Thursday, May 2, 2013

निज स्वार्थ के सिपाही


निज स्वार्थ के सिपाही 
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विश्व में प्रतिदिन सहस्त्रों मनुष्य की मौत होती है .
जो मौतें रोगों से होती हैं  या दुर्घटना में ( किसी  द्वेष के बिना, किसी असावधानी से होती है . )
ऐसी मौत से भी परिजन मातम को बाध्य होते ही हैं . वास्तव में मौत कभी हर्ष का विषय नहीं होता है ..
लेकिन वह मौत जो किसी ने जानकर किसी को दी हो . वह मौत परिजन मातम का कारण बनने के अतिरिक्त  एक लम्बी अवधि का वैमनस्य बीज उत्पन्न करती है . जिसके विषैले प्रभाव से और भी मौतों का सिलसिला बनता रह सकता है .

मनुष्य सभ्य नहीं कहा जाता था तब तक तो छोटे छोटे कारणों से किसी के प्राण ले लेना चलन था .
लेकिन सभ्य कहलाने के बाद यदि अभी भी वह चलन है तो हैरत है ...
अप्रिय लगेगा अवश्य पर सच यही है हम अभी भी असभ्य मनुष्य समाज ही हैं .

मनुष्य नस्ल का भेद ,
राष्ट्र सीमा ,
भाषा ,
धर्म ,
आर्थिक स्तर ,
और जाति आदि
यदि ऐसे संघर्ष उत्पन्न करती है जिससे निर्दोषों की या जानकर किसी की हत्या होती है .
तो यह भेद या सीमाएं सभ्यता के द्योतक नहीं रहते .

हमें या तो ये भेद और सीमाएं समाप्त करने चाहिए या अगर भेद रखे जाने के हम पक्षधर हैं तो उन्हें निभाने में हमें ज्यादा लचीला होना चाहिए जिससे हमारे अन्दर से दुष्टता भाव इतना नियंत्रित हो जाए  कि वह किसी के  प्राण हनन में परिणित ना हो .
जिस दिन युध्द ,संघर्ष या छिपे तरीके से हत्या और जाने बूझे मौत की वीभत्सता देखने केअभिशाप से समाज मुक्त होगा .
उसदिन सचमुच हम सभ्य होंगे .

जलियांवाला में उन्नीस सौ उन्नीस में , हजारों मौतों को दुश्मन का कृत्य कहा गया .
उन्नीस सौ चौरासी की हजारों मौतें तो कोई दुश्मन के द्वारा नहीं की गईं .
जलियांवाला में नाम अवश्य अंग्रेजों का हुआ पर मारने वाले उसमें भी यहीं के जन्मे थे .
मारने वाला किसी का सिपाही या दुश्मन का आदमी या अपना पराया नहीं होता वह तो "निज स्वार्थ के सिपाही"  होता है .

जलियांवाला के सिपाही भारतीय हो के भी भारतीय के सीने पर गोली दाग रहे थे . क्योंकि उस आदेश को मानने पर ही उनके प्राण और नौकरी सुरक्षित रहनी थॆ. उन्नीस सौ चौरासी में भी मारने वाले अपने कुकृत्य को कारनामे के रूप में रख अपने मालिकों से उपकृत होने का स्वार्थ देख रहे थे .

हमें स्वार्थ को नियंत्रित करना होगा जिससे इस तरह घोर अनैतिकता और अन्याय अपने जीवन में हम ना करें .
जब ये नियंत्रण स्वयं से आरम्भ कर सकेंगे तब मानवता के पथ पर समाज प्रशस्त  सकेगा और हमारा समाज "सच्चा सभ्य मनुष्य समाज" हो सकेगा .


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