Tuesday, November 26, 2013

दैदीप्यमान

दैदीप्यमान
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मनुष्य जीवन सर्दी -गर्मी ,बरसात के मौसम के कुछ आनन्ददायी तो कुछ कष्टकारी प्रतिकूलताओं में बीतता है . इसी तरह कुछ उपलब्धियों ,सफलताओं की ख़ुशी तो कुछ विपरीतताओं तथा असफलताओं की निराशा के बीच भी जीवनयात्रा चलती जाती है .और एक मनुष्य इस तरह अंदर बाहर से पकता जाता है .

जिस तरह कोई फल सूर्य प्रकाश चक्र ( रात्रि में सूरज के ना होने से ,सुबह और शाम हलकी तीव्रता की धूप ,दोपहर को प्रखरता एवं अलग अलग मौसम से ) के मध्य छोटे से बड़ा और फिर पकते हुए स्वादिष्ट (या मीठा ) और पौष्टिक तत्वों से भर जाता है . बड़ा होने पर तथा पक जाने पर वह किसी दिन अपने वृक्ष डाली से टूट (या तोड़ लिए जाने से ) धरती पर गिरता है . जिसे कोई प्राणी या मनुष्य भोज्य रूप में ग्रहण करते हुए रसा - स्वादन लेता है तथा पौष्टिकता से लाभान्वित होता है . फल में कोई वैचारिक शक्ति नहीं होने से उसका बढ़ना -पकना और स्वादिष्ट होना ना होना सबकुछ परिस्थितियों पर निर्भर होता है . इसलिए स्वादिष्ट और पौष्टिक तो मनुष्य ग्रहण करता है , लेकिन कड़वा -अधपका या अपौष्टिक फल तिरस्कारित होता है . उत्पन्न प्रत्येक  फल, किसी ना किसी दिन अस्तित्व खोता ही है . किन्तु इसके पूर्व वह भली तरह पकता है तो उसके स्वाद और पौष्टिकता से ग्रहण करने वाला आनन्दित होता है , लाभान्वित होता है .
ऐसे भी फल होते हैं जिनमे ना तो मिठास (स्वाद) और ना ही पौष्टिक तत्व होते हैं .ऐसे फल  जो प्रकृति से ही गुणहीन होते हैं . उन्हें मनुष्य अलग कर देता है . आजकल गुणकारी फलों को भी पेस्टीसाईड्स , रासायनिक खाद के उपयोग और अधिक उत्पादन की व्यवसायिक दृष्टि से , फिर कृत्रिम रूप से जहरीले रसायनों के उपयोग से पकाया जाने लगा है . जिससे आकार और मात्रा तो बढ़ाई जा रही है किन्तु पौष्टिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है . इनका सेवन स्वास्थ्य दृष्टि से हानिकर हो जाता है .
स्पष्ट है कि उपयोगिता नहीं होने से या हानिकर होने से , कोई भी या कुछ भी धिक्कारा ही जाता है ..

मनुष्य भी पकते -बढ़ते किसी दिन अस्तित्व हीन हो ही जाता है . उसमें विचारशीलता विद्यमान होती है . वह यदि बढ़ते -पकते अपने आचरण कर्मों में ऐसी गुणवत्ता लाये जिससे अन्य को मधुरता प्रदान कर सके , उन्हें उनके जीवन संघर्ष में सहायक होते हुए सम्बल और स्नेह प्रदान करे तो शरीर से अस्तित्वहीन हो जाने के उपरान्त भी वह युगों तक मानवता की धारा प्रवाहित रखने में सफल होता है . इस धारा में समाज और साथी या आगामी मनुष्य का जीवन यापन अनुकूलताओं में आनन्द पूर्वक जारी रहने का मार्ग प्रशस्त करता है .

मनुष्य को जीवन में अवस्था के साथ बढ़ने  -पकने में फल जैसे ही किन परिस्थितियों में से निकलना पड़ा है , विचारशीलता से इस प्रक्रिया में उसने अपने गुण वृध्दि की है या गुण खोये हैं . इस बात पर मानवता और समाज के लिए उसकी उपयोगिता बनती है . उपयोगिताहीन धिक्कारे जाते हैं .

यह हम पर है बढ़ते -पकते अपने जीवन और अस्तित्व को हम समाज पोषक बनायें अथवा निरर्थक करें . विचारशीलता अपने में है यह निर्णय हम स्वयं करें क्या हम साधारण के बीच में से आसमान पर सूर्य भाँति चढ़ते हुये "दैदीप्यमान " होना चाहेंगें जिसके आलोक से आगामी पीढ़ियों को सच्चा जीवन मार्ग मिल सके ?

या सत्तर -अस्सी वर्ष साधारण जीवन प्रश्नों को हल करते बिता देना चाहेंगे .

--राजेश जैन
27-11-2013

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