अति महत्वाकांक्षा
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जीवन अपनी पूर्ण आयु तक जीना हमारा कर्तव्य होता है।
उस विधि के प्रति जिसने ये जीवन दिया
साथ ही उस जननी के प्रति जिसने पीड़ा के 9 महीने व्यतीत किये और
उस मातृ -पितृ ऋण के लिये जिन्होने अपने जीवन सपने हमारे जीवन अस्तित्व में देखे हैं हमारा विनम्र दायित्व होता है ,कि हम अपना पूरा जीवन जियें।
अवसादों के पलों में जीवन से विमुख करते ख्यालों को अपने इन "जीवन दायित्वों " के स्मरण रखते हुये तज देना चाहिये।
जिन व्यक्तिगत ,पारिवारिक या सामाजिक परिस्थितियों से जीवन को विमुख करते विचार उत्पन्न होते हैं अपने "जीवन दायित्वों " को याद कर उनको (परिस्थितियों ) बदलने की चुनौती हमें लेनी चाहिये।
इन चुनौतियों का सामना करता जीवन सिर्फ़ हमें ही नहीं अपितु दूसरों को जीवन सम्बल प्रदान कर सकता है जब हम पारिवारिक और सामाजिक उन (प्रतिकूल ,बुरी ) परिस्थितियों को परिवर्तित कर देते हैं।
"जीवन सिर्फ़ निज अपेक्षाओं का नाम नहीं है बल्कि समग्र पारिवारिक , सामाजिक और मानवीय अपेक्षाओं का नाम है। "
इसलिये उन निज भौतिक महत्वाकांक्षाओं को कम करना चाहिये जिनकी पूर्ति ना होने से जीवन को विमुख करते ख्याल हम पर हावी होते हैं। महत्वाकांक्षाओं को कम करने का आशय कतई महत्वाकांक्षा हीन होना नहीं है। बल्कि जितने हम हैं उससे बढ कर महत्त्वाकांक्षी होने की प्रेरणा है।
क्योंकि यदि हम अपने जीवन को इस तरह जियें जो ना सिर्फ़ हमें सम्बल देता है बल्कि हमारे परिवार , हमारे समाज और मानवता को सम्बल प्रदान करता है तो वह अति महत्वाकांक्षी जीवन होता है
--राजेश जैन
10-05-2014
प्रेरणा - मानवता और समाज हित
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(https://www.facebook.com/PreranaManavataHit)
इस तरह हम महत्वाकांक्षी नहीं , अति महत्वाकांक्षी हो जाते हैं और विधि प्रति , माता -पिता प्रति , समाज प्रति अपने दायित्वों का कुशल निर्वहन कर समाज और विश्व को वह वातावरण देते हैं जिसमें सभी को पूर्ण जीवनकाल की सुनिश्चितता मिलती है ,प्रेरणा मिलती है।
--राजेश जैन
10-05-2014
नारी चेतना और सम्मान रक्षा
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(https://www.facebook.com/pages/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE/161318810691911?ref=hl)
विशेष कर युवा और वह भी नारी आत्महत्या के अप्रिय कदम उठाती पाई जाती हैं , जिसके मूल में प्रेम में असफलता ही अधिकतया काऱण होता है।
बहन -बेटियां इन प्रेम के चक्कर में पड़ने से बचें क्योंकि प्रेम अगर सच्चा है तो असफलता का प्रश्न नहीं होता और जो हमें सच्चा प्रेम करता है वह दगा दे नहीं सकता। वस्तुतः आज जिसे प्रेम कहा जा रहा है वह मात्र दैहिक आकर्षण है जो देह प्रमुखता से होने के कारण खत्म होता ही है ,क्योंकि हमारी देह वैसी ही आकर्षक कभी नहीं रह सकती या देह प्रेमी को हमसे अधिक आकर्षक देह मिल सकती है।
यह मात्र भोग प्रवृति है जो पाश्चात्य विश्व की वस्तु है जो जीवन को इस संकीर्ण दायरे में सीमित करती है। मनुष्य जीवन इससे कहीं बहुत अधिक सम्भावनाशाली है जो अनन्त अच्छे कर्मो का जनक और उपलब्धियॉं युक्त हो सकता है। कम से कम पूर्ण और अच्छा तो हर किसी का हो सकता है।
--राजेश जैन
10-05-2014
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जीवन अपनी पूर्ण आयु तक जीना हमारा कर्तव्य होता है।
उस विधि के प्रति जिसने ये जीवन दिया
साथ ही उस जननी के प्रति जिसने पीड़ा के 9 महीने व्यतीत किये और
उस मातृ -पितृ ऋण के लिये जिन्होने अपने जीवन सपने हमारे जीवन अस्तित्व में देखे हैं हमारा विनम्र दायित्व होता है ,कि हम अपना पूरा जीवन जियें।
अवसादों के पलों में जीवन से विमुख करते ख्यालों को अपने इन "जीवन दायित्वों " के स्मरण रखते हुये तज देना चाहिये।
जिन व्यक्तिगत ,पारिवारिक या सामाजिक परिस्थितियों से जीवन को विमुख करते विचार उत्पन्न होते हैं अपने "जीवन दायित्वों " को याद कर उनको (परिस्थितियों ) बदलने की चुनौती हमें लेनी चाहिये।
इन चुनौतियों का सामना करता जीवन सिर्फ़ हमें ही नहीं अपितु दूसरों को जीवन सम्बल प्रदान कर सकता है जब हम पारिवारिक और सामाजिक उन (प्रतिकूल ,बुरी ) परिस्थितियों को परिवर्तित कर देते हैं।
"जीवन सिर्फ़ निज अपेक्षाओं का नाम नहीं है बल्कि समग्र पारिवारिक , सामाजिक और मानवीय अपेक्षाओं का नाम है। "
इसलिये उन निज भौतिक महत्वाकांक्षाओं को कम करना चाहिये जिनकी पूर्ति ना होने से जीवन को विमुख करते ख्याल हम पर हावी होते हैं। महत्वाकांक्षाओं को कम करने का आशय कतई महत्वाकांक्षा हीन होना नहीं है। बल्कि जितने हम हैं उससे बढ कर महत्त्वाकांक्षी होने की प्रेरणा है।
क्योंकि यदि हम अपने जीवन को इस तरह जियें जो ना सिर्फ़ हमें सम्बल देता है बल्कि हमारे परिवार , हमारे समाज और मानवता को सम्बल प्रदान करता है तो वह अति महत्वाकांक्षी जीवन होता है
--राजेश जैन
10-05-2014
प्रेरणा - मानवता और समाज हित
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इस तरह हम महत्वाकांक्षी नहीं , अति महत्वाकांक्षी हो जाते हैं और विधि प्रति , माता -पिता प्रति , समाज प्रति अपने दायित्वों का कुशल निर्वहन कर समाज और विश्व को वह वातावरण देते हैं जिसमें सभी को पूर्ण जीवनकाल की सुनिश्चितता मिलती है ,प्रेरणा मिलती है।
--राजेश जैन
10-05-2014
नारी चेतना और सम्मान रक्षा
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विशेष कर युवा और वह भी नारी आत्महत्या के अप्रिय कदम उठाती पाई जाती हैं , जिसके मूल में प्रेम में असफलता ही अधिकतया काऱण होता है।
बहन -बेटियां इन प्रेम के चक्कर में पड़ने से बचें क्योंकि प्रेम अगर सच्चा है तो असफलता का प्रश्न नहीं होता और जो हमें सच्चा प्रेम करता है वह दगा दे नहीं सकता। वस्तुतः आज जिसे प्रेम कहा जा रहा है वह मात्र दैहिक आकर्षण है जो देह प्रमुखता से होने के कारण खत्म होता ही है ,क्योंकि हमारी देह वैसी ही आकर्षक कभी नहीं रह सकती या देह प्रेमी को हमसे अधिक आकर्षक देह मिल सकती है।
यह मात्र भोग प्रवृति है जो पाश्चात्य विश्व की वस्तु है जो जीवन को इस संकीर्ण दायरे में सीमित करती है। मनुष्य जीवन इससे कहीं बहुत अधिक सम्भावनाशाली है जो अनन्त अच्छे कर्मो का जनक और उपलब्धियॉं युक्त हो सकता है। कम से कम पूर्ण और अच्छा तो हर किसी का हो सकता है।
--राजेश जैन
10-05-2014
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