आत्ममंथन
1.डाल-डाल पर सोने की चिड़िया .. 2.हर शाख़ पे उल्लू बैठा ... दोनों ही दृष्टि और कर्म भारतीयों के ही हैं.
प्रथम पँक्ति (और गीत) भव्य संस्कृति से सीख - प्रेरणा - कर्तव्यबोध और आशा सभी संचारित करती है. वहीं दूसरी पँक्ति ( और शेर) आलोचना - शिकायत और निराशा उल्लेखित करती है। हम प्रथम से आशावादी होकर कर्तव्य की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा ले सकते हैं। साथ ही व्दितीय से आलोचना को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण कर - शिकायतकर्ता बनने की जगह , शिकायतों के कारण और जगह को मिटा सकते हैं। दोनों ही अर्थात गीत और शेर लगभग 50 वर्ष पूर्व गढ़े गये हैं - जब हमारी आजादी अपने बाल्यकाल में ही थी। किंतु इतने वर्षों के बाद भी इन पँक्तियों के सार को ग्रहण करना बाकि है।
लेखनी को हम आलोचना की ओर मोड़ें उस से बेहतर यह होगा कि इसे हम प्रेरणा की दिशा में बढ़ायें। हम पूर्व समय से आज ज्यादा शिक्षित हैं. हम अन्य की आलोचना से समझें , हम दूसरों की प्रेरणा से कर्तव्य प्रेरित हों - यह तो अच्छा है। पर उत्तम यह होगा - हम आत्ममंथन करें। हम, आत्म-आलोचक बनें और स्व-प्रेरणा ग्रहण करते हुए वे कारनामे करें कि "डाल-डाल पर सोने की चिड़िया" का विचार साकार हो। वैसे तो उल्लू पक्षी है वह कोई निंदा का अधिकारी नहीं है किंतु यदि है भी तो उसपर हमारी दृष्टि (सकारात्मक) उसे चिड़िया के रूप में देखे , और उल्लू हों भी तो उनके 'पर' हम सोने से निर्मित करदें।
"स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें"
--राजेश जैन
15-08-2017
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