Wednesday, September 4, 2013

संत के प्रति भक्त कर्तव्य

संत के प्रति भक्त कर्तव्य 
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वैसे संत तो दोषरहित होता है . पर आज जब नैतिकता ,न्याय का स्तर सब तरफ गिरा है तो उससे निष्प्रभावित आज का संत भी नहीं रह गया है . अब कहें तो तुलनात्मक रूप से अधिक सच्चा और अधिक अच्छा होने के बाद भी कुछ दोष संत में रहे आते हैं .संत के  दोष उत्तरोत्तर कम होने चाहिए . लेकिन भक्तों की  अंध-भक्ति ,अंध-श्रध्दा और अंध-विश्वास से संत में यह क्रिया कमजोर पड़ती है .
पीछे आ रही भक्तों और श्रध्दालुओं की भीड़ संत में अहंकार भी बढा देता है . ऐसे में वास्तव में वह संत कम ही बचता है . किन्तु संत या गुरु पद  की पूर्व अर्जित प्रतिष्ठा उसे संत पद पर ही आसीन रखती है . वह अहंकार में भूलता है, अपने आप को चमत्कारी मान बैठता है .उसे लगता है वह किसी भगवान तुल्य हो गया है .उसे यह भी भ्रम हो जाता है अब वह जो भी अच्छा बुरा करेगा उसके अनुयायी /भक्त उसे गुरु आशीर्वाद ही मान ग्रहण करेंगे .
अच्छाई तो संत या गुरु से अपेक्षित ही होती है उसमें तो कितनी भी करे किसी को कोई शिकायत नहीं होती . किन्तु अहंकार और अपने विचार-भ्रम में वह कुछ बुरा किसी भक्त के साथ करता है . भक्त या तो उसमें भी खुश रहता है या अपने विभिन्न संकोचों के कारण या हिम्मत ना कर पाने के कारण चुप रहता है , या कहीं चर्चा करता है तो उसे अन्य अन्धविश्वासी भक्त या धर्म-भीरु परिजन चुप रह जाने को समझा देते हैं .
संत तक विरोधी स्वर/हलचल पहुँचती नहीं , या हलचल पहुँचती भी है और कोई उग्र प्रतिक्रिया श्रध्दालुओं की ओर से नहीं आती तो उस की भ्रम -सोच और बलवती होती है . अब वह बुरा कर्म और आचरण दोहराने लगता है . नये - नये भक्त के साथ यह आजमाता जाता है . सारी अच्छाई जिसने संत पद दिलाया था प्रतिष्ठा दिलाई थी अपने अनुयायियों की बड़ी संख्या बना सका था रहते हुए . अहंकार , मतिभ्रम और अपनी लालसाओं पर नियंत्रण खोने के कारण कुछ बुराई से वह संतत्व से डिग जाता है .
 संत तो वह अच्छा बनना आरम्भ हुआ था . उसमें गुण भी साधारण मनुष्य से अधिक ही थे अन्यथा क्यों लाखों करोड़ों की संख्या में अनुयायी बनते ? क्यों ख्याति क्षेत्र इतना विस्तृत होता ? इस भले से मनुष्य की अच्छाई संत बनने के साथ और बढ़नी चाहिए थी . लेकिन वर्षों की सेवा और मेहनत पर पानी फिरता है .
उस संत पद से पदच्युत हुए भले व्यक्ति (पूर्व में भला ) की अच्छाई की हत्या हो जाती है .
कौन होता है इस हत्या का दोषी ? निश्चित ही हमारी अंधभक्ति ,अंधश्रध्दा और अन्धविश्वास . अगर हम अन्धानुशरण की अपनी कमी नहीं त्यागेंगे तो संत /गुरु बनने की क्षमता रखने वाले हमारे बीच के भव्य मनुष्य भी निर्दोष पद पर नहीं पहुँच सकेंगे . हमारी अंधश्रध्दा... आदि ,हमारी पीढ़ी और आगामी सन्तति  इस वरदान से वंचित होगी जिसके अंतर्गत समय समय पर हमारे समाज को मानवता पथ दिखलाने वाला सच्चा पथप्रदर्शक मिलता रहा है . ऐसा सच्चा पथप्रदर्शक संत /गुरु उनके जीवन उपरान्त भी शताब्दियों भगवान ,देवता जैसा पूजा जाता रहा है .  हमारे बीच अवतार और भगवान आते रहें संत और गुरु बनते रहें यह मानवता और समाज हित के लिए नितांत आवश्यक है .
अतः संत और सच्चा गुरु बनने के मार्ग पर जो महामानव अग्रसर दिखता है उसके प्रति अनुयायी और भक्तों का यह कर्तव्य होता है कि वे उसका अन्धानुशरण ना करें . किसी भी समय संत अहंकार या भ्रम में ना आ जाए कि उसे कोई बुराई कर लेने की स्वतंत्रता मिल गयी है .
यह भ्रम नहीं आएगा तो उस संत के अन्दर वैचारिक -शोधन की क्रिया निरंतर चलते रहेगी . उसके आचरण ,कर्म निरंतर निर्मल और निर्मल होते जायेंगे . उसके उपदेश वचन और लेखन जग कल्याणकारी सिध्द होंगे . जिसकी बुराई पर बढ़ते आज के समाज पर अंकुश लगाने की दृष्टि से नितांत आवश्यकता है .

--राजेश जैन
05-09-2013

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