Sunday, June 1, 2014

प्रशंसक

प्रशंसक
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हम जीवन में अनेकों तथाकथित सफल व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं जिनके फैन (प्रशंसक) हो जाते हैं।  आज जिनके प्रशंसक होने का रिवाज चला है  वे लोग फिल्म या स्पोर्ट्स के ज्यादा हैं.  स्पष्ट है यह ग्लैमर निहारने और मनोरंजन उठाने में मुख्यता की आज की पीढ़ी की प्रवृत्ति को दर्शाती है। पढ़ने वाले हमारे मित्र इसे व्यक्तिगत मान सकते हैं। मोटे तौर पर इसे लेखक भी हरेक का व्यक्तिगत विचार मानता है । किन्तु लेख में  जब इनका प्रशंसक होना देश और समाज के लिए अहितकर बताया जाना है तो इसे व्यक्तिगत अधिकार अंशतया ही माना जा सकता है।  इनका (फिल्म या स्पोर्ट्स के लोगों का ) प्रशंसक होने से नागरिक ऐसा कुछ नहीं सीखता या प्रेरणा लेता है जो देश या समाज का भला करती हो। पहले दार्शनिकों , धर्म विद्वानों , अपने गुरुओं ,साहित्कारों , देश की रक्षा में लगे वीरों और समाज निर्माण से जुड़े विद्वानों , का प्रशंसक होने का चलन था। जिनका अनुशरण कर प्रशंसक ऐसी सद्प्रेरणा पाता था जो उनमें समाज और देश हित की भावना उत्पन्न करती थी।
धिक्कार ऐसे प्रसारण तंत्र का है जो वह बात प्रसारित करता  है जिससे उनके व्यावसायिक हित सधते हैं। ये उन लोगों की छवि बनाते हैं जो अहितकारी हमारी कमजोरी हो गए हैं। देश का मीडिया जब इस देश और समाज के हित के प्रति इतना बेपरवाह हो गया है तो हमारे जैसे लेखक  का धर्म है कि वे  ही अपने क्षीण सामर्थ्य में जितना हो सके सही नायकों को समझने की आवश्यकता को प्रस्तुत करते रहें। अब इसे किसी को महिमा मंडित करने का प्रयास के रूप में ना देखा जाये आगे जो लेख है।
एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मा एक व्यक्ति किशोर आयु में ही वैराग्य अनुभव कर दुनिया से दूर निर्जनों में भटकता है , कुछ वर्षों में वापस तो समाज में लौटता है किन्तु अपने जीवन के लिए सारी इक्छाओं को मार ,अन्यों  के लिए (देश और समाज ) जीने की भावना के साथ।  इसी जन्म में नये अवतरण के साथ उसको हर उम्र पड़ाव पर ऐसी सफलता और चर्चा मिली होती है जिनकी तुलना वह अपनी बचपन की परिस्थितियों से करता तो संतोष कर उसकी सफलता की यात्रा उस जगह तक जाकर ही थम सकती थी। लेकिन जन्म से जितना कम भाग्यशाली वह लगता था ,उतना कम नहीं बल्कि ऐसा भाग्यशाली वह था जैसे बिरले ही होते हैं। देश और समाज के लिये ठोस कुछ कर गुजरने की भावना ने उसे ऐसे किसी मुकाम पर थम जाने नहीं दिया। आज वह देश की आशा का किरण बन देश के उच्चस्थ स्थान पर विराजित है।  बहुत अरसे बाद किसी राजनेता के इतने अधिक प्रशंसक हमें देखने मिले हैं।
देश के लिए वह कुछ करे इस हेतु करोड़ों की  अपेक्षा उस व्यक्ति के ऊपर पहले ही बहुत अधिक हो गयी है इसलिए इस लेख में भी ऐसी कोई अपेक्षा जोड़ कर उसके कंधे पर यह बोझ लेखक नहीं बढ़ायेगा बल्कि क्रियान्वयन को भविष्य के ऊपर छोड़ेगा। यहाँ जिनसे अपेक्षा होगी वह करोड़ों उसके प्रशंसक से होगी।  अपेक्षा चूँकि करोड़ों में बँट जायेगी इसलिए उसका बोझ भी अत्यंत कम ही आएगा।
प्रशंसक अपने इस नायक से यह प्रेरणा और सीख अवश्य लें कि सफलता की मंजिल जीवन भर बदलती जाती है। अपनी किसी वय के लिए निर्धारित सफलता पर पहुँच वहाँ थम जाना उचित नहीं है।  बल्कि उस मुकाम पर पहुँच जाने के बाद अगली मंजिल निर्धारित करते हुए उस पर पहुँचने के क्रम को दोहराते जाना है। इस नायक से यह भी सीखा जा सकता है कि परिवार का हितैषी होते हुये भी अपने हितों के लिये संघर्ष का अवसर अपने परिवार के समर्थ सदस्यों को ही देना है। जिससे जीवन में वे निठ्ठल्ले ही ना रह जायें। इस नायक से यह भी सीखा जाना चाहिए की सफलता का पैमाना सिर्फ धन को ना रखा जाए।
अगर प्रशंसक ऐसी सही प्रेरणा उस जननायक से लेता  है तो उसका काम सरल करता  है , जिसे अपनी आशा की किरण प्रशंसकों ने स्वयं बनाया है      ……
--राजेश जैन
01-06-2014

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