Friday, September 20, 2013

संत छलावा और नारी शोषण

संत छलावा और नारी शोषण
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भारतीय परिवेश में नारी कैसी रहती है? इस पर दृष्टि करते हुये विषय पर आना उचित है . शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत  और महाविद्यालयों में शिक्षारत नारियों को अलग रखें तो प्राचीन काल से अब तक नारियों (और किशोरवय में आ गई बेटियों का) मुख्यरूप में पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार पिता ,भाई , पति और निकट परिजनों तक ही सीमित रहता है .

शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत और महाविद्यालयों में शिक्षारत का पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार थोडा विस्तृत होता है . जिसमें व्यवसाय और अध्ययन के हितों के लिए उन्हें कुछ और पुरुषों से व्यवहार रखना आवश्यक होता है . किन्तु उसमें भी भारतीय नारी मर्यादाओं की सीमा पालन की जाती है .

अतः कोई पुरुष अनेकों नारियों के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क रखे संभव नहीं होता . इस बात के दो क्षेत्र अपवाद हैं . एक सिनेमा और दूसरा संत सत्संग . सिनेमा लेख विषयवस्तु नहीं है अतः संत सत्संग प्रश्न ही उल्लेखित है .

धर्म की दृष्टि से घर से धर्मालयों और सत्संग स्थल को जाती नारी पर हमारा समाज तनिक भी आपत्ति नहीं करता है . इसलिये सत्संग स्थल वह जगह होती है जहाँ अनेकों नारी किसी एक या कुछ पुरुष ( संत ) के सम्मुख सम्पूर्ण श्रध्दा और विनय के साथ उपस्थित होती है . किसी और स्थान पर  पुरुष को नारी सानिध्य इतनी अधिक संख्या और श्रध्दानत रूप में नहीं मिलता है .

अब विचार करें इतनी श्रध्दानत नारी के सम्मुख संत रुपी पुरुष कौन होता है . सच्चे संत बहुत होते हैं . जो स्वयं अपना हित करते हुए भक्तों (नारी सहित ) का हित करते हैं . जहाँ से मार्गदर्शन पाकर आचरण, दृष्टिकोण और व्यवहार में स्वच्छता आती है जो परिवार और समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित करती है . संत का यह वर्ग श्रध्देय है ,आदरणीय और पूज्यनीय भी माना जा सकता है . विषय संत छलावा का लिया गया है .सच्चा संत किसी को छलावा में नहीं डालता .

अब आयें हम ढोंगी संत पर जो सिर्फ छलावा करता है .संत वेश में बैठा यह पाखंडी कौन होता है ? . यह अध्ययन के क्षेत्र में पिछड़ गया , या कमजोर पृष्ठभूमि का अति महत्वाकांक्षी या फिर वह पुरुष जिसकी नारी देह भूख एक या कुछ से सम्बन्ध में नहीं मिट पाती या कुंठाग्रस्त वह जो कहीं सफल ना हो सका , हो सकता है . ऐसा व्यक्ति जब यह देखता है कि नारियों में संत प्रति श्रध्दा अंधश्रध्दा की हद तक है . तब वह संत का चोला अपनाकर रम जाता है .तब संत को सम्मुख अपढ़, निर्धन से लेकर कुलीन घरानों की नारी उपस्थित मिलती है . धर्म चर्चाओं और लीलाओं को माध्यम बनाकर वह ढोंगी नारी भक्तों को अपनी पिपासा का शिकार बनाता है . संत के उस सत्संग में जमूरे की तरह कुछ अवसरवादी भी जुड़ते हैं . जो तनिक अपने लाभ के लिए संत की महिमा और झूठे चमत्कार बखानते हैं और भक्तों की संख्या बढ़ाते हुए पाखंडी का क्षेत्र विस्तृत करते हैं . पीड़िता अपनी लाज ,मर्यादा में पाखण्डी द्वारा शोषण को अपने तक ही रख लेती है . और इस तरह पाखण्डी का दुस्साहस बढता जाता है . उन्नत तकनीक का प्रयोग कर पाखण्डी ऐसे चित्र और वीडियो भी बनाने लगा है , जिसके द्वारा  पीड़िता यदि प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही पर जाते दिखे तो ब्लैकमेल करते हुए वह अपना बचाव कर सके .

परिदृश्य यदि इस तरह का है . तो हम इससे उदासीन नहीं रह सकते क्योंकि यह हमारे समाज को कई गंभीर क्षति पहुंचा रहा है .
*  धर्म को आवरण दे किये गए पाखण्ड के कारण अनावश्यक रूप से अन्य धर्मावलम्बी प्रश्न उत्पन्न करते हैं . 
*  सच्चे संत के प्रति भी शंका की दृष्टि बनती है .
*  उस कार्य में जिससे कोई शिक्षा ,सीख नहीं मिलती हिस्सा लेने के लिए अनेकों व्यक्ति अनेकों घंटे ,फ्यूल और धन  व्यय करते हैं .
* निर्दोष नारी अनावश्यक अपमान और कठिन जीवन को बाध्य होती है .
* हम और हमारी संस्कृति उपहास का विषय बनती है .

हमें समग्रता से उपाय करने चाहिए .
* कितने भी व्यवसायिक हित प्रभावित हों हमें पाखंडियों का विज्ञापन नहीं करना चाहिए .
* वैसे टीवी चैनेलों पर उनके प्रोन्नति की प्रस्तुतियां नहीं दिखाई जानी चाहिये . किन्तु ऐसा नहीं है तब हमें ना स्वयं देखना और अन्य को भी रोकना चाहिए .
* हम से जितना हो सके जागरूकता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए .
* किसी पाखण्डी का भंडाफोड़ किसी वयस्क कहानी की भांति और लम्बी लम्बी अवधि के लिए टीवी चैनेल पर बार बार प्रसारित कर ERP बढ़ाने के प्रयास करना महँगा "एयर टाइम" और "दर्शक समय" व्यर्थ करना है . इसके स्थान पर सच्चे संत की क्या क्रियाएँ , आचरण और कर्म होते हैं , बताने से श्रोता का ज्ञान बढ़ता है और उससे उन्हें "धर्म तथा सदमार्ग " और पाखण्ड में अंतर करना आता है .
--राजेश जैन
21-09-2013

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