Thursday, June 26, 2014

एक जोड़ी कपड़े और एक आदर्श चरित्र

एक जोड़ी कपड़े और एक आदर्श चरित्र
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टीवी पर एक चैनल पर एक फिल्म का एक दृश्य कल देखने में आया ,जिसमें गरबा उत्सव में गईं तीन युवतियाँ वाश रूम में हैं उनमें से दो के बीच वार्तालाप हो रहा है , तीसरी श्रोता बस है। वार्तालाप कुछ इस प्रकार है -

एक युवती : तू क्या अकेली आई है?
दूसरी : नहीं आई तो किसी के साथ हूँ , पर जिसके साथ आई हूँ , वापिस उसके नहीं किसी दूसरे के साथ जाऊँगी ?
पहली : क्यों ?
दूसरी : क्या एक जोड़ी कपड़े तू जीवन भर पहन सकती है ?
पहली : नहीं।
दूसरी : इसी तरह पूरा जीवन एक ही के साथ कैसे निकाल सकती है ?

 शब्द ठीक वही ना होंगे , जो फ़िल्मी दृश्य में थे , किन्तु आशय यही था  . फिर चैनेल बदल दिया। लेकिन मन में यही वार्तालाप पर अटक गया। आगे फिल्म देखता तो शायद दूसरी युवती के पात्र को फिल्म में ख़राब बताया और सिध्द कर दिया गया देखता , क्योंकि फिल्म भारतीय दर्शक के समक्ष जानी होती है , इसलिये परम्परागत सोच से तारतम्य मिलाने की बाध्यता निर्माता की होती है। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में इस कुतर्क को ही जीवनशैली बनाने वालों की संख्या बहुत है। फिल्मों से प्रसिध्द व्यक्ति लोकप्रिय हो जाते हैं। उनके जीवन ,गतिविधियाँ और कर्मों के चर्चे प्रसारित होते रहते हैं। और अनेक  प्रशंसक उन जैसा सोचने और करने की दुष्प्रेरणा ग्रहण करते हैं। इस तरह फिल्म इंडस्ट्री से गंदगी ही प्रमुखतः हमारे समाज में पहुँचती है।

अब दृश्य में कारण की चर्चा करता हूँ , जिसने ह्रदय वेदना दी है। भारतीय नारी (और पुरुष का ) प्रमुख अच्छाई में से एक उसका चरित्रवान होना रहा है। यहाँ उस आदर्श चरित्र को एक जोड़ी कपड़े जैसा बताकर तारतार कर दिया गया है। हमारा फ़िल्मी दर्शक बहुत परिपक्व मानसिक सोच वाला नहीं है। वह निश्चित ही कुतर्क से दुष्प्रभावित और दुष्प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। ऐसी बहुत से ख़राब घटनायें देश में घटित हुईं हैं , जिसकी पृष्ठभूमि में दुष्प्रेरणा फिल्मों से पाई गई है।

लेकिन धिक्कार पैसा कमाने की सिध्दांत रहित आज की रीति को जो इस तरह के अंधत्व को उत्पन्न करती है जिसमें ना तो dialague लिखने वाले को , ना अभिनीत करने वाले पात्र को ,ना ही फिल्माने वाले फिल्म निर्माता को और ना ही सेंसर बोर्ड को इसमें (ऐसे हलके और पथ भटकाने वाले वाक्य में ) कोई आपत्ति दिखती है।

हम दर्शक भी अब ऐसी आदत बना चुके है की फिल्म में वल्गर तो होता ही है , देख के अनदेखा करना ही ठीक है। लेकिन सभी की यह उदासीनता ,नारी शोषण और परिवार और दाम्पत्य सम्बन्धो को कमजोर करने के अपरोक्ष कारण बन रही है। अंत में हम सिर्फ एक उश्वांस भर कहते हैं , क्या करें बुराइयाँ इतनी बड़ गई हैं , इसे अकेले हम कैसे कम कर सकते हैं। क्या चुनौतियों के समक्ष हमारी पीढ़ी के इस तरह घुटने टेक देने को इतिहास काले अक्षर में नहीं लिखेगा ?

--राजेश जैन
26-06-2014

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