Saturday, May 24, 2014

शुभ कामनाएं , सद्बुद्धि के लिए

शुभ कामनाएं , सद्बुद्धि के लिए
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वह आदर्शों की बात करता हुआ ,चर्चा में आया था। उसने तथा कुछ और इस तरह के (आदर्शों की बात करने वाले )  लोगों ने मिलकर एक ऐसे संत को जो देश हित में पहले कुछ आंदोलन , धरने और उपवास रख चुका था को चर्चित से बहुत चर्चित बना दिया था। देश की राजधानी में और मीडिया (समाचार चैनेलों ) पर उन दिनों सिर्फ इनकी ही चर्चा रहने लगी थी. लाखों ने प्रत्यक्ष और करोड़ों ने परोक्ष रूप से देश -संविधान और व्यवस्था में सुधार कर देने वालों के रूप में उन्हें मानना आरम्भ कर दिया था।

ये सब तत्कालीन सरकार से वैसे बदलाव चाह रहे थे ,जो यदि सरकार स्वीकृत करती तो स्वयं उनके अनेकों मंत्री और अन्य नेता ही जेलों में चले जाते। स्वाभाविक था ऐसे आत्मघाती परिवर्तन उनके द्वारा संभव नहीं थे. सरकार ने साम दाम दंड का सहारा लेकर उस आन्दोलन को तोड़ दिया।

इस बीच जो चर्चा और लोकप्रियता इस समूह को मिली उससे समूह के लोग अपनी निजी महत्वाकांक्षा के शिकार हुए। और इनके वशीभूत सत्ताधारियों की  राजनीति जिसने आंदोलन तोडा था।  उस सत्ता को प्राप्त करने की राजनीति उसने आरम्भ की। विधि को जो मंजूर था वह हुआ , एक चुनाव में आशातीत सफलता मिली।  इस सफलता ने  उल्लेखित महत्वाकांक्षा के साथ ही उसमें अभिमान भी भर दिया।  अभिमान चूँकि अंधा होता है , इसलिए उसे यह नहीं दिख सका कि अभी जड़ पुष्ट नहीं हो पाई है।  उसने कृत्रिम उपाए से आशा का एक वृक्ष जल्दबाजी में खड़ा कर दिया।

नवगठित दल ने ऐसे अनेकों को अपनी पार्टी से चुनाव लाडवा दिया , जिनकी देश हित की प्रतिबध्दता अभी जनता जानती ही नहीं थी।  जनता उनकी उस ईमानदारी को भी अभी शंकित थी जैसी इस नेता में दिखाई देती थी।  फलस्वरूप आशा के इस वृक्ष का वही सिला हुआ , जो कमजोर जड़ के ऊपर खड़े किसी वृक्ष का होता है। आशा का वृक्ष धराशाई हो गया था। वह हास्य का पात्र बन उस वृक्ष के नीचे पड़ा था।

जैसा होता है जब असफलता होती है आपस में दोषारोपण होता है और बिखराव आरम्भ हो जाता है। उस दल में भी वही होने लगा। भूल जल्दबाजी की थी। पहले मिले छोटे अवसर पर धीरज से कुछ करके दिखाना था। जड़ें जमीन के अंदर पुष्ट और विकसित होने में समय लेती हैं। उतना समय दिया जाना था। अंदर पात्र अपात्र की पहचान होती जाती , ऊपर काम दिखते जाते , किस्मत से देश के ह्रदय स्थल में करने का अवसर था। जिसकी छोटी छोटी बातें ,घटना पूरे देश में मीडिया दिखलाता है। प्रचार और छवि निखारने के अवसर कम प्रयास में ही मिले  हुए थे।

अंधा अभिमान उस पर ना चढ़ता तो देश एक विकल्प निकट भविष्य में प्राप्त करता। कम से कम सत्ता पक्ष पर एक ऐसा दबाव तो रखता ही ,जो सरकार के कार्य देश हित में सुनिश्चित करवाता।

सबकुछ अभी दो -चार साल की ही उपलब्धियाँ थी यानि खोने को बहुत कुछ नहीं था।  जो खोया निजी कम ही था। हाँ देश के नवयुवाओं का और नए नए बने प्रशंसक का एक भरोसा जो इस पूरे क्रम में खोया वह अवश्य थोड़ा बड़ा था।  देश की जनता का स्मरण ज्यादा स्थायी स्वभाव का नहीं होता।  पाँच वर्ष के अवधि में पुराने रिजेक्टेड पुनः सत्तासीन , और सत्तासीन रहे वे सत्ताहीन होते हुए अनेकों अवसर पर हम देखते हैं।  

असफलता मिली है , आरम्भ में निराश करती है लेकिन धैर्य से विचार करे तो वह संभावनाशील व्यक्ति है। असफलता से सबक ले सकता है। की गई भूलों को ना दोहरा कर , नई शुरुआत कर सकता है। जमीनी कार्य करता हुआ पाँच वर्ष में वह जमीन तैयार कर सकता है , जिससे पाँच वर्ष पश्चात यदि आज बन रही सरकार विफल होती है तो आपने आशाओं का महल निर्मित कर सकता है।  अगर यही सरकार जन अपेक्षा पर खरी उतरती है तो उसे विरोध करने की आवश्यकता नहीं होती है।  देश को विकास और उन्नति चाहिए।  उसके लिए यह सब गौड़ है , यह कौन या कौनसी पार्टी उसे करके देती है।

निजी अपेक्षाओं ,महत्वाकांक्षाओं को तज कर वह पुनर्स्थापित हो सकता है।  उसे जनता और देश के लिए उपलब्धियों को प्राथमिक करना होगा , निज मान ,निज नाम और निज श्रेय को सेकेंडरी करना होगा।  देश विकास करे ,उन्नति करे उसके प्रयासों में नाम मिल जाए ,मान मिल जाए या ना मिले इससे निष्फिक्र सिर्फ अपने लक्ष्य को बढ़ना होगा।

यह इतिहासकारों पर छोड़ देना होगा कि कैसा श्रेय या कितना वे उसे देते हैं। झपटने से मिला एक अपराध बोध भी देता है , सहज मिले उससे संतोष ही मिलता है  . वह संतोषी बने , लेखक मानता है , उसमें कोई बात तो है वरना दो चार वर्ष में इतनी उपलब्धि उसे नहीं मिलती।

शुभ कामनाएं , उसको सद्बुद्धि के लिए ……  

राजेश जैन
25-05-2014

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