प्रचलन (फैशन -fashion)
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आज तक किसी ने ऐसा सोचा नहीं , ऐसा प्रस्ताव नहीं किया कि देश के विकास कार्यों के लिए , काम पड़ते वित्तीय संसाधनों के कारण वह टैक्स (इनकम टैक्स आदि ) ज्यादा भुगतान करना चाहता है।
बहुत लोगों के पास बहुत धन नहीं था , किन्तु कुछ के पास बहुत धन था। ऐसा कोई प्रस्ताव हो सकता था। लेकिन नहीं हुआ। क्योंकि जो चलन बना दिए जाते हैं सामान्यतः उसे ही फॉलो किया जाता है। ऐसा चलन नहीं बन सका। बल्कि यह चलन हुआ कि ज्यादा से ज्यादा धन बचा लिया जाए। सब उसी चलन को फॉलो करने लगे। परिणाम यह हुआ कि अधिकाँश अभाव में रह गए और कुछ के पास कई पुश्तों के बिना कुछ करे जीवन यापन के अग्रिम प्रबंध हो गए।
यह किसी ईर्ष्यावश लेख नहीं किया गया है बल्कि इसलिए लेख किया गया है कि हमने अच्छे चलन दे सकने वालों की उपेक्षा कर दी। जिन्होंने स्वार्थ को प्रधानता दी ऐसे को ज्यादा सम्मान दिया प्रतिष्ठित किया। जिससे समाज और व्यवस्था इस तरह की हो गई जो अप्रिय लगती है।
वास्तव में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में आदर्श महत्वहीन हुए , प्रमुखता खराबियों को मिली। ऐसे लोग चर्चित हुये जिन्होंने जीने के सरल किन्तु आदर्शहीन ढंग को दुष्प्रेरित किया।
ये लोग फिल्म के माध्यम से दिखाते तो उच्च आदर्शों को रहे , लेकिन निजी जीवन में भोग और काम प्रवृत्तियों में लीन रहे . उनके निजी जीवन को पत्र -पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने लोकप्रियता पाने और अधिक धन बटोरने की दृष्टि से ज्यादा प्रसारित किया ।
दर्शकों- पाठकों ने फ़िल्मी पर्दों पर आदर्श देखा ,इन पात्रों को निभाते लोगों को निजी जीवन में विलासिता और कामुकता में लिप्त देखा। भारतीय दर्शक जिनकी मानसिक समझ अपनी उम्र की अपेक्षा कम मानी गई है ने जो ग्रहण किया वो ऐसा था "आदर्श दिखाने या अभिनीत करने की चीज है , लेकिन जीवन विलासिता और कामुकता का नाम है।
इसी तरह जिस और एक श्रेणी के लोग ज्यादा चर्चित हुए वे तथाकथित राजनेता हैं। जिन्होंने भाषण में तो त्याग और आदर्शों का बखान किया किन्तु निजी तौर पर सारे गलत धंधों और भ्रष्टाचार में लिप्तता दिखाई। उन्हें कुछ वर्षों के राजनैतिक जीवन में मध्यम या निम्न वर्ग से निकल कर उच्च वर्ग में पहुँचते देख फिर भारतीय भोला श्रोता यही निष्कर्ष निकाल सका कि "आदर्श और त्याग की बातें कहने के लिए अच्छी होती है , करने के लिए धन बटोरने के उपाय ही होते हैं"।
स्पष्ट है कि चलन ही नहीं बन सका अपने से ऊपर उठ कर समाज ,देश या मानवता की साधारण व्यक्ति सोच पाता।
जो कुछ ऐसा सोचते हैं आज भी कम नहीं हैं किन्तु उनकी चर्चा करने की किसी को फुर्सत नहीं। इस तरह से तो लोग जन्मते रहेंगे मरते जायेंगे। सरकारें आती रहेंगी और बदलती रहेंगी , बुराई और समस्यायें अपनी जड़ें मजबूत ही करेंगी
--राजेश जैन
30-05-2014
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आज तक किसी ने ऐसा सोचा नहीं , ऐसा प्रस्ताव नहीं किया कि देश के विकास कार्यों के लिए , काम पड़ते वित्तीय संसाधनों के कारण वह टैक्स (इनकम टैक्स आदि ) ज्यादा भुगतान करना चाहता है।
बहुत लोगों के पास बहुत धन नहीं था , किन्तु कुछ के पास बहुत धन था। ऐसा कोई प्रस्ताव हो सकता था। लेकिन नहीं हुआ। क्योंकि जो चलन बना दिए जाते हैं सामान्यतः उसे ही फॉलो किया जाता है। ऐसा चलन नहीं बन सका। बल्कि यह चलन हुआ कि ज्यादा से ज्यादा धन बचा लिया जाए। सब उसी चलन को फॉलो करने लगे। परिणाम यह हुआ कि अधिकाँश अभाव में रह गए और कुछ के पास कई पुश्तों के बिना कुछ करे जीवन यापन के अग्रिम प्रबंध हो गए।
यह किसी ईर्ष्यावश लेख नहीं किया गया है बल्कि इसलिए लेख किया गया है कि हमने अच्छे चलन दे सकने वालों की उपेक्षा कर दी। जिन्होंने स्वार्थ को प्रधानता दी ऐसे को ज्यादा सम्मान दिया प्रतिष्ठित किया। जिससे समाज और व्यवस्था इस तरह की हो गई जो अप्रिय लगती है।
वास्तव में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में आदर्श महत्वहीन हुए , प्रमुखता खराबियों को मिली। ऐसे लोग चर्चित हुये जिन्होंने जीने के सरल किन्तु आदर्शहीन ढंग को दुष्प्रेरित किया।
ये लोग फिल्म के माध्यम से दिखाते तो उच्च आदर्शों को रहे , लेकिन निजी जीवन में भोग और काम प्रवृत्तियों में लीन रहे . उनके निजी जीवन को पत्र -पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने लोकप्रियता पाने और अधिक धन बटोरने की दृष्टि से ज्यादा प्रसारित किया ।
दर्शकों- पाठकों ने फ़िल्मी पर्दों पर आदर्श देखा ,इन पात्रों को निभाते लोगों को निजी जीवन में विलासिता और कामुकता में लिप्त देखा। भारतीय दर्शक जिनकी मानसिक समझ अपनी उम्र की अपेक्षा कम मानी गई है ने जो ग्रहण किया वो ऐसा था "आदर्श दिखाने या अभिनीत करने की चीज है , लेकिन जीवन विलासिता और कामुकता का नाम है।
इसी तरह जिस और एक श्रेणी के लोग ज्यादा चर्चित हुए वे तथाकथित राजनेता हैं। जिन्होंने भाषण में तो त्याग और आदर्शों का बखान किया किन्तु निजी तौर पर सारे गलत धंधों और भ्रष्टाचार में लिप्तता दिखाई। उन्हें कुछ वर्षों के राजनैतिक जीवन में मध्यम या निम्न वर्ग से निकल कर उच्च वर्ग में पहुँचते देख फिर भारतीय भोला श्रोता यही निष्कर्ष निकाल सका कि "आदर्श और त्याग की बातें कहने के लिए अच्छी होती है , करने के लिए धन बटोरने के उपाय ही होते हैं"।
स्पष्ट है कि चलन ही नहीं बन सका अपने से ऊपर उठ कर समाज ,देश या मानवता की साधारण व्यक्ति सोच पाता।
जो कुछ ऐसा सोचते हैं आज भी कम नहीं हैं किन्तु उनकी चर्चा करने की किसी को फुर्सत नहीं। इस तरह से तो लोग जन्मते रहेंगे मरते जायेंगे। सरकारें आती रहेंगी और बदलती रहेंगी , बुराई और समस्यायें अपनी जड़ें मजबूत ही करेंगी
--राजेश जैन
30-05-2014
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