पीढ़ी करे प्रायश्चित
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सेंसर , फिल्मों पर रहा है। इसके होते हुये फिल्मों ने और उससे अधिक फिल्मवालों की मीडिया पर पकड़ ,प्रभावों से स्वयं ही नायक (भ्रामक) की तरह दिखते /दिखाते रहे ,हमारी पीढ़ियाँ मार्ग भ्रमित होती रहीं , जिससे उत्कृष्ट हमारी परम्परा ,संस्कृति को क्षति पहुँचती रही है। इसलिये सेंसर प्रभावी होगा इसकी संभावना नगण्य ही है। प्रबुद्धता का परिचय देते हुए , हमारी पीढ़ी को ही ख़राबी कर रहे कार्यक्रमों की trp नहीं बढ़ने देने का प्रयास करना चाहिये।
हर नारी को भोग की वस्तु सी देखना , हमारी संस्कृति नहीं थी। गलत चल गई इस परम्परा के लिये दोष फ़िल्मों पर ही है , जिसके गीतों को फिकरा जैसे इस्तेमाल करते , राह चलती बहन , बेटियाँ छेड़ी जाती हैं। वे वासनापूर्ण निगाहों को झेलने पर विवश होती हैं। और विडंबना ये है कि छेड़ने वाले की बहन , बेटियाँ अन्य की ऐसी करतूतों से परेशान रहती हैं। ये सामाजिक परिदृश्य क्या नहीं बदला जाना चाहिये ? पास-पड़ोस , बाजार और कार्यलयों में ऐसा दृश्य , जहाँ घर-परिवार को सहारा देने की दृष्टि से विवशता में हमारी परम्परागत नारी गृह देहरी से बाहर निकल आजीविका संभावनाएं खोजती/(अर्जन करती) हैं।
क्रांति , सयुंक्त प्रयासों और संकल्पों से आती है। जिस दिन सब ठानेगे तब ही बर्बादी थमेगी।
"छलियों से छले जाने की हमारी चूक का जिससे हम भ्रमित हो उत्कृष्ट परम्पराओं और संस्कृति से भटके उसका यही प्रायश्चित है। "
--राजेश जैन
05-09-2014
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सेंसर , फिल्मों पर रहा है। इसके होते हुये फिल्मों ने और उससे अधिक फिल्मवालों की मीडिया पर पकड़ ,प्रभावों से स्वयं ही नायक (भ्रामक) की तरह दिखते /दिखाते रहे ,हमारी पीढ़ियाँ मार्ग भ्रमित होती रहीं , जिससे उत्कृष्ट हमारी परम्परा ,संस्कृति को क्षति पहुँचती रही है। इसलिये सेंसर प्रभावी होगा इसकी संभावना नगण्य ही है। प्रबुद्धता का परिचय देते हुए , हमारी पीढ़ी को ही ख़राबी कर रहे कार्यक्रमों की trp नहीं बढ़ने देने का प्रयास करना चाहिये।
हर नारी को भोग की वस्तु सी देखना , हमारी संस्कृति नहीं थी। गलत चल गई इस परम्परा के लिये दोष फ़िल्मों पर ही है , जिसके गीतों को फिकरा जैसे इस्तेमाल करते , राह चलती बहन , बेटियाँ छेड़ी जाती हैं। वे वासनापूर्ण निगाहों को झेलने पर विवश होती हैं। और विडंबना ये है कि छेड़ने वाले की बहन , बेटियाँ अन्य की ऐसी करतूतों से परेशान रहती हैं। ये सामाजिक परिदृश्य क्या नहीं बदला जाना चाहिये ? पास-पड़ोस , बाजार और कार्यलयों में ऐसा दृश्य , जहाँ घर-परिवार को सहारा देने की दृष्टि से विवशता में हमारी परम्परागत नारी गृह देहरी से बाहर निकल आजीविका संभावनाएं खोजती/(अर्जन करती) हैं।
क्रांति , सयुंक्त प्रयासों और संकल्पों से आती है। जिस दिन सब ठानेगे तब ही बर्बादी थमेगी।
"छलियों से छले जाने की हमारी चूक का जिससे हम भ्रमित हो उत्कृष्ट परम्पराओं और संस्कृति से भटके उसका यही प्रायश्चित है। "
--राजेश जैन
05-09-2014
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