Friday, February 23, 2018

जग सो रहा - जाग हम पड़े हैं
एकाकी जागृति में भी - ज़िंदगी के सवाल , वही उठ खड़े हुए हैं

सबको पड़ी अपनी अपनी - देश-समाज-समय अच्छा नहीं कहते हैं
कोई अँग्रेज आकर  इसे ठीक करेगा - क्या यह भ्रम हम रखते हैं ???

जी रहे हैं जब तक ही - यह समय हमारा है
ठीक ये समाज करें - ये समाज ही हमारा है

रहते जब इस जमीं पर - हसरत कोई और जमीं क्यों
ज़ाहिल क्या हम हैं कि - अपनी ज़मीं ना ठीक करें ??

ठीक यदि हम न रहे तो - हमें देश, समाज, समय क्या कहेगा
इतिहासकार जब यह समय लिखेगा - माथा अपना थोक लेगा

लड़ना-छलना ठीक लगता तो- जानवर ही हो लेते
इंसान अगर जन्मे तो - हम इंसान ही तो हो लेते

इंसानियत से जीते तो - ख़ुदा तक हम हो सकते थे
ख़ुदा का ज़िक्र लबों पर - पर इंसानियत ही खोते हैं

महफ़ूज होता ये मुल्क़ - महफ़ूज ही हम , तुम भी होते
फिजां में होती ग़र मोहब्बत - खुशियों से हम जीते होते

तौफ़ीक 'या ख़ुदा' मुझे दे - इस्लाम भी निभाऊ मैं
इंसान को मारूँ नहीं - 'मारे जाते इंसान' बचाऊं मैं



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