Monday, December 23, 2013

बिखरते परिवार - एक दृष्टि

बिखरते परिवार - एक दृष्टि
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एक परिवार होता है. माँ-पिता भाई -बहन के बीच एक बच्चा पलता और बढ़ा होता है. माँ -पिता का अंश होता है , भाई -बहन स्वयं छोटे होते हैं जबसे इस बच्चे को मासूम और बाल-सौंदर्य और निच्छल रूप में देखते लाड़ -दुलार से अपने बीच रखते हैं. इस  लाड़ -दुलार के मध्य बच्चा बाल सुलभता से ऐसे हठ भी करता है, जिसकी पूर्ति यद्यपि ठीक नहीं होती लेकिन बच्चे की उदासी अप्रिय लगती है अतः इसे मान लिया जाता है. यह क्रम निरंतर चलता जाता है. बच्चा हठी होता है. अभी 15-16 वर्ष का होता है महँगे वस्त्र , बाइक और मोबाइल इत्यादि चाहने लगता है. कुछ परिवार के लिए ये कठिन नहीं होते लेकिन कुछ कठिनाई में इन की पूर्ति मोहवश या बच्चे की हठ में करते हैं. यहाँ तक बच्चे को कुछ नहीं कहा जाता उसकी मानी जाती है. फिर बच्चा उच्च शिक्षारत हो जाता है. यहाँ अपेक्षा उससे प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन की होती है जिसके लिये पढ़ना लिखना अनिवार्य होता है. लेकिन महँगी ऑसेसरीस जो उसे परिवार विपरीतता में भी दिलाता आया है बच्चे के मन भटकाव के कारण बनते हैं. परिणाम होता है बच्चा जो अब युवक है कम अच्छी जगह पहुँच पाता हैं जहाँ धन अर्जन कम होता है.

परिवार लाड -प्यार से पालते हुए भी बच्चे से एक अपेक्षा करता है कि बढ़ा होने पर अच्छा पढ़ लिखकर वह अच्छी आय कर परिवार को सहारा देगा  . लेकिन बचपन से प्राप्त होती आयी महँगी वस्तुयें बच्चे की आदत बन चुकी होती है. स्वयं की इक्छापूर्ति उसकी आय में कठिन होती है ऐसे में परिवार की आर्थिक अपेक्षा उसे कष्ट देती है. अगर ऐसे में ब्याह हो गया तब नई सदस्या ( घर की बहु ) भी कुछ इसी तरह पली बढ़ी होती है. दोनों ही मिलकर अपनी आय और आवश्यकताओं में संतुलन नहीं रख पाते हैं.

जहाँ तक निभाया जा सकता है. अपने लाडले बेटे(भाई) से धन सहयोग नहीं चाहा जाता है लेकिन परिस्थितियाँ विपरीत हुईं तो अब बेटे को कहा जाने लगता है. आरम्भ में कुछ कठिनाई से वह माँ -पिता बहन या भाई के लिये कुछ करता है. लेकिन कई बार ऐसी आवश्यकता उत्पन्न होने पर वह चिढ़ने लगता है. पढ़ने लिखने के बाद स्वयं को समझदार मानते हुए, अपने माँ-पिता की बातों में समझ की कमी लगने लगती है.

फिर समय आता है जब घर के मुख्य कक्ष में माँ-पिता ,बेटे-बहु के मध्य आवेशित वार्तालाप दृश्य बनने लगते हैं. ऐसे एकाधिक अवसर बाद मन आपस में खट्टा होने लगता है. और एक दिन दोनों या कोई एक पक्ष साथ निर्वाह कठिन पाते हैं. अलग आवास ,अलग पथ अप्रिय तो लगता है किन्तु साथ रहने की अप्रियता से कम अप्रिय होता है.एक भारतीय परिवार इस तरह बिखरता है.

दोषारोपण कभी बेटे कभी बहु या माँ-पिता पर करना बाद की नीयती हो जाती है.

जब बच्चे छोटे होते हैं लाड-दुलार में भी कुछ मनाही वाँछित होती है. तब नहीं कहा जाता है. परिवार के प्रति कर्तव्यबोध कम वय में अनुभव होता है तो शिक्षारत समय में ज्यादा गम्भीरता प्रदर्शित करते हुए ज्यादा अच्छे परिणाम मिलते हैं. युवा बेटा ,व्यय अपनी निजी आवश्यकताओं और परिवार की आवश्यकताओं को जान समझ कर करता है. परिवार आजीवन एक और सुखी हो सकता है.

आवश्यकता हमें एक माँ-पिता होने पर कहाँ कहना चाहिए ( बालपन में ) ,कहाँ चुप रहना चाहिये इसे समझने की है.…
नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव
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बिखरते परिवार अंतर्गत नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिये  . लेकिन भ्रामक आधुनिकता लेखक के तर्कों को पुरातनपंथी कहेगी , इसलिये कुछ लेख की जगह इसे युवाओं को सोचने की सलाह ही दी जा रही है  .

जिन बातों में  आधुनिकता मानी जा रही है , ऐसी बातों के साथ जब कोई पति या पत्नी बन जाता है तो ना तो  पति और ना ही पत्नी को ये आधुनिकता अपने घर परिवार में सुहाती है. परिणाम नवनिर्मित परिवार का दो-चार वर्षों में बिखराव होता है , इस बीच यदि बच्चा जन्म ले चुका हो तो थोड़ा बड़ा होने पर वह स्वयं को दुनिया में बड़ी विषम स्थिति में पाता है  . अतः जो आधुनिकता नवयुवाओं को बाहर सुहाती है वास्तव में भ्रामक ही होती है. तब भी यदि इसे ही आधुनिकता कही जाये तो हमें परिवार संरचना को पुरातन कहने पर विवश होना पड़ेगा  . क्योंकि कथित आधुनिकता "परिवार संरचना" को पुष्ट नहीं करती है .

लेखक इसे ऐसी आधुनिकता निरूपित करता है जो कुछ काल में पुरातन और बड़ी बुराई कहलाई जाकर वर्जित हो जायेगी।  क्योंकि परिवार नहीं होंगे तो मनुष्य मनुष्य नहीं जानवर हो जाएगा  . इसलिए आज पुरातन सा लगने वाली परिवार संस्कृति आधुनिकता बन कर पुनः आएगी।  मनुष्य हम यदि हैं तो हमें मनुष्य तो बनना ही होगा।

करोड़ों वर्ष से परीक्षित और अनुमोदित "परिवार संस्कृति" के भूलवश  त्याग के लिये हमारी पीढ़ी इतिहास पृष्ठ पर दोषी नहीं ठहराई जाए इस हेतु आज हमें इसके बचाव के लिए जागृत होना पड़ेगा।  भ्रामक आधुनिकता के प्रचार से सम्मोहन को अपने पर से शीघ्र उतारना होगा। 

--राजेश जैन
23-12-2013
  
    

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