मितभाषिता - बुद्धिमानी
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जीवन में कभी बहुत अनुकुल समय होता है . कभी कठिन (विपरीत) समय भी आता है .
मितभाषी होना अकेले बुद्धिमानी का ही प्रतीक नहीं है . बल्कि मितभाषी होने से हम अपने ही बोलों से शर्मिंदा होने से भी बचते हैं .
हमारा बिना विचारे बोले शब्द हमें अनावश्यक विवादों में उलझाते हैं . हमें समय परिवर्तन के साथ आत्म-ग्लानि को भी बाध्य कर सकते हैं .
बहुत अनुकुल समय में बडबोलेपन की प्रवृत्ति होती है इससे हमारे स्वर में अभिमान झलक सकता है . फिर समय कभी पलटता है और जीवन में कठिन समय आता है . तो अभिमान के स्वर स्मरण करने या अन्य के द्वारा कराये जाने पर हमें ग्लानि हो सकती है .
इसके विपरीत कठिन समय में हम निराशा और दुःख की स्थिति में अन्य या परिस्थितियों को धिक्कारते (कोसने के बोल) हैं . विपरीत कठिन समय समाप्त होता है तो फिर अपने ही बोलों का स्मरण पछतावे के कारण होता है . तब हमें लगता है कि जीवन माला लगभग सभी की अनुकुलता और कठिनाई के मोतियों से गूंथी होती है . हम अकारण धैर्य छोड़ कभी स्वयं को अत्यंत शक्तिशाली तो कभी असहाय समझाने की भूल करते हैं .
अगर अभिमान और कोसने दोनों के स्वर उच्चारित करने से बचें तो हम मानव रूप में ज्यादा उन्नति करते हैं . यहाँ धन वैभव की प्रगति की बात नहीं होती है .
धन वैभव होते हुए या ना होते हुए भी एक मनुष्य मानवता को पुष्ट कर सकता है .एक अच्छा दृष्टान्त बन कर समाज हित प्रशस्त कर सकता है .
राजेश जैन
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