बकरा ?
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टीवी पर कल एक प्रोग्राम देखा। एक अंधी स्त्री के चैरिटी के लिए एक टीवी आर्टिस्ट सड़कों पर नीबू-मिर्ची वाहनों ,दुकानों पर और घरों के लिए लगाते/देते रुपये एकत्रित कर रही थी। ऑटो , दो पहियों चालकों से 20 रुपये मिलने लगे तो , कारों से 30 रुपये लेने आरम्भ किये वह भी सरलता से मिलने लगे तो यह कहते हुए अब बड़ा "बकरा" ढूंढते हैं जिनसे ज्यादा रुपये मिल सकें। और फिर एक बी एम डब्ल्यू (BMW) कार तक पहुँच कर उसके मालिक को सहमत करा कर नीबू-मिर्ची लगा कर 100 रुपये प्राप्त कर खुश होती है।
टीवी कलाकार का प्रयास अच्छा था , बशर्ते उसका सरोकार स्वयं की प्रशंसा बटोरने से ज्यादा , सहायता का रहा हो।
जिस बात के लिए फिल्म और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मियों पर लेखक की पोस्ट में आलोचना होती है कि इन्हें फॉलो करने वाले जब अनेकों होते हैं तो इनकी जिम्मेदारी बढ़ती है ,जिसे ये गंभीरता नहीं देकर सिर्फ अपने मौज -मजे में लगे रहते हैं। और समाज को सिर्फ मौज-मजे को दुष्प्रेरित करते हैं। यही फिर यहाँ देखकर अखरता है , फिर आलोचना लिखने का मन होता है .
इनका सामाजिक दायित्व होता है कि ये भारतीय समाज में जो सामाजिक सोहाद्र और परस्पर सम्मान रहा है उसको और बेहतर करें। लेकिन ऐसा ना कर सिर्फ स्वयं को नायक दिखाने की कोशिशें ही करते हैं। स्वयं के लिए धन वैभव और विलासिता को ही प्रोन्नत करते हुए , ऐसे ही अपने प्रशंसकों को मन में विचार और सपने डालते हैं। जिससे सामाजिक कर्तव्यों से सभी उदासीन होकर अपने अपने स्वार्थ के लिए जीने की प्रवृत्ति ही बढ़ाते हैं।
यहाँ जिस बी एम डब्ल्यू (BMW) कार मालिक से 100 रुपये प्राप्त किये हैं ,ज्यादा सहायता पाने के एवज में उनसे पूरे सम्मान से पेश आना चाहिए , लेकिन पीठ पीछे उनके लिए "बकरा" शब्द का प्रयोग अनुचित है। जब उन्होंने इस प्रोग्राम को टीवी पर देखा होगा तो उन्हें कितना बुरा लगा होगा। साथ ही ऐसी ही भाषा चलन में बढ़ती है तो सामाजिक स्नेह ,सौहाद्र , परस्पर सम्मान और सहयोग कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है।
क्या इसके लिए भी सरकार और व्यवस्था ही जिम्मेदार है ?
राजेश जैन
27-05-2014
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टीवी पर कल एक प्रोग्राम देखा। एक अंधी स्त्री के चैरिटी के लिए एक टीवी आर्टिस्ट सड़कों पर नीबू-मिर्ची वाहनों ,दुकानों पर और घरों के लिए लगाते/देते रुपये एकत्रित कर रही थी। ऑटो , दो पहियों चालकों से 20 रुपये मिलने लगे तो , कारों से 30 रुपये लेने आरम्भ किये वह भी सरलता से मिलने लगे तो यह कहते हुए अब बड़ा "बकरा" ढूंढते हैं जिनसे ज्यादा रुपये मिल सकें। और फिर एक बी एम डब्ल्यू (BMW) कार तक पहुँच कर उसके मालिक को सहमत करा कर नीबू-मिर्ची लगा कर 100 रुपये प्राप्त कर खुश होती है।
टीवी कलाकार का प्रयास अच्छा था , बशर्ते उसका सरोकार स्वयं की प्रशंसा बटोरने से ज्यादा , सहायता का रहा हो।
जिस बात के लिए फिल्म और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मियों पर लेखक की पोस्ट में आलोचना होती है कि इन्हें फॉलो करने वाले जब अनेकों होते हैं तो इनकी जिम्मेदारी बढ़ती है ,जिसे ये गंभीरता नहीं देकर सिर्फ अपने मौज -मजे में लगे रहते हैं। और समाज को सिर्फ मौज-मजे को दुष्प्रेरित करते हैं। यही फिर यहाँ देखकर अखरता है , फिर आलोचना लिखने का मन होता है .
इनका सामाजिक दायित्व होता है कि ये भारतीय समाज में जो सामाजिक सोहाद्र और परस्पर सम्मान रहा है उसको और बेहतर करें। लेकिन ऐसा ना कर सिर्फ स्वयं को नायक दिखाने की कोशिशें ही करते हैं। स्वयं के लिए धन वैभव और विलासिता को ही प्रोन्नत करते हुए , ऐसे ही अपने प्रशंसकों को मन में विचार और सपने डालते हैं। जिससे सामाजिक कर्तव्यों से सभी उदासीन होकर अपने अपने स्वार्थ के लिए जीने की प्रवृत्ति ही बढ़ाते हैं।
यहाँ जिस बी एम डब्ल्यू (BMW) कार मालिक से 100 रुपये प्राप्त किये हैं ,ज्यादा सहायता पाने के एवज में उनसे पूरे सम्मान से पेश आना चाहिए , लेकिन पीठ पीछे उनके लिए "बकरा" शब्द का प्रयोग अनुचित है। जब उन्होंने इस प्रोग्राम को टीवी पर देखा होगा तो उन्हें कितना बुरा लगा होगा। साथ ही ऐसी ही भाषा चलन में बढ़ती है तो सामाजिक स्नेह ,सौहाद्र , परस्पर सम्मान और सहयोग कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है।
क्या इसके लिए भी सरकार और व्यवस्था ही जिम्मेदार है ?
राजेश जैन
27-05-2014
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