Thursday, April 9, 2015

हमारा समाज और फ़िल्में

हमारा समाज और फ़िल्में
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हमारे समाज में , लगभग चौथाई जनसँख्या 5 से 16 वर्ष के बच्चों की , और लगभग आधी जनसँख्या ऐसे लोगों की होती है जिनके घर में भले - बुरे का ठीक तरह का ज्ञान और चर्चा नहीं मिली होती है। एक तथ्य यह भी है कि अब देश के तीन चौथाई से ज्यादा घरों में टीवी के माध्यम से फ़िल्में देखी जाने लगी हैं। फ़िल्में देखते समय यह भी लगभग महत्वहीन हो गया है , कि उनको सेंसरबोर्ड द्वारा क्या सर्टिफिकेट दिया है।
एक फिल्म आई थी बहुत सफल रही थी , जिसमें अच्छा मनोरंजन भी था।  फिल्म का संदेश भी बहुत ठीक था , किन्तु व्यक्तिगत तौर पर लेखक को दो बात अखरी थी।  इस फिल्म में कॉलेज डे फंक्शन पर एक स्टूडेंट जिसे हिंदी का कम ज्ञान था उसके हिंदी में भाषण की कम्प्यूटर फाइल में एक शब्द को दूसरे से रिप्लेस कर दिया गया था , उसे जब वह स्टूडेंट स्टेज से पढ़ता है तो फ़िल्मी कॉलेज हाल में उपस्थित श्रोताओं को बहुत हँसते हुए बताया गया है।  फिल्म के दर्शक भी इस फूहड़ हास्य पर लगभग लोटपोट वाले तरीके से हँसते हैं। इसी फिल्म में एक डायलॉग बार बार प्रयोग हुआ है जिसमें  "....... बीच में नहीं आती है " हाईलाइट किया गया है।
ऐसी बातों का पहले पैरा में बताई जनसँख्या पर क्या असर होता है ? और फिर इस से समाज में जीवन पर किन तरह की चुनौतियाँ बढ़ती हैं , बुराइयाँ उत्पन्न होती है , बच्चों के दिमाग में जो देश और समाज का भविष्य होते हैं में असमय किन प्रश्नों की उत्पत्ति होती है , इन सामाजिक सरोकारों से लगता है , फिल्ममेकर्स का कोई लेनदेन नहीं होता है।
यह बानगी एक फिल्म की है , लगभग हर फिल्मों में कुछ अच्छे संदेशों के बीच मसाले के रूप में इस तरह समाज विनाशक और मनोग्रंथियाँ उत्पन्न करती कुछ बातें चित्रित कर दी जाती है। परिणाम सामने है , बेशर्माई पिछले 60 -70 वर्षों में धीरे धीरे इस तरह सामान्य हो गयी है , कि उसे सामान्य जीवनचर्या माना जाने लगा है। बड़े -छोटों और नारी-पुरुषों के बीच की मर्यादायों की परंपरागत भारतीय भव्य संरचना ध्वस्त हो गयी है।
नारी विरुध्द अपराधों और नारी अपमान की घटनाओं  में चिंताजनक बढ़ोतरी हुई हैं। विडंबना है ,  हमें इन बुराइयों से असहमति और शिकायतें हैं , लेकिन इन सबके सोर्स क्या हैं , जड़ क्या है , न तो इन्हें सही पहचान ही रहे हैं और यदि पहचान भी रहें हैं तो समाधान के प्रयास सतही स्तर तक किये जा रहे हैं।
नहीं, ऐसा ठीक नहीं है।  इन से समस्यायें दिन ब दिन बढ़ती ही जायेगी। समय की माँग है , हमारी पीढ़ी आरोप -प्रत्यारोपों में उलझने के स्थान पर देश और समाज हित में कुछ ठोस कर के दिखाये।
--राजेश जैन
10-04-2015

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