Tuesday, October 22, 2013

मनुष्य पूर्ण जीवन

मनुष्य पूर्ण जीवन
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अस्सी वर्ष या अधिक एक मनुष्य पूर्ण जीवन माना जाता है . जन्म के उपरान्त पूर्ण शरीर विकसित होने में अठारह -बीस वर्ष लगते हैं . सांसारिक ,व्यवहारिक , वैज्ञानिक ,गणितीय या अन्य ज्ञान जिनसे आगे जीवन सही चले अर्जित करते हुए उम्र पच्चीस -तीस की हो जाती है . सामाजिक प्राणी मनुष्य को सामाजिक परम्परा और व्यवस्था (और शारीरिक आवश्यकता के) अनुसार इस बीच विवाह-बध्द होना होता है . बूढ़े होते माता-पिता और नव-विवाह से आये गृहस्थ दायित्व पूरे करने के लिए उसे आजीविका धन -अर्जन के साधनों में लगना होता है . लगभग पचपन -साठ वर्ष की उम्र तक ये दायित्व भी पूरे होते हैं .

इस उम्र में पहुँचने पर सामान्यतः बीस -पच्चीस वर्ष हमारे पास शेष होते हैं . जिन्हें हम चाहें तो विवेकपूर्ण रूप से बिना पराधीनता से जी सकते हैं .

* अपनी कामनाएं , जीवन आशायें , पारिवारिक दायित्वों के लिए हम पहले अनैतिक हो गए हों , न्यायप्रिय ना रह सके हों . स्वार्थवश छल -कपट ,असत्य का सहारा लिया हो . चाहें तो इसको सुधारते हुए  कम लाभ पर व्यापार , चिकित्सक हों तो कम शुल्क पर उपचार सेवा कर सकते हैं .

* लम्बे पूर्व जीवन में अच्छे बुरे बहुत अनुभव हमें हुए हों , उनमें क्या परिवार ,समाज और राष्ट्र के भलाई का है उस अच्छे के वाहक प्रचारक और शिक्षक बन सकते हैं . जो बुरा किया ,देखा और सुना उसके बुरे प्रतिफल के प्रति युवाओं को सचेत कर सकते हैं .

* अगर धन -वैभव पर्याप्त है तो अपने हिस्से ( बिना पारिवारिक -कलह ) का धन समाज में निर्धन के उपचार , शिक्षा ,वस्त्र या भोजन में सहायता के लिए व्यय कर सकते हैं . या नगर -समाज में बहुत कमी है , किसे हम धन -सहायता से सुधार सकते हैं उस पर व्यय कर सकते हैं .

* धन बहुत नहीं है विशिष्ट ज्ञान अगर हमें है तो उसकी जिसे आवश्यकता है उसे निशुल्क या साधारण शुल्क पर कक्षाएं लगाकर ज्ञान दान कर सकते हैं .

* व्यवहारिक ज्ञान है , शरीर स्वस्थ है . भागदौड कर सकते हैं तो विभिन्न कम जानकार जरुरतमंद को दिशाज्ञान -निर्देश देते हुए उनका ऐच्छिक कार्य पूरा कराने में सहायक हो सकते हैं .

*  सच्चा धर्म अंगीकार करते हुए उसका सच्चा प्रचार भी कर सकते हैं . धर्म यदि सही तरह से ग्रहण किया या करवाया जाता है तो मनुष्य भला और सज्जन ही बनता है .
             यही नहीं जो उपयुक्त मानते हैं उपरोक्त से भिन्न ढंग से भी समाज -परिवार की भलाई की जा सकती है .अगर जीवन के बीस -पच्चीस वर्ष हम न्यायप्रियता ,दया और करुणाबोध  से जी सकें . तो जीवन सार्थक किया जा सकता है . जिस हमारी व्यवस्था -समाज की स्थितियों का उपहास सभी ओर दिखाई -सुनाई देता है . बिना गंभीरता के हम स्वयं भी इसका उपहास उड़ा लेते हैं अथवा सुन देखकर ग्लानि अनुभव करते हैं . उस सामाजिक परिदृश्य को हम ही बदल सकते हैं .

अन्यथा जीवन क्रम निजी दायित्वों के निर्वहन उपरान्त भी पूर्व अनुसार ही  ( अनीति का व्यापार , स्वार्थ अपेक्षा के छल , बहुत अच्छा महँगा भोजन -वस्त्र और सुविधा या बदनीयत से अन्य पर दृष्टि ) जारी रखते हैं तो संसार को बिना कुछ वापस दिए सिर्फ उससे लेते -छीनते हुए ही किसी दिन अनंत साधारण जैसे ही हम भी मिले मनुष्य चोले को अज्ञानी अन्य प्राणियों के भांति छोड़ते हुए काल -ग्रसित होकर संसार से अस्तित्वहीन होते हैं . भले ही जीवन में यह भ्रम हमें रहा हो कि हम बहुत उच्च पदस्थ ,प्रतिष्ठित ,सम्मानीय , ज्ञानी , अमीर , सुन्दर ,बलिष्ट या लोकप्रिय इत्यादि रहे हैं .

--राजेश जैन
23-10-2013

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