Saturday, January 31, 2015

भारतीय सिने इंडस्ट्री - एक आलोचक दृष्टि

भारतीय सिने इंडस्ट्री - एक आलोचक दृष्टि
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पूर्व आलेख 'अब मैंने भी देखी पीके' के अंश से आज का आरम्भ है -
"मंदिर, देश में बहुत नारी-पुरुष , जाते हैं !
मस्जिद कुछ कम जाते हैं !
गुरद्वारे और चर्च और कम जाते हैं!
किन्तु सिनेमंदिर जिनमें ये "रोंग नंबर" बैठे हैं!
बडे -बूढ़े नारी पुरुष हर बच्चे जाते हैं "

सांस्कृतिक विधाओं के अस्तित्व लगभग लुप्त
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फिल्मों के आगमन के बाद , धीरे-धीरे वे सांस्कृतिक मंच , जिनकी रचनात्मकता - समाज और युवाओं को सृजन को प्रेरित करती थी धीरे धीरे सूने होते जा रहे हैं।
संस्कार मिटते जा रहे हैं
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बच्चों को परिवार -समाज से मिलने वाले संस्कार - जो समाज में अपनत्व , दया और करुणा का संचार करते थे अब फ़िल्मी प्रभाव में मिट रहे हैं। युवा होते तक युवाओं पर फ़िल्मी संस्कार चढ़ जाते हैं।
भ्रामक सपने दिए फिल्मों ने
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फ़िल्में - विवाह पूर्व प्रेम को प्रमुखता से परोसती रही हैं। फ़िल्मी नायक -नायिका को इनमें लिप्त होते और युगल गीत और नृत्य में लीन कर आकर्षक प्रस्तुति के साथ दिखाना फिल्म की सफलता की गॉरंटी रही है। इसमें अक्सर नायक को निर्धन और नायिका को धनवान (या इसके उलट) दिखाकर , दर्शकों में भ्रम फैलाया गया।  अब गरीब किशोर /युवक इसी तरह किसी धनवान लड़की/लड़कियों के पीछे इसी भ्रम में पड़ता है , उसे लगता है , किसी दिन फलानी फिल्म की तरह वह लड़की उसके प्रेमपाश में आ जायेगी।  गरीब लड़की तो और विषम स्थिति की शिकार हो रहीं हैं। वे भी फिल्म के तर्ज पर अपना प्रेमी अमीर लड़कों में ढूंढती हैं , फिर ऐसे रईसों के वासना की शिकार हो अवसाद में जीती और समाज के ताने -उलाहने झेलती , कठिन जीवन को शापित होती हैं। (अपवादों पर कहानियाँ यों गड़ी गईं -जैसे यही विधि -विधान है ).

तलाक को प्रोन्नत करती फ़िल्में -टीवी धारावाहिक
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विवाह संबंधों में कलह प्रदर्शित कर - उसे तोडा जाता है , फिर नए से और कभी तीसरे से भी जुड़ पति /या पत्नी होते दिखाया जाता है , जिनमें वैवाहिक जीवन की मधुरता सुनिश्चित हो जाती है।  ऐसा प्रस्तुत किया जाता है , जैसे जो पहले साथी के रूप में मिला सही नहीं था। जबकि अगला या उससे अगला उसका परफेक्ट मैच होता है। भ्रामक ये प्रस्तुतियाँ - विवाह संबंध तोड़ रही हैं। बचपने से आज की जेनेरेशन ऐसा देख - इसी मानसिकता की हो रही हैं। प्रस्तुतकर्ताओं को तो धन और प्रसिध्दि दोनों मिलती है। यथार्थ में - युवाओं का जीवन नरक होता है। जिसे निभाने की कला नहीं आई वो एक क्या , एक के बाद कई से न निभा पाता है न ही प्रेम पाता है। (अपवादों पर कहानियाँ यों गड़ी गईं -जैसे यही विधि -विधान है ).

अपने स्वार्थ के लिए ले ली समाज व्यवस्था की बलि
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निःसंदेह समाज और परिवार में सबकुछ ठीक नहीं हो रहा था। बेशक कुछ बुराइयाँ खत्म की जानी चाहिए थी। लेकिन बुराई मिटाने के झूठे उपाय देकर फिल्मों ने समाज और परिवार को उससे जटिल बुराइयाँ दे दी। जिसे - ज़माना अपना फेवरेट मानता है , उसका धर्म होता है , वह ऐसा कुछ भूल से भी प्रदर्शित न करे , जिससे अनुशरण करने वाला भ्रमित होता है। किन्तु ऐसा धर्म नहीं निभाया गया । सिने मंदिर में बैठे रोंगनंबर्स ने , सिर्फ अपने स्वार्थ सिध्द किये और देश -समाज की अच्छाइयों की बलि ले ली। अफ़सोस सिनेमंदिर में ऊपर पैरा वर्णित अनुसार आज बच्चा -बच्चा जाता है। मालूम नहीं कब मोह-भंग होगा ,इन रोंगनंबर्स में हमारे देश के नागरिकों का।
--राजेश जैन  
01-02-2015

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