Saturday, June 8, 2013

प्रदूषण (सामाजिक बुराई )

प्रदूषण (सामाजिक बुराई )
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आसपास नित्य ही कुछ बदलाव होता रहता है . सुबह भ्रमण के मेरे रास्ते में पिछले 6 -8 माह में और भी बदलाव हुए होंगे जिन पर मेरा ध्यान नहीं गया . दो बदलावों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया . 

एक था .. एक असमतल मैदान जिस पर कुछ पेड़ पौधे थे और एक हिस्सा पहले कपडे धोने के लिए प्रयोग किया जाता था . उसे पहले दो-तीन महीनों में व्यवस्थित कर एक उद्यान का रूप दिया गया .और पिछले चार माह की उचित देखभाल से वहाँ की सुरम्यता प्रभावित करने लगी है . अब सुबह शाम भ्रमण करने वालों की अच्छी संख्या देखी जा सकती है .
दूसरा ... एक पुरानी कोठी जिसके आसपास काफी खुली भूमि है .  कम देखरेख से देखने वालों को उपेक्षित पड़ा भवन लगता था . उसके सामने तरफ पहले लगभग दस फुट ऊँची चाहरदीवारी खड़ी करवाई गयी . दो तरफ बड़े फैब्रिकेटेड स्टील दरवाजे लगवाये गए और भवन से गेट तक टाइल्स लगाये गए . भवन पर पेंट और खाली भूमि पर घास और पौधे लगवाये गए . जितना  गेट से दिखता है उससे भवन आकर्षित तो लगता ही है साथ ही रहने वाले की प्रशंसनीय पसंद का परिचायक भी है .

दोनों ही बदलाव मनभावन हैं . मुझे उनमे एक अंतर दिखाई देता है .
एक सभ्य मनुष्य समाज की वृहद मानसिकता (ब्रॉड मेंटालिटी ) का परिचायक लगता है (सुरम्य उद्यान ) जो सार्वजनिक रूप से सभी के लाभ (स्वास्थ्य अपेक्षा से ) के लिए उपलब्ध है और आसपास के वातावरण को प्रदूषण रहित करने में सहायक है .
जबकि दूसरे भवन की ऊँची बनती चाहरदीवारी ( उल्लेखित भवन की नहीं जहाँ भी हम आज बना रहे हैं ) मनुष्य समाज की संकीर्ण मानसिकता (नैरो मेंटालिटी ) लगती है . अपना बचाव सहज और स्वाभाविक सोच है . इसमें बुराई भी नहीं है . और जब आसपास सभी की दृष्टि में खराबी है तो वे अन्दर ना झाँके , उठाईगिरी से घर के सामान सुरक्षित रहे ये उपाय तो उचित हैं . लेकिन आसपास उन कारकों को पहचान और उन्हें कम करने या समाप्त करने की उदासीनता के स्थान पर बाहर के प्रदूषण (सामाजिक खराबियों ) को अपने घर के बाहर रोक सिर्फ अपना और अपने परिवार का बचाव तक अपने को सीमित करना अपने सामाजिक दायित्वों की दृष्टि से अनुचित लगता है .
लक्ष्य आलोचना का नहीं . मै भी बचाव में लगभग ऐसे उपाय करता हूँ . 
लेकिन किसी को अपने बचाव में सकुचित होने की बाध्यता न रहे ऐसे एक समग्र भाव मनुष्य मन में उत्पत्ति के लिए सभ्यता की दिशा मोड़ना आवश्यक लगता है . सभी के घर में माँ -बहन ,पत्नी और बेटियाँ हैं . हमारी दृष्टि ही इतनी अच्छी हो ,दूसरों के मूल्यवान सामग्री पर हमारी नीयत ना जाये ताकि रोकने दीवार ना लगे  . 

पहले इतना चिंताजनक यह परिदृश्य ना था . आज अच्छा समाज असंभव सा लगने लगा है और हम संकुचित हो सोचते और करते रहेंगे तो कल असंभव हो जाएगा .

भावी समाज परिदृश्य यह हो सकता है.... सभी  चतुराई से चलने लगेंगे . एक दुसरे से बचाव के उपाय ही करते रहेंगे जहाँ चूक होगी छले जायेंगे .

ऐसा क्या हमें पसन्द होगा ? .... परिस्थितियों के समक्ष संकीर्णता से हमारा समर्पण न्यायसंगत नहीं होगा. 


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