Wednesday, July 17, 2013

धर्म

धर्म
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गणित की एक क्लास में शिक्षक पचास विद्यार्थियों (Students) को एक थ्योरम पढाते हैं . और फिर एक प्रश्न (गणित ) उस आधार पर हल (सॉल्व )करने देते हैं . कुछ विद्यार्थी (Student) कर नहीं पाते हैं .कुछ करते हैं  उसमें से कुछ शीघ्रता से और कुछ विलम्ब से कर पाते हैं . थ्योरम एक ही है . पढ़ाने वाले शिक्षक एक ही हैं फिर भी विद्यार्थियों के प्रदर्शन में भिन्नता है . स्पष्ट है उनकी ग्रहण करने की प्रतिभा और पढाते समय ध्यान अलग -अलग था . या थ्योरम जिस पूर्व गणितीय ज्ञान (Base) पर निर्भर था उसका अध्ययन और अभ्यास (practice) अलग अलग विद्यार्थियों का अलग -अलग था . अतः थ्योरम  किसी को ठीक , किसी को त्वरित और किसी को त्रुटिपूर्ण समझ में आया .

शिक्षक का अपना स्वयं का ज्ञान और पढाये जाने की शैली भी बच्चों को प्रभावकारी ढंग से समझने में कारण हो सकती है .फिर शिक्षक जो गणित का गुरु है . वह भी गणित के किस स्तर तक का ज्ञाता है ,यह भी महत्वपूर्ण होता है .आवश्यक नहीं गुरु जो प्राथमिकी गणित के अच्छे शिक्षक हैं. वह महाविद्यालयीन गणित में भी उतने  अच्छे पारंगत हों  .

अब वही थ्योरम जिस बच्चे को अच्छा समझ आ गया वह किसी अन्य को बताएगा तो सम्भावना है सही बताये . लेकिन जिस बच्चे को स्वतः सही समझ नहीं आया अगर कोई उससे समझने वाला हुआ तो सम्भावना है कि वह गलत ज्ञान ही पायेगा .

धर्म जो अनादि अनंत माना गया है .अर्थात सृष्टि से पूर्व भी धर्म का अस्तित्व था और सृष्टि के नष्ट हो जाने के बाद भी धर्म का अस्तित्व रहेगा . स्पष्ट है चिरकाल से धर्म सिध्दांत रूप में मनुष्य को उपलब्ध रहा है . मनुष्य ने जीवन में अनेकों धर्म देखे . एक या कुछ पर श्रध्दा रख उसके अनुयायी रहे . हर अलग धर्म के मानने वाले कम भी हों तो भी करोड़ से कम आज किसी भी धर्म के अनुयायी ना होंगे . और ऐसे करोडों अनुयायी धर्म के सहस्त्रों वर्षों से हैं .

अतः किसी का भी किसी धर्म विशेष को गुण रहित कहना  अनुचित हो सकता है .क्योंकि किसी दोष पूर्ण सिध्दांत में इतनी लम्बी अवधि तक आस्था बनी रहना और वह भी करोड़ों की संख्या में मनुष्यों की संभव नहीं है 
धर्म मस्तिष्क का समझने का  विषय रहा है . उन्नत मस्तिष्क मानवों को प्राप्त है .  जो सिध्दांत धर्म के प्रतिपादित हुए हैं वे मानवों के भलाई के ही हैं उसे धर्म की यह  समझ होनी चाहिए . सभी धर्म निश्चित ही मानवता को पुष्ट करते हैं . ऐसे में मानवता को पुष्ट करता कोई भी धर्म मानवों को क्षति नहीं पहुंचा सकता .

इसलिए जब धर्म के नाम पर संघर्ष आते हैं तो वह किसी भी धर्म अनुरूप नहीं हैं . जिस प्रकार गणित के एक सिध्दांत को अपनी या गुरु की प्रतिभा से अलग अलग रूप में विद्यार्थियों ने समझा होता है . उसी प्रकार धर्म के सिध्दांत को भी समझने का अंतर है .
निश्चित ही धर्म का सिध्दांत तो शंका रहित  मानव और मानवता के भले का होता है . (ऊपर उल्लेखानुसार ) . लेकिन जैसा लेख किया गया धर्म सहस्त्रों वर्ष से मनुष्यों के बीच विद्यमान रहा है . उसे कालान्तर में समझने और समझाने वाले अलग अलग प्रतिभा के मनुष्य रहे हैं . और अलग अलग स्तर के विद्वान् और अनुयायी द्वारा धर्म समझा और समझाया गया है .

धर्म निर्विवाद रूप से  मानवता के भलाई की दृष्टि से  होता है . लेकिन धर्म के नाम पर यदि संघर्ष उत्पन्न होता है जो मानवों को (किसी भी धर्म के अनुयायी ) क्षति पहुंचाता है यानि हिंसा का कारण बनता है तो वह धर्म का दोष नहीं . उसे त्रुटी पूर्ण ढंग से निभाने की मानवीय प्रयास दोषी होता है .

ऐसे में हमें धर्म के हवाले से अपने संघर्ष उत्पन्न कराते कर्म को सच्चा सिध्द करने के स्थान पर अपने धर्म का अनुशरण करने के हमारे ढंग की समीक्षा करनी चाहिए .

जब "हम अपना धर्म निभाने के प्रयास या दृष्टि में ऐसा (अन्य मनुष्य को क्षति का कारण )  कर बैठते हैं  तो धर्म की श्रध्दा में एक अधर्म दूसरों का अहित ( उसकी निजता का हनन ) करते हुए करते हैं ".
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यह दो  दिन पूर्व का लेखक का स्टेटस था . जिस पर  प्रबुध्द मित्र ने विस्तृत रूप से कहने लिखा था . उनकी बात को मान रखते हुए  लेखक ने धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर लिखने का साहस किया है . जिसमे सतर्कता तो पूरी रखी है जिससे किसी भी कथन पर कोई विवाद ना हो . तब भी किसी की किसी आस्था , या भावना को कोई ठेस लगती है तो अनायास हुए मेरे अधर्म के लिए  अग्रिम क्षमा चाहता हूँ ...

--राजेश जैन 
17-07-2013

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