Sunday, September 8, 2013

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस
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मनुष्य जन्मता है .अलग अलग पृष्ठभूमि ,परिवेश ,धर्म ,शिक्षा और संस्कारों में पलता बढ़ता है . इन विभिन्नता के साथ ही जन्मजात मिले मस्तिष्क की अलग अलग क्षमताओं के कारण सब की सोच ,समझ ,कर्म ,आचरण ,आस्था , जीवन प्राथमिकतायें इत्यादि अलग अलग होती हैं . जिसे एक तर्कसंगत ,सही और उचित निरुपित करता और मानता है कोई या कुछ अन्य उसे अनुचित भी मान सकते हैं .इन मत विभिन्नताओं का होना सहज है .इसलिए मत विभिन्नताओं को सहजता से ही लिया जाना चाहिए . लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थवश हम  मत विभिन्नताओं में संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं .
इसी तरह जीवन है तो कितना भी अच्छा और सच्चा कोई है जीवन में कभी भूल और त्रुटी करता है जो कम अच्छा और कम सच्चा है वह ज्यादा भूल और त्रुटी करता है . भूल और त्रुटियों का होना भी सहज होता है . और करने वालों को सुधार के अवसर मिलने चाहिये . मिलते भी हैं . लेकिन गंभीर किस्म की भूलें अपराध की श्रेणी में आती हैं . कुछ लोग कुछ अपराध करते हैं जबकि  कई अपराधिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं और कई कई अपराध करते हैं .कुछ अपराधी बदले में दण्ड भुगतते हैं . पर कुछ चतुराई से अपराध करते भी हैं किन्तु दण्ड भुगतने से बच जाते हैं .
इन बचते अपराधियों को देखते कुछ जानते -बूझते अपराध करते हैं . स्वयं तो स्वीकारते नहीं लेकिन पकडे जाने पर भी अपने को निर्दोष बताते रहते हैं .वास्तव में भूल ,अपराध किसी से कुछ हो गया है तो सीख सबक जिससे अगली बार वह ना करे दिया जाना न्यायसंगत और समाज व्यवस्था के लिए आवश्यक भी है . किन्तु किसी के द्वारा किन्हीं परिस्थिति ,आवेश ,उत्तेजना या क्रोध में हुए अपराध के बाद .शान्त अवस्था में अपराध बोध हो गया तो उसे स्वयं इसको स्वीकार करने और प्रायश्चित और दण्ड के लिए स्वयं प्रस्तुत होना चाहिए .
यह स्वस्थ आचरण है , मानसिक स्वस्थता की द्योतक है और स्वस्थ परम्परा भी है . जिसमें भूल और अपराधों का अस्तित्व रहते हुए भी सामाजिक स्वस्थता बनती है . मानवता भी यही होती है .
हुए अपराधों को स्वतः स्वीकारने पर और साक्ष्य से पुष्ट होने पर बाध्यता में स्वीकारने पर दोनों ही स्थितियों में दण्ड की मात्रा (प्रावधान ) वही रहते हैं . इसलिए अपराधों की स्वतः स्वीकोरिक्ति का चलन समाप्त सा हो गया है . अपराध प्रमाणित ना होने की संभावनाओं को ध्यान में रख अपराधी साबित होने के पूर्व तक उसे झुठलाता रहता है . अनेकों बार साक्ष्य अभाव में वह दण्ड भुगतने से बचता भी है . और ऐसे उदाहरण मिलने पर अपराधों की संख्या बढती है .
कोई व्यक्ति प्रयास यह नहीं करता कि वह कोई अपराध ना कर बैठे . इसलिए अपराध बढ़ते जाते हैं . बल्कि जिस व्यक्ति से अपराध हो गया है वह यह प्रयास  करता है कि अपराध के साक्ष्य कैसे मिटाये . इस प्रयास में वह हुए अपराध के बाद और बर्बर  अपराध करता है .
उदाहरण स्वरूप देखें .. अभी पुरुषों द्वारा नारियों पर दैहिक शोषण के अपराध बढे हुए हैं . ऐसे हुए किसी अपराध के बाद अपराधी उस पीड़िता को मार डालता है . यह बर्बरता इसलिए करता है ताकि उसके किये अपराध की शिकायत (साक्ष्य) वह बाद में ना कर सके . एक के बदले दो अपराध इस कारण हो जाते हैं .
पहले (इतिहास में)  हुए अपराध और भूलों को स्वीकार करने के साहस दिखाते , अपराधों पर प्रायश्चित करते और किये का दण्ड स्वतः माँगते और भुगतने के उदाहरण अनेकों मिलते थे . विशेषकर धर्म गुरु और संत तो यह कर ही लेते थे . किन्तु अब इन  उदाहरणों का अस्तित्व सिर्फ इतिहास के  पृष्ठों पर ही सिमट गया है .

आज अपने आप को संत कहता ,कहलवाता व्यक्ति भी अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस नहीं करता है . अगर इतने श्रेष्ठ पद पर आसीन कोई व्यक्ति यह नैतिक साहस नहीं दिखा सकता तो साधारण मनुष्य से अपेक्षा तो व्यर्थ ही होगी .
ना स्वस्थ परम्परा रहेगी ना ही हमारा समाज स्वस्थ रह सकेगा . प्रत्येक अपराधी ही बन जाएगा यही प्रवृत्तियाँ यदि जारी रहीं तो .
पराकाष्टा पर पहुँचने के बाद तो किसी बात में कमी की ही सम्भावना बनती है . बुराई कम करने के सार्थक प्रयास और अपने स्वहित त्याग करना यह पीढ़ी नहीं चाहती है . लगता है बुराई भी पराकाष्टा पर पहुँचने बाद ही कम हो सकेगी .
--राजेश जैन
08-09-2013

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