Tuesday, April 16, 2013

LET IT BE

LET IT BE
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धन उपार्जन के लिए अथक मेहनत करने वाला  पिता अर्जित  धन व्यय करते हुए विवेक विचार से व्यय औचित्य का परीक्षण करता है . जबकि उनका संचित धन के पीछे लगा कठोर परिश्रम का ज्ञान कभी कभी संतान को नहीं होता . अतः वे व्यय करते समय ज्यादा गंभीर नहीं होते .जिससे अपव्यय के साथ  उनमें दुरव्यसनों के उत्पन्न हो जाने की सम्भावना होती है .

व्यय औचित्य की सच्ची दृष्टि उनको मिलती है ,जिन्होंने ने उसके अर्जन में जीवन ,श्रम और न्याय लगाया होता है . इस तरह से अर्जित धन कहते हैं परिवार में कभी बुराई नहीं लाता है . अतः समाज को बुराई से बचाना है तो स्व-अर्जित धन में से व्यय को प्रेरित करना आवश्यक लगता है . 
माँ-पिता का संचित किया धन मूल आवश्यकताओं पर व्यय किया जाए . जबकि विलासिता के लिए व्यय स्व-अर्जित धन में से किया जाए तो हर परिवार बुराई रहित हो सकते हैं . और जो समाज बुराई -रहित परिवारों से मिलकर बनेगा वह स्वतः कम बुराई वाला समाज होगा .

देश की जिन पीढ़ियों ने बलिदानों ,त्याग और वीरता के बल पर देश स्वतन्त्र कराया उन्हें तो स्वतंत्रता का मूल्य पता था . उन्होंने परतंत्रता की विवशता भी अनुभव की हुई थी . अतः स्वतन्त्र भारत के पुनर्निर्माण में वे गंभीर थे . लेकिन ज्यों -ज्यों वह पीढ़ी देश में कम बचती गई और ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता को मिली अवधि बढती गई . उसके ( स्वतंत्रता प्राप्ति ,तथा परतंत्रता की विवशताओं) पीछे लगे बलिदान ,परिश्रम और वीरता का अहसास कम होता गया .

हमारा राष्ट्र के प्रति कर्तव्य होता है यह विवेक सोता गया . जबकि राष्ट्र से हमें क्या मिलना चाहिए यह अधिकार बोध बढ़ता गया . हमने आत्मावलोकन के लिए कभी समय नहीं निकाला . मोटी दृष्टि में हमें अन्य लोगों के दोष दिखे ,सूक्ष्मता से जो दोष अपने में दिख सकते थे उस दृष्टि का प्रयोग ही हमने छोड़ा .

आपसी दोषारोपण की स्वतन्त्र भारतीय शैली में व्यक्तिगत शांति -सुख किसी किसी को मिला .पर वह गौरव जो भारतवासी होने का हम रखते थे क्रमशः कम होते जा रहा है . ऐसा गौरव बढ़ाने के लिए सामूहिक प्रयास से भारत देश का गौरव बढ़ाये जाने की आवश्यकता होती है .

पर हम आपस में कहीं अपनी भाषा ,कहीं अपनी जाति ,कहीं अपने धर्म और कहीं कहीं अपने प्रदेश को श्रेष्ठ बताने या बनाने में संघर्ष रत होते हैं . जो इस देश की प्रगति नहीं देखना चाहती वे बाह्य शक्तियां हमारी इस कमी का उपयोग कर जब -तब हमारे आपसी संघर्षों के बीच कोई चिंगारी डाल देते है. जिससे भड़कती ज्वाला में हम बुरी तरह झुलसते हैं . और इस दृश्य से (दूसरों के कष्ट से मानव नहीं )  दानव प्रसन्न होता है .

क्या हम सब इसे समझना चाहेंगे ? या LET IT BE की उदासीनता से इसे जारी रखेंगे ....

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