Friday, September 6, 2013

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है
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सच्चाई और अच्छाई के पथ अनंत लम्बाई के हैं . धर्म अवतारों ने ये पथ पूरे चले हैं .धर्म कई अस्तित्व में हैं . उनके केंद्र में भगवान (ईश्वर) अलग अलग हैं. और जब तक कोई नया धर्म नहीं देना (अपवाद भी हैं ) चाहता धर्म का तब तक कोई भी बड़ा से बड़ा व्यक्ति संत या गुरु ही होता है . यह संत या गुरु स्वयम इन सच्चाई और अच्छाई के पथ पर चलता हुआ अपने भक्त और श्रध्दालुओं को साथ अग्रसर करता जाता है .
सच्चाई और अच्छाई के पथ पर जिसने नेतृत्व करने की भूमिका निभाई है . वह संत या गुरु पद पर आसीन माना जाता है . संत निरंतर पथ पर चलता जाता है . अनंत लम्बे इस पथ पर कितना भी चले शेष बहुत रहता है . अतः संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है . सच्चे संत में तो यह भी गुण होता है कि कोई अनुगामी यदि उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली और सच्चा हो तो अपने आगे का स्थान उसे दे देता है .स्पष्ट है संत सच्चाई के पथ पर जीवन भर कभी स्थिर नहीं हो पाता . निरंतर आगे की दिशा में बढ़ता जाता है .

आज कभी कभी इससे कुछ विपरीत दृश्य द्रष्टव्य होता है . अच्छे पथ पर चलते किसी गुरु को कुछ संख्या में अनुगामी मिल गए तो गुरु का ध्यान भटक जाता है . वह उस पथ पर स्थिर हो स्वयं अटकता है .यह प्रबन्ध भी करने लगता है कि उससे आगे कोई ना बढ़ पाए . और स्वयं को ही भगवान प्रसिध्द करने लगता है . जिस भगवान या धर्म का उल्लेख उपदेश और प्रवचन वह करता है उन्हें वह अपने पीछे भीड़ एकत्रित करने का जरिया मात्र जितना महत्त्व देता है .
मान मिला तो उसमें अहंकार आ समाता है . जिन्हें तज इस पथ पर आया था ,वे लालसायें उसमें पुनः जागृत हो जाती हैं . अपने ही भक्तों और अनुगामी को छलते वह इनकी पूर्ति करने लगता है . भक्त श्रध्दा और सम्मोहन में सुध बुध गवायें रहते हैं . बहुत बाद में समझते हैं प्रतिक्रिया में विलम्ब से स्वतः संकोचों में रह जाते हैं . तब तक एक गलत उदाहरण समाज के सम्मुख आ खड़ा होता है .धर्म के प्रति उनकी आस्था तो होती है . संत ,गुरु और विद्वान जो सच्चे भी हैं उनकी शंका के दायरे में आ जाते हैं .


हर काल में एक या कुछ संत का उत्थान स्वाभाविक है . पुरातन काल से होता आया है . किन्तु  एक या कुछ संत का पाखण्डी हो जाने पर पतन चिंतनीय है गहन क्षोभ का कारण है . ऐसा पहले कम ही होता था . शेष सभी बदल रहे थे उतना चिंताजनक नहीं था क्योंकि उनका बदलना कुछ को ही प्रभावित करता था . लेकिन किसी संतवेशीय का बदलना निश्चित ही बहुत चिंता उत्पन्न करता है . बहुत अधिक भोलेभाले भक्तजनों को प्रभावित करता है .
जब कोई क्षेत्र जल-प्लावित होता है तो बचने के लिए सभी ऊँचे स्थानों की शरण लेते हैं . बुराई रुपी जल हर घर -दुकान ,कार्यस्थल लगभग सभी जगह जब भरता जा रहा है  तो ऐसा कोई स्थल तो चाहिये जहाँ पहुँच पीड़ित  सुरक्षित हो सके .
धर्मस्थल और संत शरण वैचारिक ,आध्यात्मिक और सदाचार की दृष्टि से ऊंचाई का वह स्थान होता है जहाँ पहुँच बुराई रुपी जल-प्लावन से बचा जा सकता है.ऐसे में किसी संत का संत कर्म आचरण से डिगना संत शरण में आये श्रध्दालुओं को बुराई -प्लावन में डुबा देना है . वह भी तब जब वे अपने होशो हवास में नहीं बल्कि संत के प्रति भक्तिभाव में लीन सुधबुध भूले हुए होते हैं .
एक संत शरण में गए भक्तों की यह दशा को निहारते लोग जब उन्हें दुर्दशा में देखेंगे तो निश्चित ही बुराई से बचने की चाह भी होगी और दिखती कोई संत शरण भी होगी पर उसमें जाने से कतरायेंगे . क्योंकि जो उन्होंने देखा उसके बाद उन्हें इसमें शंका रहेगी कि वहां शरण लेकर वे बच सकेंगें
उपभोग , अति भोग-लिप्सा और प्रसिध्दि के भूखे के लिए बहुत सी ओर जगह हैं वहाँ जाकर जोर आजमाये . लेकिन जहाँ भोले-भाले भक्त , सरल नारियाँ निशंक अपनी पूरी श्रध्दा के साथ शान्ति और आदर्श ग्रहण करने शीश नवाए पहुँचते हैं उन पावन धर्म स्थलों पर अपने ढोंग रचने ना आयें बेहतर होगा .किसी भी धर्म   , "मानवता और समाजहित"  में यही होगा .

--राजेश जैन 
07-09-2013

 

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