धर्म
-----
धर्म बहुत से माने जाते हैं . धर्म सहस्त्रों वर्ष पुराने हो गए हैं . जिसके हम अनुयायी हैं उसके शास्त्रों में उल्लेखित घटनाओं पर ,सिध्दांतों पर ,चमत्कारिक स्वरूप पर हमें मानने में कोई शंका नहीं होती है . किन्तु प्रमाणित नहीं किये जा सकने के कारण अन्य धर्म के अनुयायी उस पर विश्वास नहीं करते जबकि उनके स्वयं के धर्म में भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे वे मानते हैं ,किन्तु दूसरे प्रमाणिकता पर शंका करें तो प्रमाण दिया जाना संभव नहीं होता . अर्थात आस्था है तो विश्वास कर लिया जाता है और अनास्था कि स्थिति में जिस पर (अन्य धर्म ) लाखों /करोड़ों का विश्वास होते हुए उसे प्रमाणों के अभाव में हम मानने /स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं .
सिध्द होता है कि धर्म तो अपनी -अपनी आस्था का है . विभिन्न धर्म (और उसके धर्मावलम्बी ) आपस में एक दूसरे को चुनौती देने को तत्पर हो सकते हैं . लेकिन एक तथ्य में किसी भी धर्म के अनुयायी को मानने में कोई संदेह नहीं होगा , वह यह है कि "उनके धर्म को जो सच्चे रूप से में जानता और पालन करता है वह पूरे प्राणी जगत के लिए भले ही भला नहीं होवे लेकिन मनुष्य मात्र के लिए भला ही होता है " . फिर भले ही अन्य मनुष्य किसी जाति /समाज ,दरिद्र अथवा रोगी ही क्यों ना हो .
जिन भगवान या अवतारों से किसी भी धर्म की उत्पत्ति या परम्परा चली है उन्होंने कभी नहीं चाहा या कहा कि उन्हें लाखों /करोड़ों माने . उन्होनें जीवन में सुखी रहने और परलोक अच्छा करने ( जिन धर्मों में जीव अनादि -अनंत माना है ) के सिध्दांत और मार्ग बताये हैं , उपदेश दिये हैं और पालना या ना पालना जीव विशेष पर छोड़ा है . होनहार अनुरूप स्वतः सभी की श्रध्दा आचरण और कर्म होते हैं . लेकिन ऐसा होने पर भी अनुयायी अपने धर्म के पालन करने वालों की संख्या पर जोर देते हैं . और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करते हैं .
हमारा लिखने और पढने का आशय यही होना चाहिए , कि हम अन्य के धर्म आस्था को अपने तरफ करने की अपेक्षा ना करें . यह अपेक्षा अवश्य करें कि धर्म का उथला ज्ञान ना रख सभी अपने अपने धर्म को पूरे सच्चे स्वरूप में जाने और माने . ऐसा हो सका तो मानव समाज सुखी हो जाएगा .
--राजेश जैन
21-10-2013
-----
धर्म बहुत से माने जाते हैं . धर्म सहस्त्रों वर्ष पुराने हो गए हैं . जिसके हम अनुयायी हैं उसके शास्त्रों में उल्लेखित घटनाओं पर ,सिध्दांतों पर ,चमत्कारिक स्वरूप पर हमें मानने में कोई शंका नहीं होती है . किन्तु प्रमाणित नहीं किये जा सकने के कारण अन्य धर्म के अनुयायी उस पर विश्वास नहीं करते जबकि उनके स्वयं के धर्म में भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे वे मानते हैं ,किन्तु दूसरे प्रमाणिकता पर शंका करें तो प्रमाण दिया जाना संभव नहीं होता . अर्थात आस्था है तो विश्वास कर लिया जाता है और अनास्था कि स्थिति में जिस पर (अन्य धर्म ) लाखों /करोड़ों का विश्वास होते हुए उसे प्रमाणों के अभाव में हम मानने /स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं .
सिध्द होता है कि धर्म तो अपनी -अपनी आस्था का है . विभिन्न धर्म (और उसके धर्मावलम्बी ) आपस में एक दूसरे को चुनौती देने को तत्पर हो सकते हैं . लेकिन एक तथ्य में किसी भी धर्म के अनुयायी को मानने में कोई संदेह नहीं होगा , वह यह है कि "उनके धर्म को जो सच्चे रूप से में जानता और पालन करता है वह पूरे प्राणी जगत के लिए भले ही भला नहीं होवे लेकिन मनुष्य मात्र के लिए भला ही होता है " . फिर भले ही अन्य मनुष्य किसी जाति /समाज ,दरिद्र अथवा रोगी ही क्यों ना हो .
जिन भगवान या अवतारों से किसी भी धर्म की उत्पत्ति या परम्परा चली है उन्होंने कभी नहीं चाहा या कहा कि उन्हें लाखों /करोड़ों माने . उन्होनें जीवन में सुखी रहने और परलोक अच्छा करने ( जिन धर्मों में जीव अनादि -अनंत माना है ) के सिध्दांत और मार्ग बताये हैं , उपदेश दिये हैं और पालना या ना पालना जीव विशेष पर छोड़ा है . होनहार अनुरूप स्वतः सभी की श्रध्दा आचरण और कर्म होते हैं . लेकिन ऐसा होने पर भी अनुयायी अपने धर्म के पालन करने वालों की संख्या पर जोर देते हैं . और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करते हैं .
हमारा लिखने और पढने का आशय यही होना चाहिए , कि हम अन्य के धर्म आस्था को अपने तरफ करने की अपेक्षा ना करें . यह अपेक्षा अवश्य करें कि धर्म का उथला ज्ञान ना रख सभी अपने अपने धर्म को पूरे सच्चे स्वरूप में जाने और माने . ऐसा हो सका तो मानव समाज सुखी हो जाएगा .
--राजेश जैन
21-10-2013
No comments:
Post a Comment