Tuesday, May 20, 2014

नारी -पुरुष संबंध (updated)
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बुराइयों के कारण जब तब दुखद घटनाओं के होने से  समाज और देश  ,  क्षोभ से भर जाता है।इनमें से  अधिकाँश बुराइयों का अस्तित्व मानव समाज में आदि-मानव के जन्म के साथ ही रहा है। कुछ ही ऐसी बुराई होंगी , जो आज लेख में केंद्रित बुराइयों की जड़ से ना जुडी हों।  अनेकों बुराइयों के मूल में मात्र कारण नारी -पुरुष के संबंध ही हैं। आज लेख भारतीय समाज -संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में  केंद्रित किया गया है , जिसे आगे वैश्विक परिवेश तक विस्तृत किया जायेगा। वास्तव में ज्यादातर वरिष्ठ और कुछ युवा, हम , जिन्हें आज बुराई मान रहे हैं वे निम्न -लिखित नारी-पुरुष के सम्बन्ध हैं

                              1 .  विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध
                              2 .  विवाहेत्तर शारीरिक सम्बन्ध
                              3 . अनेकों से शारीरिक सम्बन्ध
                              4 .  लिव इन रिलेशनशिप  
                              5 .  विवाह विच्छेद होना
                              6 .  विवाहित होते हुए अवैध संबंधों का रखना


जैसा उपरोक्त में लेख है ये सारी बातें आज की तरह पाषाण युग से निरंतर मानव समाज में विध्यमान रही हैं ।  जानवरों के साथ जानवरों जैसा ही गुफाओं में रहता मनुष्य मस्तिष्क आरम्भ में जानवरों सा ही था। और जैसा जानवरों में देखा जाता है , नर और मादा शारीरिक सम्बन्ध का विवेक जानवरों में नहीं रहता , जब उन्हें आवश्यक हुआ , जो उपलब्ध हुआ या जिस पर जोर चल गया उससे स्थापित कर लेते हैं , कभी यह क्रम परस्पर दो के बीच कुछ समय चलता है , फिर किसी और समय अन्य के साथ रहता है , कभी एक ही समय में अनेकों के साथ  रहता है, तो कभी एक से सम्बन्ध स्थापित होने के बाद स्थान परिवर्तित होने के साथ वह साथी बदल  जाता है । आरम्भ में मनुष्य में नारी-पुरुष संबधों का , जो जानवरों में देखा जाता है वैसा ही रूप था।  जिसमें इन संबधों की अल्पावधि और इनके लिये झगडे और हिंसा से शायद मनुष्य ने वेदना अनुभव की होगी। निसंदेह मानव मस्तिष्क की क्षमता ,जानवरों के मस्तिष्क की क्षमता से बेहतर रही थी । सम्बन्ध के बीच साथी से प्रेम माधुर्य उसे भाया होगा।  और ऐसे में उसने इस मधुर साथ को स्थायित्व देना पसंद किया होगा।  तब दो विपरीत लिंगी , लगभग हमउम्र नारी -पुरुष के बीच विवाह नाम का संस्कार अस्तित्व में आया होगा। जब साथ में स्थायित्व हुआ होगा तो संबंधों से जन्मे बच्चे में  अपना अंश रूप देख उनसे अनुराग और अपनत्व ह्रदय में पनपा होगा।  बच्चे अबोध और साथी नारी पर अन्य पुरुष की बिगड़ती नीयत ने पुरुष को नारी के साथ एक सुरक्षित आश्रय स्थल के लिए विवश किया होगा।  तब उस काल का घर , जो शायद पत्थर , मिटटी , वृक्ष टहनियों और पत्तों से बना होगा, ने अस्तित्व लिया होगा। जिसका परिष्कृत रूप आज का आधुनिक सुविधाओं और सुंदरता युक्त हमारा घर है।



इस तरह शुरुआत में कुछ मानव ने विवाह कर घर -परिवार बसाना आरम्भ किया होगा।  अर्थात कुछ तो आज के परिवारों की तरह रहने के पक्षधर हुए होंगे।  कुछ समय से पीछे चलते तब भी जानवरों सा स्वछंद और असुरक्षित जीवन जीते मर जाते होंगे।  यानि उपरोक्त वर्णित 6 तरह के मनुष्य सम्बन्ध ही तब ज्यादातर व्यापक रहे होंगे (जिसमें सभ्य समाज बुराई मानता है )।  उत्तरोत्तर (ग्रेजुअली ) इसे कुछ और मानव  स्वीकार करते गए होंगे। तब विवाहित परिवारों का घर बसा कर रहना बढ़ता गया होगा। यह संस्कृति और संस्कार शायद भारतीय समाज में पहले विकसित हुयी होगी। इसलिए इसे भव्य और भारत को मानव-सभ्यता के विकास का जनक कहा जाता रहा है ।

स्पष्ट है कि हजारों वर्षों के करोड़ों मानव अनुभव का निचोड़ और सार स्थायी परिवार और घर था , जिसमें  प्रेम ,सुरक्षा और जीवन सार्थकता का होना माना  गया था /है ।  जिसका अनुकरण करते हुए, नारी-पुरुष का विवाह बंधन में बंध एक दूसरे के प्रति प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण से रहने की रीत विकसित होती हुई व्यापक हुई होगी। भारतीय धर्मों ने इसी संस्कृति को अनुमोदित किया था । इस तरह कुछ सदियों पहले तक भारत में विवाह और घर-परिवार ही करीब करीब सर्वमान्य जीवन -यापन का ढंग हो गया था ।

फिर विश्व के अन्य क्षेत्रों से भारत का व्यापारिक सम्बन्ध बना , उन क्षेत्र की संस्कृति भारतीय जैसी उत्कृष्ट नहीं रही थी । वहाँ (नारी-पुरुष संबंधों में ) मानव के जानवर तरह के जीवन यापन की आदत कुछ में तब भी जोर मारती होगी। वहाँ नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता ,और भोग-विलासिता में रहना प्रमुख रहा होगा। व्यापार के क्षेत्र से जुड़ने के बाद संपर्क बड़े होंगे  ,  भारत से जुड़ने के बाद भवन-निर्माण और अन्य सुविधाओं के विकसित करने की तकनीक तो वे भारत से ले गए होंगे ।  लेकिन स्वार्थवश नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता पुनः यहाँ परोस गए होंगे । पिछली सदी तक तो भारतीय परिवार में प्रेम ,समर्पण, त्याग और एकता सुरक्षित थी।  और बाह्य प्रभाव से प्रभावित होकर परिवार में बिगाड़ हुआ  था तो भी ऐसा बिरला परिवार  होता था ।


फिर भारत में सिनेमा आया उसमें आरम्भ में वे लोग जुड़े , जो शासकों के और बाह्य व्यापारियों की  जीवन शैली ( प्रभाव , सुविधा अधिकता , और भोग विलासिता और संबंधों में स्वछंदता ) से प्रभावित थे।  सिनमा में तो भारतीय आदर्शों को दर्शाया जाता था . किन्तु सिनेमा से हुए लोकप्रियता से सिने कलाकारों की निजी ज़िंदगी में झाँकने की आदत युवाओं को हो गई थी .  निजी ज़िन्दगी में कई सिने कलाकारों में जीवन शैली बाह्य संस्कृति प्रभावित थी।   विपरीत लिंगीय आकर्षण से युवा उम्र प्रभावित होती है। जितना ग्लैमर सिनेमा,सिने कलाकारों में था उतना समाज में कहीं और ना मिलने से यह युवाओं की पसंद बनता गया।  पिछली शताब्दी ख़त्म होने के पहले दूरदर्शन और फिर नेट ने पाश्चात्य जीवन शैली का दर्शन ,ग्रामीण क्षेत्रों तक सुलभ कर दिया।  इन से जुड़े लोग जल्द ही पैसे वाले होने लगे।  उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी।  इसलिए इनसे प्रभावित हो इनकी नक़ल देश में व्यापक हो गई। विवाह -विच्छेद , विवाहेत्तर सम्बन्ध ,विवाह किये बिना सम्बन्ध , लिव इन रिलेशनशिप सिने जगत में साधारण सी घटना थी।  इन्हें देख वही युवाओं में पसरने लगी। बहुत सी बातें निजी होती है।  अपना विचार और शैली होती है। 
जो जिसे पसंद और सहमति हो वह करने की स्वतंत्रता सभी को होती है।  जो करते रहे हैं वह करते रहते तो लेखक को कोई आपत्ति नहीं होती।  किन्तु इस चलन ने उन नारियों -पुरुषों को भी प्रभावित किया जो उस शैली से कोई वास्ता नहीं रखते हैं।  जिनका आज भी विश्वास भारतीय परिवार में जीवन यापन का है। वे भी प्रभावित होते हैं।  नारी को कार्यालयों -बाजारों में देखने की दृष्टि बदल गई है।  माँ सा  ,बहन सा  और बेटी सा सम्मान भारत में भी विलुप्त होता जा रहा है।  नारी अगर पराई है तो वह किसी भी उम्र की हो जानवरीय दृष्टि से ही देखी जा रही है। परिणाम स्वरूप यौन अपराध /रोगों से समाज कलप रहा है। परिवार और दाम्पत्य स्थायित्व पर संकट से जन्म लेने वाला बच्चा असुरक्षित हो गया है। 
पीड़ा यही है , मनुष्य परिवार की रीत हजारों साल में विकसित हुई थी। एकबारगी उसकी बुनियाद हिलने लगी है.हमें आहत करती है। कैसे परिवार बचायें , कैसे नारी अस्मिता बनाये रखें ? कैसे समाज दिशा मोड़ें ? यह सभी की निजी समस्या और प्रश्न होना ,चाहिये।  हमें आशा करनी चाहिए , समाज समस्या निराकृत होगी।  हमारा समाज खुशहाल होगा।


(लेख में इतिहास क्या कहता है , इससे कोई सरोकार नहीं है , मनगढ़ंत यह लेख सिर्फ सुखद-समाज रचना की दृष्टि से प्रस्तुत है। जिन पर सीधा आक्षेप किया गया है,  उसमें भी अनेकों अपवाद हैं।  अगर वे इसे पढ बुरा अनुभव करते हैं तो अग्रिम क्षमा . पीड़ा पहुँचाना उद्देश्य नहीं है।  आत्मावलोकन जिससे यह देश -समाज उन्नति कर सके प्रेरित करना ही लक्ष्य है. )


--राजेश जैन 
19-05-2014

नारी -पुरुष सम्बन्ध (2)
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भारतीय संस्कृति के बाहर नारी पुरुष सम्बन्ध में स्वछंदता क्यों रही है ,ये  मर्यादित क्यों नहीं है?  उसका उत्तर धार्मिक विश्वास में छुपा है। किसी धर्म को अच्छा या बुरा माने बिना थोड़ा जिक्र उस पर करना होगा।

भारत में माने जाने वाले ( या भारत से विश्व में फैले ) धर्मों में , जीवन अनादि -अनंत माना गया है। इसलिए जिया जाने वाला मिला जीवन हम आगामी जन्मों में इस जीवन के कर्मों के अच्छे प्रतिफल की आशा में जीते हैं। इसलिये बहुत सी मर्यादा और सदाचार निभाते हैं।
भारत के बाहर के धर्म जीवन को जन्म के साथ मिलना और मौत के साथ ख़त्म हो जाना मानते हैं। जिससे उन्हें मानने वाले जीवन काल में अधिकतम भोग विलासिता सुख उठाना चाहते हैं।  फिर सुखकामना की कोई सीमा नहीं रह जाती।  उस हद में शारीरिक भूख भी आ जाती है।  जो मृग-मरिचिका और मृगतृष्णा सी भ्रामक होती है।  इसलिए वहाँ नारी -पुरुष के दैहिक सम्बन्ध एकाधिक साथी से होना सामान्य सी बात होती है।
भारत में विवाहित नारी -पुरुष (पति-पत्नी ) में परस्पर प्रेम, श्रध्दा ,विश्वास होता है। और मानसिक तथा दैहिक दृष्टि से समर्पण एकाधिकार का होता है। नारी -पुरुष में ऐसा  प्रेम , चाहे विवाह पूर्व या विवाह उपरांत उपजे उसे आजीवन निभाने की संस्कृति है।  यह विश्वास धर्मों से मिलता है कि यह जन्म -जन्म का साथ होता है।  इसलिये इसे चरित्र माना जाता है।  दैहिक समर्पण इसलिये सिर्फ पति-पत्नी में होता है। इसलिये यह मर्यादित होता है।  यही शील माना गया है नारी -पुरुष इसे हर कीमत पर निभाते हैं।   अनुभव बताता है यही समाज हितकारी भी होता है।  क्योंकि वैवाहिक जीवन में स्थायित्व परिवार और बच्चों को सुरक्षा देता है।  परिवार में मधुरता देता है। परस्पर प्रेम और त्याग की भावना सृजित करता है।  परिवार के प्रति प्रत्येक सदस्य को कर्तव्य बोध देता है।  इन भावनाओं की उपलब्धता (प्रेम ,त्याग ,विश्वास और कर्तव्यबोध ) सभी परिवारों में होती है तब इससे निर्मित होने वाले समाज में भी ये सारे तत्व की विद्यमानता होने से समाज सुखी और अच्छा होता है।
पाश्चात्य विश्व में कुशल प्रबंधों और धन बाहुलता से आधुनिक सुविधा सम्पन्नता देखी जाती है , दूर से आकर्षक दिखने वाला वह परिदृश्य हमें लुभा भी रहा है।  हम उस शैली को अंगीकार भी करते जा रहे हैं।  किन्तु उसमें वैवाहिक संबंधों में स्थायित्व के अभाव से ना तो बच्चे संस्कारी बनते हैं।  ना ही नारी -पुरुष में प्रेम अंश भारतीय उंचाई को छू पाता है , बल्कि काम भावना (भोग) ही अधिक निहित होती है।
जो है (वहाँ) उसमें वही पाश्चात्य विश्व हमें दे रहा है।  नेट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अश्लीलता की बाढ़ आई हुयी है।  हम उसकी चपेट में आते जा रहे हैं , उस बहाव में अनियंत्रित बहते जा रहे हैं। अनियंत्रित इस बहाव को थाम सकने की भारतीय संस्कृति की क्षमता अपर्याप्त नहीं थी अगर उसका पठन और चिंतन का समय हमें मिल पाता। अनियंत्रित किसी बहाव के चपेट में आये व्यक्ति से पठन -चिंतन की अपेक्षा तो अनुचित सी दिखती है।  लिखा इसलिए जाता है आशा की एक क्षीण सी किरण जीवन को एक उद्देश्य प्रदान करती है।  किसी दिन हम इस नशे से मुक्त हो जीवंतता से जीवन जीने की शैली पुनः स्थापित कर सकेंगे ,कदाचित ।

राजेश जैन
21-05-2014

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