा  . लेकिन बचपन से प्राप्त होती आयी महँगी वस्तुयें बच्चे की आदत बन चुकी होती है. स्वयं की इक्छापूर्ति उसकी आय में कठिन होती है ऐसे में परिवार की आर्थिक अपेक्षा उसे कष्ट देती है. अगर ऐसे में ब्याह हो गया तब नई सदस्या ( घर की बहु ) भी कुछ इसी तरह पली बढ़ी होती है. दोनों ही मिलकर अपनी आय और आवश्यकताओं में संतुलन नहीं रख पाते हैं.

जहाँ तक निभाया जा सकता है. अपने लाडले बेटे(भाई) से धन सहयोग नहीं चाहा जाता है लेकिन परिस्थितियाँ विपरीत हुईं तो अब बेटे को कहा जाने लगता है. आरम्भ में कुछ कठिनाई से वह माँ -पिता बहन या भाई के लिये कुछ करता है. लेकिन कई बार ऐसी आवश्यकता उत्पन्न होने पर वह चिढ़ने लगता है. पढ़ने लिखने के बाद स्वयं को समझदार मानते हुए, अपने माँ-पिता की बातों में समझ की कमी लगने लगती है.

फिर समय आता है जब घर के मुख्य कक्ष में माँ-पिता ,बेटे-बहु के मध्य आवेशित वार्तालाप दृश्य बनने लगते हैं. ऐसे एकाधिक अवसर बाद मन आपस में खट्टा होने लगता है. और एक दिन दोनों या कोई एक पक्ष साथ निर्वाह कठिन पाते हैं. अलग आवास ,अलग पथ अप्रिय तो लगता है किन्तु साथ रहने की अप्रियता से कम अप्रिय होता है.एक भारतीय परिवार इस तरह बिखरता है.

दोषारोपण कभी बेटे कभी बहु या माँ-पिता पर करना बाद की नीयती हो जाती है.

जब बच्चे छोटे होते हैं लाड-दुलार में भी कुछ मनाही वाँछित होती है. तब नहीं कहा जाता है. परिवार के प्रति कर्तव्यबोध कम वय में अनुभव होता है तो शिक्षारत समय में ज्यादा गम्भीरता प्रदर्शित करते हुए ज्यादा अच्छे परिणाम मिलते हैं. युवा बेटा ,व्यय अपनी निजी आवश्यकताओं और परिवार की आवश्यकताओं को जान समझ कर करता है. परिवार आजीवन एक और सुखी हो सकता है.

आवश्यकता हमें एक माँ-पिता होने पर कहाँ कहना चाहिए ( बालपन में ) ,कहाँ चुप रहना चाहिये इसे समझने की है.…
नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव
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बिखरते परिवार अंतर्गत नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिये  . लेकिन भ्रामक आधुनिकता लेखक के तर्कों को पुरातनपंथी कहेगी , इसलिये कुछ लेख की जगह इसे युवाओं को सोचने की सलाह ही दी जा रही है  .

जिन बातों में  आधुनिकता मानी जा रही है , ऐसी बातों के साथ जब कोई पति या पत्नी बन जाता है तो ना तो  पति और ना ही पत्नी को ये आधुनिकता अपने घर परिवार में सुहाती है. परिणाम नवनिर्मित परिवार का दो-चार वर्षों में बिखराव होता है , इस बीच यदि बच्चा जन्म ले चुका हो तो थोड़ा बड़ा होने पर वह स्वयं को दुनिया में बड़ी विषम स्थिति में पाता है  . अतः जो आधुनिकता नवयुवाओं को बाहर सुहाती है वास्तव में भ्रामक ही होती है. तब भी यदि इसे ही आधुनिकता कही जाये तो हमें परिवार संरचना को पुरातन कहने पर विवश होना पड़ेगा  . क्योंकि कथित आधुनिकता "परिवार संरचना" को पुष्ट नहीं करती है .

लेखक इसे ऐसी आधुनिकता निरूपित करता है जो कुछ काल में पुरातन और बड़ी बुराई कहलाई जाकर वर्जित हो जायेगी।  क्योंकि परिवार नहीं होंगे तो मनुष्य मनुष्य नहीं जानवर हो जाएगा  . इसलिए आज पुरातन सा लगने वाली परिवार संस्कृति आधुनिकता बन कर पुनः आएगी।  मनुष्य हम यदि हैं तो हमें मनुष्य तो बनना ही होगा।

करोड़ों वर्ष से परीक्षित और अनुमोदित "परिवार संस्कृति" के भूलवश  त्याग के लिये हमारी पीढ़ी इतिहास पृष्ठ पर दोषी नहीं ठहराई जाए इस हेतु आज हमें इसके बचाव के लिए जागृत होना पड़ेगा।  भ्रामक आधुनिकता के प्रचार से सम्मोहन को अपने पर से शीघ्र उतारना होगा। 

--राजेश जैन
23-12-2013
  
    

Saturday, December 21, 2013

सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार

सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार
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व्यक्तिगत नहीं यह ...(इस शीर्षक का पूर्व लेख )

स्मोकिंग के प्रभाव से जब हम अपने किसी साथी (मनुष्य ) को परशानी में पड़ते देखते हैं तो पीड़ा हमें भी होती है यह मसला इसलिए किसी सिगरेट पीने वाले का व्यक्तिगत नहीं , हम सभी का है .

24 मार्च को एक अपरिचित को सिगरेट पीते हुये देखने पर ना पीने को टोकने की परणिति उनसे आत्मीय सम्बन्ध बनने का कारण हुआ  . बाद के 8 महीनों की कुछ भेंट- चर्चा में कभी इस विषय पर छोटी मोटी चर्चा हुई  . अंततः कल  उन्होंने अवगत कराया कि 5 दिस. उनकी पत्नी का जन्मदिन था और इस दिन से अपनी 20 वर्षों से अधिक से चली आ रही सिगरेट की व्यर्थ आदत को उन्होंने आजीवन त्याग दिया है.

एक पत्नी को क्या जन्मदिन पर दिया जा सकने वाला उत्तम उपहार कोई दूसरा हो सकता है ?

"सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है
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अपने पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार-प्यार"
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सुनकर मुझे अगाध प्रसन्नता अनुभव हुई. मैंने इसका गर्मजोशी से इजहार  किया और उन्हें धन्यवाद भी कहा. यह निर्णय कतई मेरे टोकने के कारण नहीं हुआ था, इसकी वजह उनकी पत्नी का इस लत पर हमेशा कहना और इसके लिए मना करते रहना प्रमुख कारण था.

मुझे प्रसन्नता इस बात पर थी एक मेरे आत्मीय ने इक स्वास्थ्य वर्धक दिनचर्या अपनाने का क्रम आरम्भ किया  .
इसे पढ़कर इस तरह हमारे और साथी इस बुरी आदत को तजें , हम सभी की दिलीय ख़ुशी का कारण होगा

--राजेश जैन
22-12 -2013

Thursday, December 19, 2013

भव्य आयोजन

भव्य आयोजन
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सम्पन्न परिवारों द्वारा आनन्द अवसरों  के लिये आयोजन किये जाते हैं , उनमें भव्यता ,सुविधाओं , आधुनिक इंस्ट्रूमेंट्स , भोज्य , आरामदेह साजो-सामान   ,वस्त्र ,परिधान और आभूषणों से मिलजुलकर एक नयनाभिराम छटा उपस्थित होती है ,जिसमें गरिमापूर्ण व्यक्तियों की उपस्थिति आयोजन में चार चाँद लगाते हैं   . उनके शिष्टाचार , ज्ञान ,व्यवहार ,सुन्दरता , चेहरों पर दमकता उल्लास ,प्रसन्नता और सम्मान -सत्कार  वह दृश्य प्रस्तुत करता है जो उसमें सम्मिलित और बाहरी दर्शकों को बड़ी प्यारी और  मन भावन लगता है .  विशेषकर विवाह अवसर के ऐसे दृश्य पूर्णिमा के चंद्रमा और तारामंडल सी प्रस्तुति बन एक मनोहारी छटा बिखेरती है  जो सभी को भली -आकर्षक लगती है  . लेखक को भी ये सर्वजनों की भाँति लुभाती ही है  …

आज की सामाजिक आवश्यकता और ऐसे भव्य आयोजन
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जो अति सम्पन्न हैं उनको ऐसे भव्य आयोजन पर व्यय और व्यवस्था में कोई अड़चन नहीं होती . किन्तु हमारे समाज में अति सम्पन्न ऐसे समर्थों की संख्या सीमित ही है  . वर्तमान समय में आडम्बरों से प्रभावित हो उनकी नक़ल करने की प्रवृति बढ़ी है  . इस प्रवृति के लिए दोषी यद्यपि सम्पन्न वर्ग नहीं है  . लेकिन हमारे समाज में टीका टिप्पणी और नवयुवाओं और बच्चों के जीवन अनुभव की अल्पता और सिने और अन्य माध्यमों पर आडम्बरों की प्रचुर प्रस्तुतियाँ अपने घर परिवार में विवाह आयोजनों को भव्यता प्रदान करने के लिये वर और कन्या पक्ष दोनों को ही बाध्य करती हैं।  समाज में ऐसी सम्पन्नता कम है अतः भव्यता की सही नक़ल में तो कसर रह ही जाती है  , बहुत दृष्टि से सामाजिक अच्छाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अतः ऐसे भव्य आयोजन को समाज दृष्टिकोण से परखने की आवश्यकता है  .

भव्य आयोजन के प्रतिकूल प्रभाव
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संपन्न क्षमता अनुसार भव्य आयोजन करें तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है  . ऐसे आयोजन तब परेशानी के कारण बनते हैं ,जब इन्हें देखकर जिनकी क्षमता नहीं होती वे ऐसे आयोजन करना चाहते हैं  . यद्यपि वे अपने आयोजनों को भव्यता तो प्रदान कर नहीं पाते किन्तु इस प्रयास में बहुत प्रतिकूलताओं को आमंत्रित कर लेते हैं जैसे -

* व्यय आधिक्य से कर्जदार हो जाते हैं ,या जो धन जीवन की दूसरी आवश्यकताओं के लिये संग्रहित था उसे नक़ल पर गवाँ देते हैं  .
* आयोजन का मानसिक दबाव होने से नींद नहीं ले पाते , रोग आमंत्रित करते हैं  .
* खानपान भी पैसे की कमी और भव्यता की नक़ल के बीच ना तो स्वयं के ना ही अतिथि के लिए स्वास्थ्य वर्धक रह पाता  है.
* भव्यता के लिये आमंत्रितों की संख्या बढ़ा लेते हैं. आज के व्यस्त समय में उन्हें आने /ना आ पाने के धर्मसंकट में डालते हैं.
* धर्मसंकट से उबर कर ज्यादातर आमंत्रित यदि पहुँच गये , तो उनका यथोचित सत्कार नहीं कर पाते हैं. या तो भीड़ इतनी हो जाती है ,जिसमें चल-बैठ पाना  तक कठिन होता है या फिर भोज्य ही कम पढ़ जाता है. किसी आमंत्रित की उपस्थिति पर उन्हें जितना सम्मान , ध्यान और समय देना चाहिये उतना दिया नहीं जा पाता  . तब आमंत्रित अप्रसन्न हो विदा लेता है.
* विवाह में जितना आनंद मिलना चाहिये वह तो मिलता नहीं बल्कि अनियंत्रित हो रहे आयोजन के कारण मानसिक तनाव और चिंता ही अधिक मिलती है.
* सामर्थ्य से अधिक व्यय कर लेने पर पहले और बाद भरपाई करने की जुगत में अनीति का व्यापार / सेवा देते हैं.

भव्य या सादगीपूर्ण आयोजन - औचित्य
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भव्यता के दिखावे में पड़ने के स्थान पर यदि सादगीपूर्ण विवाह आयोजन किये जायें तो उपरोक्त वर्णन  के विपरीत सर्व लाभकारी होगा -

* आयोजन व्यय सामर्थ्य सीमा में होंगे  . कोई अनीति धन बटोरने के लिए नहीं करनी होगी.
* आयोजन में आमंत्रित सीमित संख्या में होंगें , जो कम परिचित आमंत्रण के बाद धर्मसंकट में पड़ते हैं वे बचेंगे और उपस्थित हुये आमंत्रित सीमित संख्या में साथ ही ज्यादा निकटवर्ती होंगे जिन्हें हम यथोचित सम्मान -सत्कार दे सकेंगे  . इस तरह आयोजन का आनंद आमंत्रित तो लेंगे ही हम भी वास्तविक उल्लास इस अवसर का अनुभव कर सकेंगे.
* प्रस्तुत भोज्य जितना सादगीपूर्ण होगा उतना स्वास्थ्यकारी होगा जिसके सेवन से किसी को स्वास्थ्यगत कठिनाई की संभावना कम ही होगी  .

सादगीपूर्ण आयोजन और आधुनिकता 
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आधुनिकता वास्तव में उस वस्तु में निहित होती है जो समाजोपयोगी होती है   . समाज में आ गई खराबी को मनुष्य का जो आविष्कार ,कर्म और आचरण मिटाता है वह आधुनिकता होती है  . पाषाण कालीन युग से आज तक की यात्रा मनुष्य ने ऐसी आधुनिकता पर सवार होकर ही की है  . लेकिन हमारा समाज उस काल में आया है जहाँ  आधुनिकता की भ्रान्त परिभाषा प्रचलित है  . जिसमें नीति -न्याय के स्थान पर आडम्बरों और झूठे प्रदर्शन को आधुनिकता कहा और माना जा रहा है  . हमें आधुनिकता की परिभाषा सही करनी होगी  . सादगीपूर्ण आयोजन जो समाज के लिये सभी दृष्टि से उचित होंगे, उन्हें करने वालों को हमें आधुनिक बताना होगा. 

इसलिए जिन सामर्थ्यशाली के लिए सरल होगा वे भी यदि भव्य के स्थान पर सादगीपूर्ण आयोजन करने के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो वे आज के समाज के आधुनिक (मॉडर्न) होंगे , नेतृत्व होंगें जिन्हें देख कर कम सामर्थ्यवान का सादगी पर विश्वास आएगा वह यह देखकर अपने से तर्क कर सकेगा "जब एक बड़ा आदमी आयोजन पर कम व्यय कर रहा है तो मै अपनी क्षमता से अधिक क्यों करूँ? " .

सादगीपूर्ण आयोजन और आज के युवा और बच्चे 
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हमारा स्वयं का भरोसा डिग गया है ,इसलिए सादगीपूर्ण आयोजन का पक्ष सही तरह से बच्चों के समक्ष हम रख नहीं पाते हैं, फिर "क्या करें बच्चे इसके लिए मानते नहीं" कहते हुए उनके मत्थे दोष डालते हुए ,थोथे आडम्बरों के थपेड़ों की दिशा में चलते जाते हैं  . और फिर स्वयं समाज हानिकर कर्म -आचरण करते हुए आज के समाज को ख़राब कहते जाते हैं  . इस हलके से जीवन बसर करते हम ना तो अपना और ना ही समाज का भला कर सकेंगे  . और जब तक एक जिम्मेदार सोच वाली पीढ़ी नहीं आएगी। . समाज निरंतर पतन उन्मुख गति करता जाएगा.

हम इस दायित्व को अगली किसी पीढ़ी पर ना छोड़ते हुये कुछ सामाजिक दायित्वों का स्वयं बोध करें अपनी कमियों पर नियंत्रण करें और समाज को नियंत्रित करें अपने कर्मों का समाज और बच्चों पर होने वाले  प्रभाव को समझें और फिर ऐसा करने की आदत डालें जो इन्हें सही तरह से प्रभावित कर सके .

हम सच्ची आधुनिकता लायें ..

--राजेश जैन 
19-12-2013






Saturday, December 14, 2013

धन महत्व की वीभत्सता

धन महत्व की वीभत्सता
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अगर ये सच है तो  "धन महत्व की वीभत्सता" पर क्षोभ है , ग्लानि होती है कि मनुष्य समाज के उस दौर के जीवन के अंग हम हैं ,जिसमें धन ने ऐसा वीभत्स सा महत्व बना लिया है.  धिक्कार है अपने सीमित सामर्थ्य पर जिसमें हम इस तरह के राक्षसी कृत्य की रोकथाम नहीं कर पाते हैं. ऐसा लिखने का कारण आज का समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार है जिसका संक्षिप्त विवरण निम्न है   .

उस कॉलेज के इंजीनियरिंग के एक असिस्टेंट प्रोफेसर (जिसका मै कभी विद्यार्थी रहा था) ने अपनी चार साल पूर्व की ब्याहता का गला दबाकर मारने का प्रयास किया  . विडंबना ये है कि इस पत्नी से तीन वर्ष की एक बेटी भी इस असिस्टेंट प्रोफेसर की है  . समाचार में कारण इस हैवानियत का दहेज़ लालसा बताया गया है।  यह असिस्टेंट प्रोफेसर युवा है इस बात की कल्पना उसे आज नहीं है कि , किसी दिन तीन वर्ष की उसकी बेटी बड़ी होकर विवाहित होगी  . उसके साथ उसका दामाद यह क्रूर कृत्य करे तो क्या होगी उसकी (असिस्टेंट प्रोफेसर) दशा एक ऐसी पीड़िता के पिता होने के नाते  .

भाग्य, क्रूरता के प्रयास के बाद भी मासूम युवती की जान बच गई है ( समाचार के साथ उनका जो फ़ोटो लगा है उसमें मासूमियत ही दृष्टव्य है ) .

मानव सभ्यता का यही प्रतीक होगा कि इस अप्रिय हादसे के बाद ये असिस्टेंट प्रोफेसर भूल सुधार कर अपने इस व्यवहार की क्षमा पत्नी , ससुराल पक्ष से तो मांगे ही  . समस्त इंजीनियर , अपने कॉलेज और विद्यार्थी से भी माँगे , जिन सब पर उसने एक कलंक का टीका लगा दिया है  . प्रोफेसर होने यह कर्तव्य भी होता है अपने विद्यार्थी को वह शिक्षा दी जाए , जो पढ़ने के बाद के विद्यार्थी के जीवन के लिए सहायक हो जिससे उनके सद्कर्म सुनिश्चित होते हैं  .

वह बेटी (मासूम तीन वर्षीया ) और अपनी विवाहिता के प्रति अपने दायित्व को समझे उन्हें निभाये  .... बिना प्रतिशोध के ( जो समाचार पत्र में प्रकाशन , और ससुराल पक्ष द्वारा पुलिस रिपोर्ट से उसकी बदनामी का कारण बनी है ) अपने परिवार को भविष्य में प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन में सहारा बने. और नारी के सम्मान करते हुए मानवता और पढ़े लिखे सभ्य (इंजीनियर ) के माथे पर लगाया उसके द्वारा कलंक के टीके को स्वयं अपने सद्कर्मों से मिटाये ऐसी आशा के साथ ....

--राजेश जैन
15-12-2013

Tuesday, December 10, 2013

मेरी माँ

मेरी माँ
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मेरी माँ , तुम्हारी तपस्या से
मेरी माँ , तुम्हारे संस्कार से
मेरी माँ , पिता योगदान से
मेरी माँ , कुछ बन सका में

मेरी माँ , शब्दों से नहीं मै
मेरी माँ , आचरण साफ रख
मेरी माँ , उज्जवल कर्म से
मेरी माँ , सम्मानित करूँ तुम्हें

मेरी माँ , मिलावट ना करूँगा
मेरी माँ , भ्रष्ट नहीं बनूँगा
मेरी माँ , हानिकर ना बाटूँगा
मेरी माँ , विश्वास करो माँ

मेरी माँ , यह समाज अपना है
मेरी माँ , साथी हमारे अपने हैं
मेरी माँ , बुराई बढ़ गई हैं
मेरी माँ , माँ उन्हें हटाऊँगा

मेरी माँ , सामर्थ्य थोडा है
मेरी माँ , कार्य कठिन है
मेरी माँ , कुछ और माँ
मेरी माँ , जन्में अच्छे बेटे

मेरी माँ , स्त्री सम्मान कर सकें
मेरी माँ , बहन -बेटी लाज बचायें
मेरी माँ ,  माटी की संस्कृति
मेरी माँ ,  भब्य विरासत बचायें

मेरी माँ , भगवान ना आएगा
मेरी माँ ,  साक्षात भगवान तुम हो
मेरी माँ , सच्चे सम्मान से तुम्हारे
मेरी माँ , सतयुग पुनः आएगा

--राजेश जैन
11-12-2013

Monday, December 9, 2013

माँ

माँ
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माँ , कितने लिख चुके
माँ , कितने कह चुके
माँ , कितने दिखा चुके
माँ , ये सब अधूरे हैं

माँ , तुमने किया जो
माँ ,तुमने दिया जो
माँ , तुमने जिया जो
माँ , वो बेमिसाल है

माँ ,साहित्य लिखा गया
माँ, भाषा लिखी गईं
माँ ,चित्राकंन किये गए
माँ , अपर्याप्त रहे हैं

माँ , तुम ही चरित्र हो
माँ ,तुम ही त्यागी हो
माँ , तुम ही मानव हो
माँ, तुम ही भगवान हो

माँ ,भगवान लिखा तुम्हें
माँ, मानवता कहा तुम्हें
माँ, पूज्यनीय कहा तुम्हें
माँ , तो भी कसर शेष है

--राजेश जैन
10-12-2013

अंडर कर्रेंट

अंडर कर्रेंट
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अनुमान जो लगाये गए उससे अलग ,एक दल के पक्ष में  प्रत्याशा से भी अधिक अच्छे चुनाव परिणाम आये . कहा जा रहा है यह इस राजनैतिक दल के एक विशेष व्यक्ति की उपलब्धि है . यह भी कहा जा रहा है कि युवाओं में उनका विशेष आकर्षण है .

लेख अराजनैतिक है नाम उल्लेखित किये बिना ही लिखा . किसी राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध भी नहीं और किसी व्यक्तिविशेष को महिमामंडित करना भी नहीं. अभिप्राय मात्र यह कि  अंतरप्रवाह (अंडर कर्रेंट ) की शक्ति को सहमत किया जाये . वह भी तब जबकि ऐसा अंडर कर्रेंट जो युवाओं में प्रवाहित होता है . प्रत्याशा से अधिक समर्थन इसलिए दिखा कि समीक्षकों ने युवाओं का उस दल को समर्थन भाँप कर अनुमान लगाये थे . उन्होंने युवाओं के मत गणना में लिए थे . यह चूक उनसे हो रही थी कि उन्हें युवाओं का वह परिवार जिसके वे सदस्य हैं ,नहीं दर्शित हो रहे थे . युवा जब किसी बात को कर गुजरने को तत्पर होते हैं तो अपने उत्साह ,उमंग से वह शक्ति प्राप्त करते हैं जिससे उनके पक्ष में परिजनों का भी मत हो जाता है . मतों का दल के पक्ष में बढ़ना इसी बात को धोतक है . स्वयं युवा ने तो दिया ही परिवार के मत को भी दल के पक्ष में प्रभावित कर दिया .परिणाम अन्य दलों के लिए अप्रत्याशित रहे , वे निराश भी हुए .

वर्त्तमान राजनैतिक परिदृश्य के उल्लेख से अपनी अराजनैतिक बात यह कहनी है कि जिस बात से किसी भी पीढ़ी के युवा प्रभावित और सहमत होते हैं उसका असर क्रांतिकारी परिणामों का कारण बनता है . आज का भारतीय युवा पाश्चात्य का पक्षधर है क्योंकि फ़िल्म /टेलीविजन और नेट पर जीवन का जो ताना -बाना उसके समक्ष खींचा जा रहा है उसमें भौतिकता (और  आडम्बर ) की प्रधानता है . साथ ही जिन परिवार के ये युवा सदस्य हैं उनमें से अधिकतर परिवार में अपनी संस्कृति और अच्छाई की महत्ता /महिमा का कोई विचार /चर्चा और आदर्श नहीं हैं .

फिल्मों,  टेलीविजन और नेट पर एक पक्षीय तरीके से पाश्चात्यता को ही जीवन लक्ष्य /जीवन सार्थकता  प्रतिपादित कर दिया गया . दूसरा पक्ष (हमारे संस्कार /संस्कृति और आदर्श ) इनपर अनुपस्थित रहे हैं . आज अधिकतर युवाओं ने भौतिकता ही देखी और समझी है . स्वयं भौतिकता के पीछे हो लिए और परिजनों को भी उसी तरह सोचने ,विचारने को सहमत कर लिया .पिछले तीस -चालीस वर्षों में प्रभाव हम सबने देखा,   देश में पश्चिमीकरण के रूप में बेहद तीव्रता से परिवर्तित होने का  .

अगर देश में से बुराई कम करनी है . अपनी साँस्कृतिक विरासत सुरक्षित करनी है ,उस भव्य विरासत की छत्रछाया में मनुष्य जीवन को उल्लास ,अभिप्राय और सार्थकता से जीना है तो युवाओं के ह्रदय और मन में वह बीज डालना होगा जिसमें भारतीयता की महिमा का अनुभव होता है . इसके लिए उन्हें वह दिखलाया जाना होगा जिसमें जीवन सार्थकता और आनंद सिर्फ भौतिकता (भ्रम) में ना दर्शित होता हो . भौतिकता का मनुष्य जीवन में एक सीमित महत्व होता है यह स्पष्ट करना होगा .

अगर ऐसा कर सके तो सामाजिक बुराई कम की जा सकेगी , समाज हित सुनिश्चित होगा और मानवता की रक्षा होगी .

-- राजेश जैन
09-12-2013

Wednesday, December 4, 2013

रक्तदान - अपेक्षा और भावना

रक्तदान - अपेक्षा और भावना
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रक्तदान आधुनिक मानवता अंतर्गत आती है . चिकित्सा विज्ञान के उन्नत होने के साथ यह तकनीक आ गई है , जिसमें किसी की रक्त-अल्पता के कारण उत्पन्न प्राणों के संकट से दूसरे किसी स्वस्थ व्यक्ति से रक्त लेकर उसे चढ़ाया जा सकता है और उसके प्राणों की रक्षा की जा सकती है .

थेलेसीमिया पीड़ित को रक्त-आवश्यकता एक नियमित अवधि में होती है . जबकि किसी अन्य को जीवन के किसी समय में दुर्घटना ,प्रसव में या रोग से रक्त-अल्पता आ जाने पर कभी किसी दिन रक्त दिया जाना होता है .

दयालु संगटन ,समाज सुधारक , एन जी ओ , चिकित्सा कर्मी इस हेतु रक्तदान को प्रेरित करते हैं ,जिससे रक्तकोष में रक्त उपलब्धता पर्याप्त रहे . इन की प्रेरणा और अपेक्षा से दयालु और स्वस्थ व्यक्ति रक्तदान में जागरूकता दिखा रहे हैं . इस तरह के समूह की प्रेरणा और अपेक्षा से किसी के द्वारा किया गया रक्तदान प्रशंसनीय है ही . किसी के प्राण रक्षक बनने का पुण्य  या उसके हितैषी होने का सन्देश तो हर रक्तदान से मिलता ही है .

अगर हमारी भावना रक्तदान करते समय सम्मान या प्रचार से भिन्न सिर्फ अपने इस सामाजिक दायित्व से प्रेरित हो तो और भी अधिक प्रशंसनीय हो जाती है .

आज जब छोटे से अपने जीवन में किसी- किसी बैर भाव से हम एक दूसरे के लहू के प्यासे तक हो जाते हैं . जिससे जीवन उल्लास से ना सिर्फ बैरी को वंचित करते हैं बल्कि ऐसे दुष्टता के भाव से हम स्वयं को भी जीवन उल्लास से वंचित करते हैं .ऐसे में रक्तदान वह पध्दति है जो हमें दुष्ट हो जाने से बचाती है . रक्तदान के माध्यम से अपनी धमनियों का जो रक्त हम दूसरे की धमनियों में प्रवाहित कर पाते हैं , वह बोध हमें ऐसे को जानकर लहू लुहान करने से रोकता है क्योंकि दूसरे की सिराओं में हमारा रक्त हमारी दयालुता और मानवता के वशीभूत प्रवाहित होता है . क्या हम स्वयं कभी अपना लहू मिटटी में मिलाते हैं ?

इस प्रकार रक्तदान के प्रति जागरूकता और इसे व्यापक करने पर हम समाज में आपसी विद्वेष की बुराई कम कर सकते हैं . जिसे आज समाज को बहुत आवश्यकता है .

रक्तदान में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर प्रत्यक्ष में तो एक या कुछ प्राण रक्षा करते हैं . किन्तु अप्रत्यक्ष हम अपने सामाजिक दायित्व पूरे करते हुए . मानवता का सन्देश प्रसारित करते हैं . इतिहास हमारी पीढ़ी को  मानवता रक्षक वर्णित करे इस हेतु हम रक्तदान को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनायें ..

--राजेश जैन
04-12-2013