Tuesday, September 3, 2013

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी
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अपने आग्रहों से अलग हमें यह मानना ही होगा कि प्राणियों ( जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित है ) में विपरीत लिंगीय आकर्षण एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है .
मनुष्य को छोड़ पहले अन्य प्राणियों में इस प्रवृत्ति को संक्षिप्त में समझें तो पायेंगे कि इस आकर्षण के वशीभूत उनमें सम्बन्ध (दैहिक ) में पूर्ण स्वछंदता चलती है . वहां उम्र का कोई अर्थ नहीं है . जिसके पास ज्यादा बल है वह अपने विपरीत लिंगीय पर आधिपत्य करता है . जिन प्रजातियों में मादा बलशाली होती है उनमें मादा अन्यथा नर अपने मन्तव्य सिध्द करने में सफल होता है .
अब मनुष्य की चर्चा पर आयें . पाषाण काल में मनुष्य लगभग अन्य प्राणी प्रजातियों जैसा विचरण और गतिविधि रखता था . उन्नत मस्तिष्क के कारण उसने अनुभवों से सीखते मानव सभ्यता विकसित की . स्वछंदता के नुकसान से सीखते हुए कुछ बंधन और कुछ मर्यादाएं लागू करते हुए एक मानव समाज रचा . जिसमें नारी-पुरुष को एक परिवार में जीवनयापन की पध्दति निर्मित की .इनमें सिर्फ बलशाली ही नहीं कम शक्तिशाली की भावनाओं को भी समझते प्राकृतिक प्रवृति को सुन्दर और लचीले बंधन से बाँधा .
भारतीय संस्कृति अन्य मानव संस्कृति से पुरातन और उन्नत रही है . यहाँ पौरुष बल के कारण परिवार मुखिया पुरुष होता है . जो घर के बाहर से अपने आश्रित के जीवन यापन के साधन जुटा घर में लाता . घर की नारियां घर में रहकर आश्रितों के लिए गृहकार्य करती हैं .
पुरुष घर से बाहर जाता रहा था . अतः अपने आश्रितों को ज्यादा सुविधा और प्रसन्न रख सके इसलिए उसने चतुराई भी सीखी कुछ बुराइयाँ भी ग्राह्य की . जबकि नारी गृहसीमा में रही इसलिए तुलनात्मक रूप से कम बुराइयों में पड़ी .
इस तरह पुरुष प्रधान एक समाज विकसित हुआ . पुरुष ही विभिन्न धर्मों का प्रवर्तक बना . कई धर्म अवतरित हुए . धर्म चर्चाओं की परम्पराएं बनी . धर्म चर्चा (सत्संग ) धर्म गुरुओं और संत को साथ लेकर होने लगी . धर्म गुरु और संत भी प्रमुखतः पुरुष ही रहे . इन धर्म चर्चाओं में पुरुषों ने गुणदोष दोनों को समझा . लेकिन भोलेपन और सरल होने से नारियों ने संत और गुरुओं के सभी क्रियाओं को गुण ही माना उन्हें शिरोधार्य किया .
सत्संगों में भीड़ होने पर उसमें नारियों को कष्ट ना हो विशेष ध्यान रखा जाता . और उन्हें गुरु स्थान के पास ही स्थान सुलभ कराया जाता . सब व्यवस्था सर्वहित के ध्यान कर तय हुईं .
हमारे धर्म गुरु और संत महान हुए . जिन्होंने मनुष्य भलाई का सन्देश और क्रम निरंतर रखा . नारी और पुरुष दोनों ने अपना जीवन सार्थक और सुखी करने में सफलता पाई .

किन्तु कभी हमारे गुरु और संत अपने कम अभ्यास के कारण अपने वेश और पद की गरिमा भूल कर कर्म और कर्तव्यों से डिग गए . प्राकृतिक प्रवृति हावी हुई . समीप बैठी नारी की श्रध्दा -आस्था और भोलेपन ने संत के विवेक को सुला दिया .नियंत्रण खो कर अपनी गरिमा से विपरीत आचरण किया . स्वयं विपत्ति में फँसे और भोली नारी से छल कर उसका भी जीवन दुश्वार कर दिया .

कल के अपने लेख में लिखा था "संत कम भक्त ज्यादा दोषी" क्योंकि भक्त की अंधश्रध्दा से तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से संत की मिट जाती है .संत  अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .
अतः नारी भक्त को यह सोचना है जिन संत या गुरु पर उनकी आस्था और श्रध्दा ,अंध-श्रध्दा में परिवर्तित होती है . निश्चित ही उन संत या गुरु का आभा-मंडल प्रखर होता है . वह कायम  रहे उनके इष्ट संत पर कोई संकट ना आये इसलिए नारी स्वयं भी सतर्क रहे . नारी की यह सतर्कता संत और स्वयं पर किसी कलंक की आशंका को नकारने में सफल होगी .

धर्मरक्षा , वेश गरिमा (संत वेश) और समाजहित और मानवता के लिए  संत के साथ ही भक्त का यह परम कर्तव्य है .

--राजेश जैन 
04-09-2013






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