Tuesday, September 3, 2013

संत कम भक्त ज्यादा दोषी

संत कम भक्त ज्यादा दोषी
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मनुष्य जब जन्म लेता है तो सामान्यतः वह कोई अवतार नहीं होता हैं. जीवन में आगे बढ़ता है तो उसमें जन्मजात अच्छाइयाँ तो होती ही हैं . साथ ही संसार में देखता /सुनता है तो मनुष्य बाहरी ग्रहण करता है .
ठीक उस तरह जैसे आप गेहूँ क्रय करते हैं तो कुछ कंकड़ और अन्य अशुध्दि उसके साथ आती हैं .( कुछ अपवाद संसार में ऐसे होते हैं जो विष ही क्रय करते हैं उनकी बात लेख के विषय से बाहर है) वैसे ही संसार से ग्रहण की गई अच्छाई के साथ कुछ दोष व्यक्ति में आते हैं .

अब दोषों को कुछ व्यक्ति छाँट हटाते हैं . कुछ अनदेखा कर अपने अन्दर रहने देते हैं . जो दोष हटाने की प्रक्रिया निरंतर रखते हैं उनमें कुछ महान,विद्वान और कुछ संत बनते हैं .
स्पष्ट है संत बनने के पूर्व तक वह सामान्य मनुष्य ही होता है .दोष हटा और अच्छाई ग्रहण करते रहने की निरंतरता उसे जीवन में किसी दिन संत बना देती है .
जब कोई संत बनता है तो उससे भक्त और श्रध्दा रखने वाले उससे जुड़ने लगते हैं . अनेकों संत होते हैं जिनके श्रद्धालुओं की संख्या सैकड़ों हजारों और कुछ की लाखों होती हैं . लेकिन कुछ संतों के भक्त संख्या करोड़ों में पहुँचती है . और ये करोड़ों की संख्या कई कई वर्ष भी बनी रहती देखी गई है . (ऐसे भी संत हुए हैं जिनके भक्त जीवन पर्यन्त भी कई -कई वर्षों और किसी के सैकड़ों -हजारों वर्ष उपरांत भी विद्यमान रहते हैं .)

कोई संत जब वर्षों संत जाना जाने लगता है तो सैकड़ों से आरम्भ भक्त की संख्या बीस-तीस वर्षों में हजारों ,लाखों से बढती करोड़ों में पहुँचती है . तब पृथ्वी के बहुत बड़े क्षेत्र में उनकी ख्याति पहुँच जाती है . निर्विवाद तौर पर हमें मानना चाहिये कि उस संत में ऐसी बात है जो इतने विस्तृत क्षेत्र और काल तक उसे विख्यात रखती है . वह सामान्य से विशिष्ट बन गया है तो निश्चित ही साधारण से ज्यादा प्रतिभाशाली तो रहता ही है .
तब भी उसमें यदाकदा कभी सामान्य मनुष्य भी हावी होता रहता है . ऐसा होना स्वाभाविक भी होता है . संत जिसके तीस चालीस वर्षों में करोड़ों मानने वाले हो गए हैं का कर्तव्य होता है कि उनमें  सामान्य मनुष्य की सी कमजोरी जब हावी हों तो कुशलता से उसे नियंत्रित करले . ये अपने अनुयायियों के विश्वास की रक्षा की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक होता है . यह उस वेश की पवित्रता बनाये रखने की दृष्टि से भी आवश्यक होता है . इस नियंत्रण की कला से संत सर्वकालिक श्रध्दा का पात्र बनता है .

संत के सत्संग में श्रध्दालुओं से मिलते मान से भी कभी संत में अहं जागृत होता है तब वह भक्त को तुच्छ मानते कुछ दोषित आचरण -व्यवहार और कर्म करता है . वैसे तो सच्चा संत ऐसा  नहीं करता है . पर सच्चाई अभी परिपक्वता के स्तर तक नहीं आई है तो यह भूल आशंकित रहती है .ऐसी स्थिति में भक्त ,अनुयायी और श्रध्दालुओं का कर्तव्य अपने उस इष्ट संत के प्रति बनता है कि जिन भक्त क्रियाओं से संत का संतत्व डोलता है . भक्त वे क्रियायें से बंचे .

भक्त अंध श्रध्दा ,अंध-अनुकरण ना करें . प्रारंभ से ही जब जब उनके संत संतत्व से डिगते हैं . तब तब एकांत में हिम्मत के साथ संत के दोष की चर्चा उनसे की जावे . संत को अपने भूल का अहसास इससे होता रहेगा . अन्यथा वह अपने दोषों को भी अच्छाई मानने की भूल कर किसी दिन स्वयं के साथ अपने भक्तों की श्रध्दा को जग-हंसाई का विषय बना देगा .

अगर कोई संत कभी जग-हंसाई का विषय बनता है तब लेखक यह मानता है कि जितना जिम्मेदार  वह "दुर्भाग्यशाली संत" होता है उतने ही जिम्मेदार उसके अनुयायी और भक्त होते हैं .
ऐसे संत को दुर्भाग्यशाली विशेषण इसलिए दिया गया है क्योंकि तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से मिट जाती हैं . अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान  संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .

--राजेश जैन
03-09-2013





 

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