Wednesday, September 24, 2014

नारी -चेतना और सम्मान

नारी -चेतना और सम्मान
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यद्यपि अकारण नहीं है जब विभिन्न नारी संगठन , पुरुष विरुध्द आंदोलन और प्रदर्शन करते हैं। वास्तव में वे प्रदर्शन पुरुष विरुध्द होते भी नहीं हैं। वे सामान्यतः दुराचारी ,शोषक और नारी पर अत्याचारी पुरुष विरुध्द होते हैं ( सारे पुरुष ऐसे हैं भी नहीं) . नारी संगठनों में नारी और प्रदर्शनकारी /आंदोलनकारी नारी भी अपने परिवारों में पुरुष सदस्यों के साथ सामान्यतया सुखमय जीवन यापन करने वाली ही हैं। ये वे भी (पुरुष के साथ ही ) जानती -मानती हैं कि पुरुष -नारी साथ प्राकृतिक रूप से ही अटूट है। जब यह निःसंदेह सत्य है , तब लेखक का मानना है इस साथ में मधुरता होनी चाहिये तनाव नहीं।

दोहरे पुरुष चरित्र जिस के अंतर्गत , पुरुष अपने घर-परिवार की नारी में तो कुछ और गुण देखना चाहता है , और बाहर की नारी से इसके विपरीत अपेक्षा करता है , कुछ सँख्या में समाज में ऐसे पुरुष विद्यमान हैं , अपने को आधुनिक दिखा रही युवा पीढ़ी में तुलनात्मक रूप से इसकी अधिकता है ।
ऐसे पुरुष सामाजिक मर्यादा भूलकर नारी (बहन -बेटियों ) से छेड़छाड़ ,अश्लीलता , शोषण और दुष्कृत्य यहाँ तक कि उसकी हत्या करते हैं। तब प्रबुध्द नारी वर्ग बाध्यता में आंदोलित होता है। उनके आंदोलन/प्रदर्शनों में कभी -कभी भ्रमवश ऐसा दृश्य उत्पन्न होता है जैसे सारा नारी वर्ग , सारे ही पुरुषों के विरुध्द है। इस दृश्य को देख पुनः दोहरे चरित्र का पुरुष ( जिसमें कई प्रतिष्ठित राजनेता भी हैं , मीडिया कार्यरत और सफल व्यवसायी , और वकील इत्यादि भी हैं ) हल्की प्रतिक्रियाओं पर आ जाते हैं। और एक बेहद ही निराशाजनक दृश्य तब निर्मित होता है। ऐसे में पुरुष दोहरे चरित्र , हल्की पुरुष प्रतिक्रियाओं और भ्रम उत्पन्न करते प्रदर्शनों में कमी लाने के प्रयास पुरुष और नारी दोनों ही ओर से होने चाहिए।

वास्तव में दोहरे पुरुष चरित्र की करनी को स्वयं वह पुरुष या परिवार ही भुगतता है , कैसे ?
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एक कुलीन फ़िल्मी घराना जिसकी कई पीढ़ियों का नाम और काम फिल्म जगत में है। पिछली पीढ़ियों में इस परिवार की नारी पर फिल्मों में काम करने पर रोक थी। लेकिन इस घराने के पुरुष , अन्य कमजोर घरानों की नारी का उपयोग अपने निर्माण में देह प्रदर्शन करवा कर , फिल्मों से ज्यादा आय सुनिश्चित करने में करता था। कह सकते हैं कि फिल्म में नारी देह प्रदर्शन की राह उन्होंने तात्कालिक लाभ के लिए प्रशस्त कर दी. समय ने पलटा खाया पूर्व पीढ़ियाँ तो अतीत होने लगी , नई पीढ़ी की उसी घराने की नारियों ने उसी राह पर चलकर देह प्रदर्शन / लिव इन रिलेशनशिप आदि की वह मिसाल पेश कर दीं , जिन्हे वे देखें (पूर्व पीढ़ी ) तो लज्जा से नयन झुक जाएँ।  इस सारे घटना क्रम में उन्होंने क्या पाया , क्या खोया वे ही जानें ,किन्तु देश और समाज को इससे भारतीय संस्कृति विपरीत दुष्प्रेरणा मिली।
आदर्श मानकों के अपवाद ऐसे पुरुष और नारी चरित्र तो , अच्छे से अच्छे प्राचीन समाज में थे।  लेकिन जिन बुरे पथ के निर्माण आज हो रहे हैं , भय है कि आगामी समाज में आदर्श मानक ही अपवाद ना हो जायें ।  फिल्मों ने दी दुष्प्रेरणाओं से पुरुष दृष्टि /सोच में तो नारी मात्र भोग्या होने लगी है।   पुरुष की दृष्टि जो नारी में माँ ,बहन और बेटी की छवि देखती थी बदलने लगी अब नारी मनबहलाव की साधन ही दिखने लगी है।  ये तो चिंतनीय है ही.  आशंका है नारी भी पुरुष को इसी दृष्टि  देखने लगी तो क्या होगा ? शायद पशु भी मनुष्य समाज के  चलन  पर हँसने ना लगेंगे ?

 
नारी ऋणी पुरुष  -  पुरुष ऋणी नारी और अटूट साथ
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पुरुष -नारी किसी भी समाज में तब ही सुखी हैं , जबकि तथाकथित उनका अटूट साथ ,स्थायी हो। इसमें फ्लिर्टींग , लिव इन रिलेशनशिप और विवाह विच्छेद को कतई स्थान नहीं है। हाँ पारम्पारिक नारी पुर्नविवाह ( अल्पवय में दुर्भाग्य से विधवा हुई हो ) की सामाजिक रोक अवश्य हटनी चाहिए। 

जैसा कल लेख में नारी ऋणी पुरुष का उल्लेख था , परिवार में  रिश्तों में पुरुष साथ रहती नारी भी अपने  पुरुष ऋणी मानती है।

पितृ छाया सुरक्षा में बढ़ती बेटी वह
बसती पिता के ह्रदय में पल पल वह

दुल्हन बन जीवनसाथी घर जाती वह
पति अंतरंगता मधुर प्यार पाती वह 

किलकारी साथ आता चंचल बेटा जब
छाती माँ अनुराग से भर आती उसकी

अनूठा त्याग ममत्व माँ बन देती वह
बेटे की श्रध्दा उसकी पूज्या होती वह

फिर नारी और पुरुष परस्पर विरुध्द हो ही नहीं सकते . ऐसे में दोनों ही को अपने अपने में आत्मावलोकन की आवश्यकता है।  हाँ पुरुष कमी पर पुरुष ही और नारी कमी पर नारी ही चेतना दे यह आवश्यक है।  जो परस्पर संघर्ष और दोषारोपण की आशंकाओं पर अंकुश रखेगा।

 उत्कृष्ट समाज - मनोहारी तस्वीर 
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वास्तव में अगर हम ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं , जिसकी तस्वीर यदि खींची जाये तो वह मधुरता ,सुंदरता और उत्कृष्टता का बोध कराती हो , तो यह सच है कि सामाजिक आकार की विशालता के कारण यह कार्य किसी एक के या कुछ मनुष्यों के सामर्थ्य से बाहर है। ऐसे समाज का निर्माण और ऐसी मनोहारी तस्वीर का सृजन अनेकों (पुरुष और नारी ) के सयुंक्त प्रयासों से संभव होगा। कह सकते हैं , कुछ पीढ़ियों के निरंतर इस दिशा में कार्यरत होने पर ही इसे साकार किया सकता है।

इसे साकार करने के लिए एक सावधानी यह भी है कि हमारी लक्ष्यवेधन क्षमता भी सम्पूर्ण दक्षता लिए हो। तब ही ,  जहाँ बुराई और अच्छाई एक साथ खड़ी या मिल गई हो वहाँ हमारे प्रहार का लक्ष्य यदि बुराई है,  तो बुराई ही कटेगी ,अच्छाई नहीं। अभी हो यह रहा है इस तरह प्रवीण हुए बिना कोई भी मारक प्रहार कर बैठता है। यद्यपि लक्ष्य तो बुराई पर किया था पर चूक होने से कट अच्छाई जाती है। जिससे एक नई बुराई (आपसी बैर की ) बढ़ जाती है।
हमें विशालरूप में सयुंक्त प्रयास आरम्भ करने होंगे वही हमारे बच्चों का सुखद सामाजिक और पारिवारिक जीवन सुनिश्चित कर सकता है। 

--राजेश जैन
24-09-2014

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