Wednesday, May 29, 2013

निर्दोष स्वयं को मानते

निर्दोष स्वयं को मानते 
--------------------------
साधन में हम  सुख तलाशते 
स्व जीवन साधन से साधते 
साधन जुटाए किस तरह हमने 
न्याय -अन्याय गौड़ कर देते 

छल ,चतुराई का आश्रय लेते 
सुख भ्रम साधन में मानते 
अन्याय मार्ग से जुटाया साधन 
दुःख देता हम सुख समझते 
 
सुख भ्रम पाल छल हम करते 
छल परम्परा प्रौन्नत करते 
जो साधन छल से जुटाते 
दूसरों के छल से कभी खो देते 
छल परम्परा पुष्ट की हमने
रहते हाथ मलते और कोसते 
फिर भी निर्दोष स्वयं को मानते 
समय ख़राब है प्रचार ये करते 

बदलने से हमारे अकेले के 
समाज बुराई न मिटेगी मानते  
बुराई से निपटने और बुरे बन जाते 
बच्चों को ऐसे संस्कार दे देते 
चाहे जैसे वे यदि बनते तो 
उन्हें स्मार्ट कह प्रसन्न हम होते  
उदासीन हम जब दूसरा भुगते 
अपने पर आती तो रोते-चीखते 
न्याय से अगर साधन जुटाते 
जीवन साध साधन से पाते 
उचित करते पुरुषार्थ यदि अपने 
सच्चा जीवन सुख हम पा लेते 
अस्वस्थ चली छल परम्परा 
ख़त्म करें कमर कस लें 
यह समाज अपना समाज है 
मानवता से चल सुखी कर लें 

--राजेश जैन 

No comments:

Post a Comment