Sunday, April 5, 2015

ललचाई दृष्टि

ललचाई दृष्टि
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हम अपने जीवन में आसपास समाज और संसार में लगभग अनंत (अनगिनत) ऐसी वस्तुयें ,प्राणी , और स्थान देखते हैं , जिन्हें पाना , जिनका सानिध्य पाना या जहाँ पहुँचना संभव नहीं होता है।  यह निर्धन और धनवान दोनों एवं अज्ञानी और ज्ञानी दोनों पर भी पर लागू होता है। ऐसे में यह सहज होता है , ऐसी सारी बातों के प्रति  हमारी दृष्टि में ललचाहट आ जाये।
हममें सभी के पास दो विकल्प होते हैं , (प्रथम) हम ललचाई दृष्टि रख जीवन यापन करें , या (दूसरा) ऐसा न करते हुए अपना समय ,ऊर्जा और विचार अपनी योग्यता बढ़ाने में लगायें। यदि दूसरे विकल्प को हम अपना जीवन सिद्धांत बनायें तो हमारी उपलब्धि ऐसी हो सकती हैं , जिनमें तुलनात्मक रूप से हमारे पास वे वस्तुयें ,व्यक्ति और स्थान हों , जिस पर अनेकों की ललचाई दृष्टि रहती है। इसके विपरीत प्रथम विकल्प में जीने वाले के विचार भटकते हैं , ऊर्जा और समय ललचाने में लगा रहता है , वे योग्यतायें उनमें नहीं आने पाती जिनसे कुछ चाहतों की पूर्ती संभव होती हैं।
मुख्य नारी समस्याओं में से एक यह भी है , वे बेखटके सड़कों पर  , बाजार में आधा /एक कि.मी. आ/जा नहीं सकती एवं व्यवसाय में कुछ घंटों नहीं रह सकती जब उन पर अवाँछित कटाक्ष आदि न होते हों। यह नारी समस्या उन्हीं लोगों के कारण उत्पन्न होती है जो ललचाई दृष्टि लिए ही घूमते/जीते हैं। वास्तव में हरेक नारी किसी एक को मिल ही नहीं सकती , लेकिन स्वभाव में लालच आ गया तो , समझ किनारे हो जाती है।
"आकर्षक सी कोई नारी देखी
और उस पर ललचा गए.
स्वयं को कुछ मिला नहीं पर
अपमानित उसको कर गए"
लगभग हरेक व्यक्ति आज , समाज , ज़माना और देश को ख़राब कहता मिलता है। लेकिन यह नहीं समझता है कि अगर ये सब ऐसा (ख़राब) है तो उस में योगदान स्वयं की अतिरेक लालच का भी हैं। ललचाई दृष्टि वाला ही सारी फसाद की जड़ है। लेकिन बहाना एवं दोषारोपण दूसरी बातों पर किया जाता है।
हममें से हरेक को जीवन में बार बार यह विश्लेषण करने की आदत बनाना चाहिए कि तय करें हमें सभी कुछ हासिल तो हो नहीं सकता किन्तु क्या हम हासिल करना ही चाहते हैं। जब ऐसा तय कर लेते हैं तो उसे देख ललचाने के बजाय हम  अपनी योग्यता बढ़ाने के यत्न करें ताकि अपने सपनों में से कुछ हम पूरे कर सकें। अगर हम ऐसा कर सकेंगें तो यही समाज , यही देश और हमारा ज़माना ख़राब नहीं अच्छा होगा।
-- राजेश जैन 
06-04-2015

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