Thursday, January 10, 2013

धरती पर ही स्वर्ग

धरती पर ही स्वर्ग 

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                     रेलवे स्टेशन ओवर ब्रिज पर तेज ठण्ड में फटे से कम्बल और चादर में दोहरी हो जाने के बाद भी इधर उधर से ठंडी हवाओं की चुभन से बदन सिहर उठता था . ऐसे में नींद भी कभी हलकी ही लग पाती थी . अभाव , हो गए रोग , जीवन में ना बचे किसी तरह के सम्मान और आज की तेज ठण्ड सहनशीलता के बाहर हो गए थे . बार बार नींद टूट रही थी . और मन में विस्मृत से हो रहे बचपन के दिनों से बीते जीवन की धुंधली पड़ी बातें याद आ रही थी एक सपना सा बन जीवन कटु यथार्थ चल रहा था उस रात . क्यों आई , बाबा ने इतने लाड़-दुलार से पाला था ?, क्यों दकियापाने में उसे स्कूल न भेज कम उम्र में ही विवाह करा ससुराल भेज दिया था?  नन्हेलाल ने शादी के तुरंत बाद कितने प्रेम से रखा था उसे एक औलाद पैदा करते तक तो घर में ही घुसा  रहता था ,हर समय उसके आगे पीछे मंडराता रहता . न रसोई में ठीक से काम करने देता . और ना परिवार के सदस्यों से कोई शर्म करता . उसके अनियंत्रित हाव भाव से कभी उसे बहुत लज्जा सी महसूस होती सास-श्वसुर के सम्मुख .
                       सबकुछ ठीक और बड़ी प्रसन्नता से चलते अचानक नन्हेलाल को क्यों ख़राब संगत मिल गई ? शराब , बीड़ी और गांजे के नशे में पड़ अब वह गाली गलौज और मार पीट पर उतारू हो जाता घर आने पर. श्वसुर गुस्से के  तेज  थे  . बर्दाश्त से बाहर होने पर , अबोध पोते की फ़िक्र भी ना की उन्होंने  . नन्हेलाल के अपराध की सजा उसे भी भुगतनी पड़ी . घर निकाला होने पर जैसे -तैसे किराये की खोली मिली . नन्हेलाल कभी तो कुछ कमा लाता कभी खाली नशे में घर लौट खाने को मांगता . ना होता कुछ , ना दे पाती कुछ तो मार खाती . इतने पर भी निकल रहा था जीवन . बेटू १४ -१५ का ही हुआ था . थोडा बहुत स्कूल  जा पढना सीखा था . भगवान ने दृष्टि उस पर से और टेढ़ी कर ली . बेहद नशा करने और अभाव के खानपान से रोग ग्रस्त हो नन्हेलाल एक दिन साथ छोड़ चला गया ,दुनिया से. और दो तीन ही    वर्ष बीते होंगे बेटू एक दिन घर से निकला तो ना लौटा फिर . आसपास के उसके संपर्क के लोग कहते . बम्बई भाग गया , सिनेमा में काम करेगा, कह कर . भगवान पर उसकी भी श्रध्दा बहुत थी . पर लगता था जन्म देने के कुछ ही बरसों बाद वह भुला चुका था उस अबला को . एक से एक कठिन परीक्षा ले रहा था उसकी . घर में ना पति और ना ही बेटा. अकेली देख , गाँव में बड़ा कहा जाने वाला  एक दुष्ट आ घुसा घर में एक रात , रोने गिडगिडाने पर भी ना दया आई उसे . कालिख पोत ही उसके जीवन पर निकला था वह . दूसरे दिन प्रचारित भी कर दिया अपना दुष्कर्म उस निष्ठुर ने अपनी शूरवीरता बताते हुए . ताने -उलहाने से त्रस्त हो गई .
                    अब कई पुरुष ललचाई दृष्टि से देखने लगे उसे . सहन ना कर सकी . भाग आई दूर शहर में . लेकिन कैसे करे  उदर पूर्ती ?, कहाँ छुपाये अपने तन को ?  यह समस्या तो गाँव से विकट आ पड़ी . स्टेशन पर दूसरे दरिद्रों जैसी आ पड़ी . कुछ मांगती , कुछ छोटे मोटे काम से कमाती . पेट तो भर लेती पर , दिन में जो सज्जन से लगते रात आ जोर जबरदस्ती करने लगते . गाँव में कुछ थे यहाँ तो लगता दुष्टों की मंडी थी . पर हां जान पहचान नहीं थी अतः गाँव जैसी बदनामी यहाँ ना लगती . संख्या याद नहीं कितने इज्जतदार से उसके सामने नंगेपन पर उतर चले गए . अभी पचास की हुई होगी . पर लगने लगी थी वृध्दा . वृध्दा दिखने से एक लाभ तो हुआ था . दैहिक शोषण करने वाले अब कम आकर्षित होते और भिक्षा थोड़ी सरलता से मिलती . जैसे तैसे ठण्ड की रात गुजरी थी . सुबह सूरज की गर्मी देती धूप खिल आई थी .जिस कोने में ओवर ब्रिज पर धूप ज्यादा मिल रही थी , वहां आ बैठ गई थी . गुजर रहे मुसाफिरों  के सामने हाथ पसार देती . एक ने बिस्कुट का पूरा पैकेट ही दे दिया था . वह खोल कुतरने लगी थी एक के बाद एक बिस्किट .
                       जयपुर से लौटी अपनी बेटी को ले निर्भ्रम ब्रिज पर से जा रहे थे . एक महिला का बड़ा हाथ देख ,रुक बेटी को पांच का सिक्का दिया , महिला को देने के लिए .बेटी ने पांच का सिक्का अपने पास रखा फिर दस का नोट निकाला  और महिला को दिया . बेटी के मन में करुणा के भाव विध्यमान हैं यह ,एक बार पुनः पुष्टि हुई . संतोष हुआ निर्भ्रम को . निर्भ्रम ने    महिला को देख मानो सब कुछ पढ़ लिया था उस पर बीती . सोच रहा था दस  रुपये से क्या होगा . ना तो इज्जत खरीद पाएगी , ना कोई आश्रय हासिल कर पाएगी . ना ही कपडे और ना ही उचित भोजन . पर सामर्थ्य ज्यादा नहीं था .एक की कोई समुचित व्यवस्था कर भी दे ,जैसे तैसे तो . ऐसे दरिद्र और उनके दुखड़ों की तो लम्बी श्रंखला है .
                     रात्रि में बिस्तर पर आ जाने पर भी सुबह दिखी उस महिला को चिंतन से नहीं निकाल सका है . सोच रहा है . अपने लेखन को और ओजस्वी बनाना होगा . और समय देना होगा . एक दामिनी की लाज और जीवन जाने पर सबने बहुत शोर मचाया है . कितनी दामिनियाँ तो सदियों से भुगतती आ रही है . सब क़ानून तो रहे हैं . जो शोर मचाते हैं . उनमे से ही कितने अकेली दामिनी को पा अपने सच्चे कर्तव्य को निभा पाते हैं ..  नहीं ! न व्यवस्था कारगर होगी , ना ही मृत्युदंड का भय . फिर आजकल न्याय भी तो कई बातों से प्रभावित होने लगा है .. अगर कड़ा सजा प्रावधान भी कर दिया गया तो , क्या सही न्याय से सभी पर न्याय किया जा सकेगा ? उस कानून अनुरूप .
मनुष्य के ह्रदय से संवेदना की मात्रा , न्यायबोध और कर्तव्य बोध की मात्रा जो घट शून्य के स्तर पर पहुँचने देख रही है . उसे वापिस बढाने  की आवश्यकता है . यह समझने , समझाने की आवश्यकता है जो जीव उस महिला के अन्दर है .. उसी प्रकार का सबके   , माँ ,बेटी ,बहन और पत्नी  को मिला जीव है . अगर यह समान है तो उसी भाव और दायित्व की दृष्टि अन्य पर भी रखना होगा . हमें अपने धर्म अपने समाज और अपने देश का सिर्फ दिखाने भर का गौरव गान नहीं करना है . इसे अपने सभ्य आचरण कर्मों से ,मानव सभ्यता के उस शीर्ष पर ले जा स्थापित करना है .. जिस से हमारा देश हमारा मानव समाज और हमारा धर्म धरती पर ही स्वर्ग रूप में परिवर्तित हो सके ...

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