Thursday, September 18, 2014

माँ या पिता द्वारा हत्या पुत्री की ही ,क्यों ?

माँ या पिता द्वारा हत्या पुत्री की  ही ,क्यों ?
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लेखक का प्रश्न यह नहीं कि पुत्र की  हत्या की जानी चाहिये।  प्रश्न यह है कि क्यों पुत्र पर यह संकट नहीं है जबकि पुत्री (बेटी) पर हमारे समाज में यह संकट होता है।
वास्तव में सामाजिक वातावरण इस तरह का हो गया है। जिसमें नारी को आजीवन खुली हवा में चैन की श्वाँस लेना उपलब्ध नहीं है।वह खुले आसमान के नीचे हो या घर , कार्यालय या बाजार में उस की सुरक्षा पर संकट विध्यमान है।

जो समाज (विशेषतः पुरुष) एक माँ द्वारा पुत्री की हत्या पर आंदोलित दिख रहा है। वह किसी घर की बहन -बेटी (नारी) को कहीं भी सुरक्षित होने का अहसास कराने में असमर्थ है। बल्कि उनमें से अनेकों पुरुष तो स्वयं पराये घर की नारी पर बुरी दृष्टि , कमेंट्स और छेड़छाड़ करने से नहीं हिचकते हैं। फुसलाता पुरुष है , शोषण करता पुरुष है लेकिन समाज नारी को कलंकित कहता है।

व्यभिचारी पुरुष क़ानूनी शिकंजे में कभी सजा भुगत ले तो बड़ी बात है , अन्यथा समाज में बेशर्मी से उठता -बैठता  घूमता रहता है।  जब पुरुष पर व्यभिचार का कलंक लगता ही नहीं तब उसकी हत्या को परिजन विवश नहीं होते हैं।
समाज की असमर्थता या असफलता से अनेकों घर परिवार में पुत्री जन्म स्वागत योग्य नहीं माना जाता है।  ऐसे में परिजन और पिता आदि ही गर्भ में अथवा जन्म के बाद उनके निर्देशित दायरे में  ना रहने पर बहन -पुत्री या पत्नी को जीवन की किसी अवस्था में उनकी (नारी) हत्या को अंजाम देते हैं।

कभी नाते -रिश्तेदारों और परिवारजन के तानों -उलाहनों से आहत हो माँ , दुधमुहीं बेटी की हत्या कर देती है तो उस को समाज का सबसे बड़ा दुश्मन करार देकर उसका मुँह काला करने दौड़ते है उसकी जान के दुश्मन होते हैं।  फिर ऐसे विजयी सी मुखमुद्रा दिखाते हैं , जैसे किसी आदमखोर राक्षस का वध कर लौटे हों।
यह सब झूठी प्रतिष्ठा बटोरने का प्रयास है। यह सभी का सच्चा चिंतन भटकाने का प्रयास होता है।  जिसमें सब भटकते भी हैं।  नारी संगठन भी भ्रमित होते हैं।

यही हो रहा है , जबलपुर के अभी की दर्दनाक घटना में।  एक माँ (नारी ) दो सजा भुगत रही है , एक सजा किसी विवशता में स्वयं अपनी ही जन्मी बेटी की हत्या करने की (गहन मानसिक वेदना और पश्चाताप की ) , फिर उसके हत्या के अपराध की क़ानूनी दंड प्रक्रिया की।
अगर यह नारी,  माँ रूप में इतनी खतरनाक होती तो अपने पुत्र को भी मार सकती थी (उसका बेटा है ) . उसने दुधमुँही अपनी बेटी को ही क्यों मारा ?

ऐसा करने वाला भले ही अकेला हो , पर लेखक पुनः उससे सहानुभूति व्यक्त करता है (कल के लेख में भी की थी ) . लेखक पुनः सामाजिक परिवेश परिवर्तित करने  लिए प्रत्येक को स्वयं अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता पर बल देता है. जिससे हम सभी अपने दुर्व्यसनों और दुर्गुणों को त्याग कर ,  समाज और परिवार की नारी को सुरक्षा और सम्मान का स्वच्छ वातावरण उपलब्ध करा सकें।
राजेश जैन
 

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