ऐसा सपना तो स्वयं हमारा ही रहा है
------------------------------ --------
हमारे बच्चे भारतीय परिवार में पालकों को बहुत मान -सम्मान और श्रध्दा से देखते ही हैं .
परिवार से हम भी बहुत स्नेह रखते हैं .आज स्वहित और परिवार हित को ध्यान कर हम अधिक धन अर्जित करने के जी तोड़ प्रयास करते हैं .इसमें सफल होने पर हमारे बच्चे हमें और भी अधिक चाहते हैं . फिर धन -बाहुलता उन्हें जीवन मजे के राह पर प्रशस्त करती है .
आज अनेकों तरीके हैं जिसमें ना-ना प्रकार के जीवन सुख (विलासिता ) ,आनंद उठाये जा सकते हैं .
हमने परिवार हित के लिए जीवन जिया है तो उसका अपेक्षित प्रतिफल हमें मिलता है . हमारे बच्चे की प्रसन्नता में धन अभाव कभी रोड़ा नहीं बनती .पर इतने साधनों से सारे सुख उपलब्ध करने के लिए कभी समयाभाव आड़े होता है .ऐसे में बच्चा (जो अब युवा हो चुका है ) लाचार होता है उसे कुछ समय और बचाना पड़ता है ताकि धन-उपभोग सरल हो सके .
वह अब हमसे कुछ कम वार्तालाप कर पाता है . ऐसे में हम स्वस्थ और अपने दैनिक क्रम में स्वयं व्यस्त हैं तो कोई बुराई नहीं है .पर अस्वस्थ हैं और अपनी कोई विशेष दिनचर्या नहीं है . और खाली समय हमारे पास है तो बच्चे की लाचारी में हमें अपनी उपेक्षा प्रतीत होती है .
यहाँ हमें यह विचार रखना होता है कि बच्चे के सुखमय जीवन जो उसे उपलब्ध हो रहा है ऐसा सपना तो स्वयं हमारा ही रहा है .हमारे हर्ष का विषय है जो
अब यह सपना साकार हुआ है और बच्चा अपने परिवार सहित बहुत सुखी है .हम सफल ना होते धन बाहुलता उपलब्ध ना करा पाते और मध्यम वर्गीय ही रह जाते तो बच्चों के जीवन को इतना सुविधामय और सुखमय बनाने का हमारा सपना अधुरा रहता . तब ऐसी उपेक्षा नहीं लगती तो बच्चे के संघर्षमय जीवन की सच्चाई से हम उदास होते .विचारपूर्वक अगर हम सकारात्मकता रखें तो
हम सफल इसीलिए रहे हैं क्योंकि वस्तुस्वरूप पहचानना हमारे लिए सरल रहा है .
वंचितों के सुख के लिए कुछ करने का संकल्प लें तो इसमें भी हम सफल रहेंगे और मानवता और समाज हित कर सकेंगे .
No comments:
Post a Comment