Saturday, April 13, 2013

बुध्दिमत्ता
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आज सुविधा भोग लालसाओं के हावी हो जाने से बहुत विकार और मनोविकृतियों को स्थान मनुष्य ह्रदय में मिला हुआ है . इसलिए इसके प्रभाव में मनुष्य जीवन को हम उपभोग प्रधानता में जी रहे हैं . जीवन आदर्शों की शिक्षा ,चर्चाएँ बिरली होती जाने से मनुष्य जीवन वास्तव में कितना अनमोल है इसका विचार बहुत कम ही समय हमारे दीर्घ जीवन में हमें आता है .
सब कैसे जीवन यापन करते हैं यही हम देखा करते हैं . तर्क होता है जब सब ऐसा करते हैं तो हमें भी वैसा करने में क्या कष्ट है . इस तरह जीवन आदर्श की एक सीढ़ी दूसरे उतरे तो हम भी उतरने को तैयार हो जाते हैं . इस प्रकार उच्च आदर्शों से हम बहुत निम्नता के स्तर पर आते जा रहे हैं .जबकि आदर्श की सीढ़ी का प्रयोग उच्चता पर पहुँचने के लिए किया जाना चाहिए .
आदर्श वास्तव में मनुष्य जीवन में संतुलन बनाते थे . जहाँ उपभोग और त्याग के बीच , प्राप्तियों और दान के बीच ,विश्राम और श्रम के बीच तथा जिव्हा लिप्सा और पौष्टिकता के बीच सुन्दर संतुलन होता था . हम श्रेष्ठ भी होते थे तब भी दूसरे को हीन मानते व्यवहार नहीं करते थे . हम अहंकार से दूर रहते थे .
आज स्थिति विपरीत है . उतने श्रेष्ठ हम नहीं होते जितना समझते हैं . इस भ्रम विचार से व्यर्थ अहंकार हमारे में आ समाता है . कुछ व्यवहारिक शिक्षाएं दूसरे की तुलना में हमें ज्यादा मिल गई होती हैं . कुछ वैभव हमें ज्यादा उपलब्ध होता है . तब मुहँ से हम नहीं हमारा अहंकार बोलने लगता है .
आज के चलन में सामने चापलूसी में अन्य हमारी झूटी प्रशंसा बखान करने लगता है . हम उसे नहीं पहचान पाते क्योंकि हम अपने को ऐसा माने होते हैं . जबकि पीठ पीछे वही हमारी बुराई या हँसी उडाता है . जब पीछे कही गई बातें हमारे सम्मुख प्रकट होती है तो हमारा मन बडा दुखी होता है .

हम स्वयं सिध्दांतहीन जीवन जी रहे होते हैं , लेकिन अन्य से उच्च सिध्दांतों को पालते जीवन यापन की अपेक्षा करते हैं .
हमारे इस दोहरे चरित्र का संज्ञान हमारे बच्चे छोटे से बड़े होते अनेकों बार लेते हैं . वे भी दोहरा चरित्र का संस्कार ग्रहण करते है और जब आयु के साथ शिथिल होती शक्तियों के समय हमारे ही जुटाए वैभव के अहंकार में हमारे ही बच्चे हमारा अपेक्षित सम्मान और सहारे की हमारी अपेक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते . तब हम अकेलापन अनुभव करते हैं . हमें उस वैभव जोड़ने की प्रवृतियों पर पछतावा होता है ,जिसके प्रयास में हम छल करते थे .हम न्यायप्रिय नहीं रह सके थे . हम इतने व्यस्त रहे थे जिसमें हमें जीवन के 60-70 वर्ष कैसे बीते इसका ही अनुभव नहीं हो पाया था .
बच्चों को हम अभाव में ना पालें .अपनी जिम्मेदारी उनके प्रति निबाहें . पर उनमें हानिकर अहंकार ना आये उसके लिए स्वयं को अहंकार से दूर रखें . अहंकार हमारी दृष्टि पर एक भ्रम परत बन छा जाता है . जिसके प्रभाव में हम अनमोल मनुष्य जीवन संभावनाओं को ही नहीं देख पाते . और असाधारण बन सकने की अपनी प्रतिभा का प्रयोग ना कर साधारण रूप में जीवन जीते हैं . अपना और अपने माध्यम से समाज और मानवता का हित नहीं कर पाते .
हम समीक्षा करें यदि ऐसी कोई भूल हम कर रहे हैं तो तुरंत सुधारें .भूलों का अनुभव कर लेना अपने आप में बुध्दिमत्ता का परिचायक है . उन्हें सुधारना तो बुध्दिमत्ता के साथ मानवता हितकारी भी होता है ...

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