Monday, April 8, 2013

परतंत्र विचारों , बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से मुक्ति

परतंत्र विचारों , बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से मुक्ति
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विदेशियों की परतंत्रता की जंजीरों से देश जकड़ा था हमारा आत्म-सम्मान ,स्वाभिमान विवशता में रोता था . हममें से जिन्होनें अतिरिक्त वीरता दिखाई ,उन्होंने प्राणों की ,परिवार की और अपनी जीवन लालसाओं को ह्रदय से परे कर राष्ट्र को स्वतन्त्र करने का लक्ष्य लिया .
उनमें अनेकों शहीद हुए , प्राणों की आहुतियाँ दे दी .इस विचार से उनके दूसरे भाई -बहन , बेटे- बेटियां स्वतन्त्र भारत में इस विवशता से मुक्त होंगे . देश के सभी हिस्सों से ऐसे वीर बलिदान हेतु आगे आये थे .
किसी क्षेत्र या जाति अथवा धर्म को कम या ज्यादा बताना एक तरह से उन लड़ाकों का अपमान ही होगा जिन्होनें देश को समग्रता से एक मानते और विचारते हुए अपने जीवन सुखों और प्राणों का बलिदान किया .
फिर भी पंजाब का उल्लेख अलग से करना होगा . इस माटी के सपूतों ने अदभुत वीरता और त्याग की अनेकों गाथाओं की रचना की .
ऐसे सभी सपूतों जिन्होनें जीवन और जीवन सुखों की आहुति दी, उनके ह्रदय में कहीं भी यह संकीर्ण भावना नहीं थी कि देश स्वतन्त्र होने पर कई हिस्सों में बँट जाए . फिर इस तरह चाहा जाना ,हमारे द्वारा उनके बलिदानों का अपमान करना सा लगता है .
देश स्वतन्त्र हुआ . उसके बाद इस तरह के बलिदानों की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए थी . स्वतन्त्र भारत में किसी को जीवन पर यह अपने जीवन सपनों को तज देने की लाचारी नहीं होनी चाहिए थी . और ना ही आत्मसम्मान और स्वाभिमान से किसी को कोई समझौता करना लाचारी होनी चाहिए थी . ऐसा सामाजिक और राष्ट्रीय परिदृश्य हम निर्मित करते तो स्वतंत्रता के वीरों /शहीदों को हमारे द्वारा यथोचित सम्मान या सच्ची श्रध्दांजलि होती .
अप्रिय है यह लिखना ऐसा परिदृश्य नहीं बना . स्वतन्त्र देश का स्वतन्त्र नागरिक  प्रभुत्व शाली राष्ट्रों का, उनकी जीवन शैली ,संस्कृति और तौर  तरीके से प्रभावित रहा और  पिछलग्गू  वैचारिक परतंत्रता में जकड़ा रहा .
इस परतंत्र विचारों के कारण हम अनायास उन शक्तियों को ही पुष्ट करते रहे जो इस उपमहाद्वीप की भव्य परम्पराओं और उच्च चरित्र को पनपते देखना पसंद नहीं करती थी . और इस कारण समय समय पर स्वतंत्रता के बाद भी बाह्य ताकतों ने हमें ही उपयोग कर हमारी घरेलु कलह को चालाकी से उग्र रूप प्रदान करने में सफलता पाई . भाई -भाई के बीच हिंसा उत्पन्न कर एक दूसरे के प्राणों का दुश्मन बनाया .

इस तरह जो शक्ति राष्ट्रीयता को पुष्ट कर सकती थी  वह विघटन में व्यय होती रही . 65 वर्षों बाद परिदृश्य यह है देश का युवा अपनी संस्कृति के बारे में कोई जानकारी नहीं रखता . परतंत्र विचारों को प्रसार करते आधुनिक साधनों पर वैश्विक संस्कृति से सम्मोहित हो सिर्फ और  सिर्फ भोग लोलुपता में आकृष्ट हो रहा है . जन्म यहाँ लेता है .बढ़ता पढता यहाँ है फिर अपने सपने तलाशने विदेशों में भविष्य ढूंढता है . और वहां हल्की श्रेणी का व्यवहार सहन करते हुए वहां के सिस्टम को पुष्ट करता है .
वहां भ्रमण कर या कुछ वर्षों निवास कर लौटे ,हमारे अपने  अपसंस्कृति का वाहक बन विभिन्न मंचों से आधुनिकता के नाम वह परोसते हैं .उससे धन और प्रतिष्ठा अर्जित करने में सफल होता कोई   दिखता है तो युवा या बच्चा जो देश हित के लिए ख़राब और गंभीर परिणामों को नहीं समझता ,सरलता जान इसकी नक़ल करते हैं


कब तक यह क्रम हम चलाएंगे . कब तक दूसरों की कुत्सित चालों को नहीं समझेंगे . इस माटी से बन कर यहाँ खून खराबा स्वीकार करेंगे . उस पर नियंत्रण के लिए अपेक्षित त्याग ना कर .यहाँ भविष्य नहीं रहा इस तर्क पर देश से पलायन करेंगें . अगर ये सब हमें स्वीकार है हम वैचारिक परतंत्रता में ही अपना हित जानते हैं तो क्या आवश्यकता थी इतने बलिदानों की कीमत में स्वतन्त्र होने की ?
यह यथार्थ यदि अप्रिय लगता है हमें , तो फिर  कुछ व्यक्तिगत त्याग को हम तैयार हों . लड़ें एकजुट हो वह लड़ाई जो हमें परतंत्र विचारों और बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से  मुक्त कराये .
सच्चा स्वतन्त्र भारत बनायें . आपसी संघर्षों को हम ख़त्म करें .पूरे राष्ट्र का  वातावरण और परिदृश्य इतना आदर्श बनायें जिससे  यहाँ जीवन बिताना हमारे बच्चे विश्व में सबसे शांत और सुखद मानें .

हम ने  वह पराक्रम देखा है जिसमें अपने निजी हितों से ऊपर उठ अपनी आगामी सन्तति (बच्चों ) के हित को प्रमुख कर वीरता से बलिदान तक दिया गया  है .

आओ कुछ तो बलिदानी आगे आओ . जीवन बलिदान नहीं चाहते. कुछ जीवन सुखों और व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर इस भारत वर्ष की प्राचीन भव्यता को पुनः स्थापित करें . हमारे पीछे जैसे पहले था विश्व ,फिर वह हमसे मानवता की प्रेरणा लेने हमारे पीछे आये .

 

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