माँ द्वारा बच्ची की हत्या
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जबलपुर में दुखद यह समाचार लोक चर्चा का केंद्र बना हुआ है।
प्रत्यक्ष रूप से माँ द्वारा स्वीकार लेने पर क़ानूनी तौर पर अपराधी यह माँ , दंड भोगेगी । दंड अवधि लंबी हुई तो कारागृह में ही रूप निस्तेज , मानसिक क्षमता कुंद और युवती से अधेड़ होकर लौटेगी। एक क्षमताशील और अपार संभावनाओं का मनुष्य जीवन यों व्यर्थ चला जाएगा। इस सबके बाद कोई इस दर्दनाक घटना से सही सबक लेगा उसकी संभावना कम ही होगी। ये या इस प्रकार के अपराध जारी रहेंगें। क्योंकि
"रोग की रोकथाम हर रोगी के उपचार से उतनी प्रभावी नहीं होती , जितनी रोग के कारणों को समाप्त करने से हो सकती है।"
वास्तव में बेटी की गर्भ में या जन्म के बाद हत्या , समाज के ख़राब उन चलनों ( सामाजिक रोग ) से दुष्प्रेरित रोगी मनोवृत्ति है , जिसमें जनक (जन्म देने वाला ) पिता या माँ हत्या को अंजाम देता है।
बेटियों ,बहनों या नारियों को समाज में जिस तरह शोषित किया जाता है , वास्तव में वह कारण है। समाज की यह (कु)व्यवस्था एक माँ को इस तरह निर्मम हो जाने को बाध्य करती है कि वह अपनी दुधमुँही बच्ची के मासूम मुख और चंचलता से , जिस पर बारम्बार प्यार उमड़ता है को भी अनदेखा करती है। जिसे नौ माह गर्भ में पाल कर और (प्राणलेवा) प्रसव वेदना सह कर जन्मने के बाद उसकी हत्या कर देती है।
हम मानवीय संवेदना यदि अनुभव करते हैं तो हममें से प्रत्येक को अपने भीतर झाँकना होगा और अपने दुर्व्यसनों और दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें मिटाने होंगे , जिससे आज की नारी शोषक सामाजिक (कु)व्यवस्था पर विराम लग सके। और नारी सुरक्षित ,सुखमय और सम्मानित जीवन का सामाजिक वातावरण पा सके। तब किसी माँ या पिता के हाथों "बेटी की हत्या " ऐसा जघन्य अपराध फिर ना होगा।
लेखक "माँ द्वारा बच्ची की हत्या" के अप्रत्यक्ष कारणों को देख और अनुभव कर पा रहा है। अतः इस अपराध के लिए पुरुष होने के नाते स्वयं सहित आज के पूरे समाज को दोषी मानता है। ऐसे में उस बेबस हत्यारी माँ से सहानुभूति रखता है , जिसे हमारा संविधान सजा सुनायेगा , जबकि वह अबला करुणा और दया की पात्र है।
इस अपराध की ज्यादा बड़ी दोषी हमारी रुग्ण सामाजिक सोच और व्यवस्था है , माँ तो हत्या का निमित्त बनने से दोषी हुई है। बड़े दोषी (समाज) को दंड ना दे कर छोटी दोषी (माँ ) को दंड देना अन्याय ही है। अन्याय के विरुध्द हम एक हों , समाज (यानि स्वयं हम ) पर अपराध का दंड आरोपित करें। और दंड स्वरूप प्रायश्चित कर अपनी रुग्ण मानसिकता ,आचरण और कर्मों को तिलांजलि दें।
"यह नारी के प्रति हमारा यथोचित सम्मान होगा जो हम सबकी जननी बनती है "
--राजेश जैन
18-09-2014
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जबलपुर में दुखद यह समाचार लोक चर्चा का केंद्र बना हुआ है।
प्रत्यक्ष रूप से माँ द्वारा स्वीकार लेने पर क़ानूनी तौर पर अपराधी यह माँ , दंड भोगेगी । दंड अवधि लंबी हुई तो कारागृह में ही रूप निस्तेज , मानसिक क्षमता कुंद और युवती से अधेड़ होकर लौटेगी। एक क्षमताशील और अपार संभावनाओं का मनुष्य जीवन यों व्यर्थ चला जाएगा। इस सबके बाद कोई इस दर्दनाक घटना से सही सबक लेगा उसकी संभावना कम ही होगी। ये या इस प्रकार के अपराध जारी रहेंगें। क्योंकि
"रोग की रोकथाम हर रोगी के उपचार से उतनी प्रभावी नहीं होती , जितनी रोग के कारणों को समाप्त करने से हो सकती है।"
वास्तव में बेटी की गर्भ में या जन्म के बाद हत्या , समाज के ख़राब उन चलनों ( सामाजिक रोग ) से दुष्प्रेरित रोगी मनोवृत्ति है , जिसमें जनक (जन्म देने वाला ) पिता या माँ हत्या को अंजाम देता है।
बेटियों ,बहनों या नारियों को समाज में जिस तरह शोषित किया जाता है , वास्तव में वह कारण है। समाज की यह (कु)व्यवस्था एक माँ को इस तरह निर्मम हो जाने को बाध्य करती है कि वह अपनी दुधमुँही बच्ची के मासूम मुख और चंचलता से , जिस पर बारम्बार प्यार उमड़ता है को भी अनदेखा करती है। जिसे नौ माह गर्भ में पाल कर और (प्राणलेवा) प्रसव वेदना सह कर जन्मने के बाद उसकी हत्या कर देती है।
हम मानवीय संवेदना यदि अनुभव करते हैं तो हममें से प्रत्येक को अपने भीतर झाँकना होगा और अपने दुर्व्यसनों और दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें मिटाने होंगे , जिससे आज की नारी शोषक सामाजिक (कु)व्यवस्था पर विराम लग सके। और नारी सुरक्षित ,सुखमय और सम्मानित जीवन का सामाजिक वातावरण पा सके। तब किसी माँ या पिता के हाथों "बेटी की हत्या " ऐसा जघन्य अपराध फिर ना होगा।
लेखक "माँ द्वारा बच्ची की हत्या" के अप्रत्यक्ष कारणों को देख और अनुभव कर पा रहा है। अतः इस अपराध के लिए पुरुष होने के नाते स्वयं सहित आज के पूरे समाज को दोषी मानता है। ऐसे में उस बेबस हत्यारी माँ से सहानुभूति रखता है , जिसे हमारा संविधान सजा सुनायेगा , जबकि वह अबला करुणा और दया की पात्र है।
इस अपराध की ज्यादा बड़ी दोषी हमारी रुग्ण सामाजिक सोच और व्यवस्था है , माँ तो हत्या का निमित्त बनने से दोषी हुई है। बड़े दोषी (समाज) को दंड ना दे कर छोटी दोषी (माँ ) को दंड देना अन्याय ही है। अन्याय के विरुध्द हम एक हों , समाज (यानि स्वयं हम ) पर अपराध का दंड आरोपित करें। और दंड स्वरूप प्रायश्चित कर अपनी रुग्ण मानसिकता ,आचरण और कर्मों को तिलांजलि दें।
"यह नारी के प्रति हमारा यथोचित सम्मान होगा जो हम सबकी जननी बनती है "
--राजेश जैन
18-09-2014
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