Friday, January 19, 2018

सोचा नहीं था माँ ने - कभी बेटे का घर पराया लगेगा
वक़्त ने गलतफ़हमी थी - आज एहसास यह कराया है

कल घऱ था माँ का - आज बेटे को अपना लगता है
पर
किसी का न कोई घर - वक़्त ने हर बार दिखाया तो है

कैसी है इंसानी फ़ितरत - बार बार भूल वही करता है
हर बार खाता है ठोकर वक़्त की - मगर सीखता नहीं

ज़िंदगी ने हमें जीने को - मोहलत बहुत बार तो दी है
लगता हमें मगर अब - बहुत बार मोहलत मिलेगी नहीं

जिल्लत नहीं दिखा - ज़िंदगी से गुज़ारिश हम करते रहे
पर रिवाज़ बनें ऐसे - इज्ज़त से इंसान जी सकता नहीं


अपनी इज्ज़त की फ़िक्र में - वह ज़िल्लत औरों को देता है
इस इंसानी फ़ितरत में - इज्ज़त नहीं ज़िल्लत , का लेना देना है

खुद को ही ग़र - हम बदल लेते
फिर ज़माना है कैसा - शिक़वा नहीं रहता

ज़माने जैसा रहे फिर - हमने ख़ुद को बदल लिया
ज़माना कैसा , जाना - है सुधार क्या ज़रूरी भी , हमने जान लिया

अहसास में, ज़हर - तो इश्क़ मर्दज़ात है
अहसास में , दवा - तो इश्क़ स्त्रीज़ात है




 

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