Wednesday, April 10, 2013

मानवीय और सामाजिक कर्तव्य

मानवीय और सामाजिक कर्तव्य 
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युवतियाँ (जो हमारी बहन और बेटियाँ हैं ) विशेष कर व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत या छात्रावास में निवास करते अध्ययनरत होती हैं . वे बहुत समय ऐसा पाती हैं जब किसी परिस्थिति में उन्हें क्या करना है या क्या नहीं करना है उसका निर्णय उन्हें स्वयं करना होता है . क्योंकि हर समय अनुभवी और बड़े परिवारजन उनके साथ नहीं होते हैं .अध्ययन या कार्यालयीन /व्यवसायिक विषय पर निर्णय तो उनके विषय दक्षता के ही होते हैं जो सही ना होने पर थोड़े कठिनाई या क्षति के साथ भूल सुधार और परिवर्तित किये जा सकते हैं .

जिन निर्णय के प्रभाव नारी जीवन पर विपरीत हो सकते हैं वे विपरीत लिंगीय आकर्षण से सम्बंधित हैं 
युवतियाँ घर के बाहर जहाँ भी अकेली (परिजनों से दूर ) होती हैं वहाँ अधिकतर पुरुषों की उनके आसपास सक्रियता इस नीयत से होती है कैसे वे युवती को प्रभावित कर लें ,उनकी निकटता उन्हें मिल जाए . अगर इसमें सफल हुए तो आगे बहुत सी मनबहलाव संभावनाओं  के द्वार उनके लिए खुल जाते हैं . यहाँ पुरुषों का एक ठीक विपरीत चरित्र देखा जा सकता है ,वही पुरुष जो घर में बहन ,बेटी या पत्नी से संस्कारों ,परम्पराओं और संस्कृति की दुहाई देता है , अन्य की बहन ,बेटी या पत्नी से आधुनिकता के नाम पर स्वछन्द व्यवहार की अपेक्षा और उसको प्रेरित करने लगता है .वह सफल अगर होता है तो फिर नारी उसके लिए सुविधा या उपभोग की वस्तु होती है .जब तक अच्छी लगी साथ रखी ,और पुरानी या असुविधाजनक लगी तो अलग कर दी . युवतियाँ अगर उनके मंतव्य समझने में भूल कर बैठी या विलम्ब कर बैठी तो उनका साथ करने का लिया निर्णय उनके आगामी जीवन पर दुष्प्रभाव कारक सिध्द हो जाने वाला होता है .
इन दुष्प्रभाव को जीते युवतियों के हावभाव से भनक जब तक घर के पुरुषों को पहुंचती है तब घर का परंपरागत पुरुष (पिता ,भाई ,पति इत्यादि ) युवती के दुःख में स्वयं दुखी हो लेता है . और यदि परिवार की नारी का शोषण उनकी सहनशीलता के बाहर होता है तो उनकी हिंसकता आत्मघाती /युवती के लिए हानिकारक/घातक  या फिर उस पुरुष की  ख़राब परिणिति का कारण बनती है . जो  किसी दूसरे  की बहन बेटी के साथ पथ भ्रमित करने वाली आधुनिकता का व्यवहार करते हैं. जबकि स्वयं की घर की नारियों के साथ वे परम्परागत ,उच्च चरित्र समर्थक पुरुष होते हैं .

अगर पाँच -दस प्रतिशत युवतियाँ भी इस तरह की स्थितियों (विपत्ति ) में जा पहुँचती हैं . तो समाज को इसका बहुत बुरा परिणाम भुगतना होता है . शोषित नारी अवसाद ग्रस्त ,दुखी होती है उसके परिजन दुखी हो जाते हैं .प्रतिक्रिया में यदि अपराधिक कृत्य  घटित हो गया तो स्वयं और दूसरे पक्ष के लोगों के गहन दुःख के कारण तैयार हो जाते हैं .और समाज में दुखी कोई विद्यमान हैं और यदि उनकी संख्या दस प्रतिशत तक की है तो समाज सुखी कैसे हो सकता है .


स्थिति इतनी विकट यदि  नहीं बनी .पुरुष मित्र की चंचल मन प्रवृत्ति को युवती ने जल्दी भाँप लिया और छुटकारा ले लिया तो भी असफल (कुछ प्रकरण में एक से अधिक भी होते हैं , जब तक कोई समुचित साथ मिलता है ) सम्बन्धों  और उससे छले जाने की कटुता और एक तरह का अपराधबोध उसके सीने पर असहनीय भार के तौर पर आजीवन रहता है . (भारतीय परिवार में सदस्यों के चरित्रवान रहने की आवश्यकता लगभग प्रतिदिन चर्चा में रहती है ) .
यह एक तरह से सौ किलोग्राम के पीठ पर लदे अदृश्य भार के सदृश्य होता है .जिसको जीवन भर ढोते जाने की लाचारी छली गई नारी को निभानी होती है .

किसी के जीवन प्रारम्भ होने पर यदि जीवन लक्ष्य एक हजार कि .मी . के जीवन पथ पर चलने के बाद मिलता मान लेवें . तो इस अदृश्य भार  (सही निर्णय/सावधानी  ना लिए जाने के परिणाम स्वरूप ) को ढोने की लाचारी से जीवन पथ पर बढ़ते कदम शिथिल हो जाते हैं . ढोते -ढोते आरम्भ से कुछ अस्सी -सौ कि. मी . तक पहुँच ही जीवन श्वांस टूटती हैं . उच्च जीवन शिखर /लक्ष्य तक पहुँचने की योग्यता रहते हुए भी उससे बहुत दूर रहते हुए ही जीवन सार्थकता जिए बिना हमारी बहन /बेटी या माँ चली जाती है . 

नारी ममता /करुणा की देवी होती है . अपनी ही पुरुष संतान पर दोषारोपण नहीं कर पाती .बलवान होने से बेटा ,भाई ,पति या पिता उसकी निर्देश /सलाह या प्रार्थना की उपेक्षा करता है .
पुरुष के कुत्सित बहलावों में आ उस समाज के सुख की रक्षा में विफल होती है जिसमें स्वयं उसके पुत्र /पुत्रियों (जननी है नारी सभी की ) को जीवन यापन करना होता है .
छलने के प्रतिफल में पुरुष भी जीवन सार्थकता को पाने में असफल होता ही है . वह स्वयं गलत निर्णयों /अपनी भूलों को लादे वह भी जीवन पथ पर जीवन शिखर या लक्ष्य से बहुत दूर जीवन श्वाँस खो देता है .

हम  आदरणीय /प्रिय माँ /बहनों और बेटियों एवं अपने अपने पतियों की प्रिया पत्नियों से विनम्र अनुरोध करते  हैं . स्वयं इन भूलों में ना पड़ो. स्वयं को बचाओ. उन पुरुषों को बचाओ ,जो किसी ना किसी आप की  ही तरह की नारी का पुत्र,पति या भाई हैं .

आपका स्वयं का बचाव अपने सम्पूर्ण  स्वरूप में स्वयं के निकट पुरुष सम्बन्धियों  के साथ समाज का बचाव करने वाला सिध्द होगा . नारी  जननी है. संस्कारों की प्रथम प्रदाता भी है . अतः नारी  से अनुरोध का आरम्भ करते पुरुषों से भी अनुरोध है . हमें अपनी ही बहन ,बेटी या माँ जो  नारी रूप में इस समाज में रहती है के साथ .हम  नारी- गरिमा का ध्यान कर आदर पूर्वक व्यवहार करें  .परिवार, समाज और देश को सुरक्षित एवं विश्वसनीय बनाना हमारा परम कर्तव्य है .जन्मजात रूप से ही हम ज्यादा शक्तिशाली हैं अपनी शक्ति न्यायप्रियता में हम लगायें . कब तक हम सब अपनी भूलों का अनुभव ना कर दूसरों को दोषारोपित करने का क्रम चलाएंगे . तथा इस समाज को क्रमशः बुरा ,और बुरा बनाते चले जायेगें . यह दिशा बदलनी अभी ही से आरम्भ करें .  यह सभी का मानवीय और सामाजिक कर्तव्य है .

राजेश जैन 

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