Saturday, July 13, 2013

पहचान (Identity)

पहचान (Identity)
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मशीन बिगड़ जाये ,वस्तु ख़राब हो जाये और ठीक ना हो पाए तो अलग की जाती है . फेंक दी जाती है .बदल दी जाती है . पर पहचान बिगड़ या ख़राब हो जाये तो भी अलग नहीं की जा सकती और ना ही फेंकी जा सकती है . विकल्प सिर्फ खराबी या बिगाड़ का कारण पहचान कर उसे ठीक करने का बचता है . पहचानने का विवेक ना हो तो या पहचान कर ठीक करने की इक्छा शक्ति ना दिखाई जा सके तो उसी पहचान (ख़राब )  के साथ जीवन बिताना पड़ता है।
सब कुछ अनुकूल हो विवेक और इक्छा शक्ति प्रबल हो तो पहचान बदल दी जा सकती है .पुनः अच्छी पहचान मिल सकती है . और आनन्द पूर्वक सही जीवन बिताते अन्य के अच्छे जीवन के लिए सहायक हो सकते हैं .कुछ लोगों को जब पहचान सुधार लेने का आत्मविश्वास नहीं होता या किये उपाय प्रभावी नहीं होते तो वे उस स्थान को बदल लेते हैं (अपनी मातृभूमि से)  दूर  जा बसते हैं .
यहाँ तक जो उल्लेख किया गया वह पारिवारिक और व्यक्तिगत पहचान के लिए लागू होती है .

लेकिन जब भाषा ,धर्म या राष्ट्रीयता की बात की जाये . तो वह वस्तु से तो भिन्न है ही (वस्तु फेंकी जा सकती है ) , व्यक्तिगत से भी भिन्न होती है ( व्यक्तिगत पहचान के लिए स्थान परिवर्तित किया जा सकता है ) . किन्तु भाषा ,धर्म या राष्ट्रीयता की पहचान एक विस्तृत पहचान होती है इन्हें स्थान परिवर्तन से भी परिवर्तित करना आसान नहीं होता . जो लोग देश भी बदल देते हैं तो भी कई कई पीढ़ी तक उसी भाषा ,धर्म और राष्ट्र से पहेचाने जाते हैं .
इस तरह किसी भाषा धर्म या राष्ट्रीयता की पहचान में कोई बिगाड़ आये तो एकमात्र विकल्प बिगाड़ के कारण पहचान कर उन कारकों को नष्ट कर इनकी (भाषा धर्म या राष्ट्रीयता)  पहचान को पुनः स्थापित करना ही बचता है .यही सर्वमान्य,तार्किक  और उत्कृष्ट होता है .
पिछले लेख में हिंदी के कम प्रयोग पर आज शर्माने और अगली शताब्दी में भारतीय कहलाने में शर्म की आशंका का जिक्र बाध्यता और अप्रियता में लेखक ने आज के चलन की दिशा देखते हुए किया था .
उसी परिप्रेक्ष्य में इस लेख की  भूमिका बनी है .

वास्तव में शताब्दियों की परतंत्रता से जन्मा हीनता बोध ही शायद है जिससे इंग्लिश प्रयोग में आधुनिकता ,प्रगति और स्मार्टनेस मानी जाने लगी है . और मातृभाषा (हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषायें )  प्रयोग में पिछड़ापन और शर्म अनुभव होती लगती है .

अगर ऐसी स्थिति है तो आत्मविश्वास से उपाय करने चाहिए ताकि मातृभाषा और भारत की पहचान ऐसी हो जाए जब उसके प्रयोग और पहचान से किसी को भी अपने भाषा और राष्ट्र पर जो हो "वह गर्व और गौरव के सिवा कुछ और ना हो" .

हम पढ़ें ,लिखें और इसे प्रयोग करें . इसके प्रयोग में आधुनिकता मानें . भारतीय भाषाओँ में उल्लेखित अपनी परम्परा ,संस्कृति और धर्म सम्मत उपाय ,रहन सहन ,खानपान ,आचरण और मर्यादाएं जानें और निभाएं .. जिनसे प्राचीन भारत भव्य और दुनिया के आकर्षण का केंद्र था .

विज्ञान और नई  तकनीक के लिए अँग्रेजी का प्रयोग अच्छी बात है . लेकिन उसे आधुनिकता या प्रगति के आडम्बर और घमंड से ना करें . वर्जित नहीं है किन्तु अंग्रेजों के ही सिर-माथे पर इसे इसे रहने दें . हम इसे जितना महत्व दिया जाना यथोचित है उतना दें उससे कुछ ज्यादा देना हमारी उदारता (यह भी भारतीय संस्कृति है ) होगी . पर अपनी मातृभाषा से ज्यादा महत्व इसका ना बढ़ाएं . शिरोधार्य मातृभाषा ही करें .श्रृध्दा मातृभाषा में ही रखें . पहचान राष्ट्र (भारतीय ) और मातृभाषा की ही रखें .

हम जितने शीघ्रता से इस सच को पहचानेगें उतने ही शीघ्र अपनी मातृभाषा ,राष्ट्र और अपनी संस्कृति के प्रति न्याय और आदर कर सकेंगे .

जब ऐसा होगा तब वे कारण स्वयं बन जायेंगे . जब हम भव्य अपने भारत की पहचान पुनः स्थापित करने में सफल हो कर मानवता और समाज हित का मार्ग अपनी इस पावन माटी में प्रशस्त कर लेंगे ...

भारत की पहचान अगर हमारी असावधानी से मिटी तब शर्म की बात हिंदी के प्रयोग की नहीं बल्कि यह होगी की सब में ज्यादा जनसँख्या पर पहुँचने वाला यह देश . अपने अरब से ज्यादा बाँकुरों के होते पहचान तक ना बचा सका .. 

अभी पानी सिर तक नहीं पहुँचा है इस लज्जाजनक स्थिति पर पहुँचने से अभी बचा जा सकता है ...

(अग्रिम क्षमा के साथ .. थोड़ी आक्रमकता से शब्दों के प्रयोग के लिए )

--राजेश जैन 
14-07-2013


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