Sunday, September 22, 2013

सुन्दर या (और) भला

सुन्दर या (और) भला
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किसी की सुन्दरता या (और) उसका भला होना देखने सुनने वालों को सुहाता है . किसी का सुन्दर और भला होना कहाँ से कैसे और आता है यहाँ इस पर विचार करें .
मानवीय सुन्दरता का लेख करें तो वह (सुन्दरता) प्रायः जन्मजात होती है जो बचपन से सामान्यतः यौवन तक बढती है फिर उसका क्रमशः क्षरण होता है . और वृध्दावस्था तक तो सिर्फ इतनी बचती है जिससे जिन्होंने वृध्दावस्था में ही किसी ऐसे व्यक्ति को देखा हो तो यह अनुमान लगा सके कि अपने समय में ये अतीव सुन्दर रहे होंगे. स्पष्ट है कि किसी का सुन्दर होना प्रकृति प्रदत्त होता है . और उसका रहना और कम होना बहुत कुछ प्राकृतिक कारणों पर ही निर्भर होता है .स्वयं मनुष्य का अपना योगदान बहुत प्रभाव नहीं करता .

अब भला का उल्लेख करें . जन्म से सुन्दर या कुरूप दोनों में ही एक मस्तिष्क होता है . मस्तिष्क की क्षमता सभी की बहुत अच्छी से लेकर बहुत कमजोर तक होती है . जिसके कारण देखी- समझी या अध्ययन में उपलब्धि निर्भर करती है . परिवार से संस्कार , धर्म और विद्यालय से शिक्षा फिर स्वतः कर्मों के कारण व्यक्ति भला (कम -अधिक) या बुरा (कम -अधिक) माना और पहचाना जाता है .  भला होने की बुनियाद तो मस्तिष्क क्षमता , पारिवारिक -धार्मिक संस्कार और शिक्षा से मिलकर बनती है . किन्तु स्वयं की भलाई (या बुराई ) का निर्माण या स्वयं को तराशना व्यक्तिगत उपलब्धि होती है स्वयं पर निर्भर करती है , प्राकृतिक कारणों का योगदान ज्यादा नहीं रहता है .
भला कौन कहलाता है ? जो व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों से ऊपर जाकर सामाजिक अन्य मानवीय और प्राणियों की हितों के लिए काम करता है . दुखियों से संवेदना अभाव और वंचितों से सहानुभूति और दया रख उनके उत्थान और हितों के लिए काम करता है . निश्छलता और करुणा ह्रदय में विद्यमान होती है .सुन्दरता के विपरीत भलापन बढती उम्र के साथ भी बढता हो सकता है . बल्कि कहें जो भलाई के मार्ग पर बढ़ता है . वृध्दावस्था में पहुँचने पर वह निश्चित ही अधिक भला होता जाता है .
सुंदर होना वह वस्तु है जो प्रारंभिक संपर्क में तो किसी को भा सकती है . किन्तु भला होना  प्रारंभिक संपर्क में सुहाये या नहीं किन्तु लम्बी अवधि और साथ में भला ही सुहाता है . भले में सुन्दरता हो या नहीं ,सुन्दरता बचे या ( अवस्था बढ़ने ) ना बचे , उनकी भलाई अच्छी लगती ही है .

अपने को सुन्दर बनाना अपने सामर्थ्य में बहुत नहीं होता लेकिन भला बना लेना हमारा ही सामर्थ्य होता है हमारी ही उपलब्धि होती है . भला कितना अधिक बन सकते हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है . हम भले से भले की बराबरी तो कर ही सकते हैं इतना भी भले हो सकते हैं जितना कोई कभी हुआ ही नहीं हो .भला होने के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि बहुत ही दुष्कर कर्मों को हम संपन्न करें . बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्मों को समय और आवश्यकता अनुसार करने लगना भी भलापन ही होता है .

आज जब भला कोई दिखना बिरला होता जा रहा है . ऐसे समय में अपने कर्मों ,आचरणों से 'भला' अस्तित्व बचाना हमारा जीवन सार्थक करता है . जितने सुन्दर आज सभी ओर दृष्टव्य हैं .. उनसे भी ज्यादा जब भले दिखने लगेंगे तब ही व्यवस्था ,समाज और वातावरण सुखकारी होगा . सुन्दर दिखने , विलासिता और मनोरंजन में डूबे रहने से जीवन का कुछ समय तो अच्छा लग सकता है किन्तु मौत तक भी पूरा जीवन सुखद लगे इसके लिए भला होना ही अनिवार्य है . यह मानवता भी है समाजहित भी है .
--राजेश जैन
22-09-2013




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