Wednesday, December 25, 2013

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार
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इतना है तुमसे प्यार हमें मेरे राजदार , जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार …
करती है फ़रियाद ये धरती कई हजारों साल तब जाकर पैदा होता है एक   ….
जब तक सूरज चाँद रहेगा " " तेरा नाम रहेगा …
तुम जियो हजारों साल , साल के दिन हों पचास हजार   …

उपरोक्त तरह की पंक्तियाँ कवियों ,गीतकारों की कल्पनाओं में आईं ,एक गीत ,कविता बन अमर हुईं  . और जिन्होंने सुना शब्दों में जुड़ी भावनाओं और कामनाओं को ह्रदय से दाद भी दी  … आगे भी दाद देने और कवि अमर कल्पनाओं का क्रम जारी रहेगा  . इस तरह की रचनाओं में अतिशयोक्ति कल्पना ,अलंकार और किसी क्षण की किसी के बारे में चरम भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है  .

लिपिबध्द करता साहित्यकार भी इन कल्पनाओं और भावनाओं की पूर्ति को लेकर शंकित ही रहता है  . शब्दों में अभिव्यक्त करना तो कला है किन्तु किसी के कर्म ,धर्म इतने पवित्र और महान अति अति बिरले ही होंगें जब की इन चरम कल्पनाओं का थोडा अंश भी पूरा होता हो  .  भला सूरज ,चाँद और तारों का दीर्घकालिक अस्तित्व , उनकी संख्या (तारों की) इत्यादि की कोई थाह है ही नहीं इसलिए किसी का जीवन , किसी की प्रसिद्धि या किसी का समर्पण (स्नेह ,प्यार का ) इतना दीर्घजीवी या तादाद इतनी विशाल हो ही नहीं सकती  .

फिर मन में प्रश्न आना स्वाभाविक है कि इस तरह की पंक्तियाँ लिखने और पढ़वाने में क्यों अनेकों का समय व्यर्थ किया जाता है  . वास्तव में जिनकी पूर्तियाँ असम्भव हैं ऐसी शुभकामनाओं और मंगल भावनाओं से सजे साहित्य का निहित अर्थ और सरोकार होता है  . वह होती है एक प्रेरणा जो भव्य विशाल लक्ष्य की दिशा में किसी समाज या पीढ़ी को दी जाती है  . जिससे मानव समाज में अच्छाई की निर्मल गंगा अविरल प्रवाहित होती रह सकती है  .  इस तरह के साहित्यिक सृजन मानवता होती है ,मानवता रक्षक होती है  .

हमें मधुर लगती ये शुभकामनायें  और मंगल भावनायें हम सतही तौर पर ग्रहण ना करते हुये , इसे तनिक गम्भीरता से लें और पालन की दिशा में तनिक भी सचेत हों तो हम अपने परिवार ,समाज  और राष्ट्र को वह गरिमा दे सकते हैं  जिसका यहाँ अभाव स्वयं हमें खटकता और बैचैन कर रहा है  .

हम किसी को इस तरह तो चाहें ,जहाँ धन की लाभ हानि की दृष्टि से धोखा या फरेब हमारे ह्रदय ,कर्म और आचरण में ना आये  .
हम अपने प्यार को वह विशालता दें जहाँ वासना से दैहिक शोषण के कारण हमारा प्यार कलंकित ना हो जाये ,हमारा प्यार समर्पण इस तरह का बने जो दैहिक आकर्षण सम्बन्धों से ऊपर हो जिसमें ऐसी संकीर्णता ना हो जिसके वशीभूत हम अपने प्रिय के ह्रदय को आहत कर उसके ही बैरी बन जायें अगर इस दोष से अपने प्रेम को मुक्त करें तो निश्चित ही हम अपने संस्कृति अनुरूप चरित्रवान होंगे  . हम एक नहीं अनेकों के प्रिय और प्रेमपात्र होंगे  . अवश्य ही यह आजकल कहा जा रहा प्रेम (फ़्लर्ट ) नहीं होगा  . यह प्रेम वह होगा जिसमे हम अनेकों की दृष्टि में (ह्रदय में) पिता, बेटे या भाई  सदृश्य बस रहे होंगे.

मानवता और समाजहित इस एप्रोच  में ही विदयमान होता  है 

--राजेश जैन
26-12-2013

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